राखी-बरवै छंद
राखी धरके आहूँ, तोरे द्वार।
भैया मोला देबे, मया दुलार।।
जब रेशम के डोरी, बँधही हाथ।
सुख समृद्धि आही अउ, उँचही माथ।
राखी रक्षा करही, बन आधार।
करौं सदा भगवन ले, इही पुकार।
झन छूटे एको दिन, बँधे गठान।
दया मया बरसाबे, देबे मान।।
हाँस हाँस के करबे, गुरतुर गोठ।
नता बहिन भाई के, होही पोठ।।
धन दौलत नइ माँगौं, ना कुछु दान।
बोलत रहिबे भैया, मीठ जुबान।।
राखी तीजा पोरा, के सुन शोर।
आँखी आघू झुलथे, मइके मोर।।
सरग बरोबर लगथे, सुख के छाँव।
जनम भूमि ला झन मैं, कभू भुलाँव।।
लइकापन के सुरता, आथे रोज।
रखे हवँव घर गाँव ल, मन मा बोज।।
कोठा कोला कुरिया, अँगना द्वार।
जुड़े हवै घर बन सँग, मोर पियार।।
पले बढ़े हँव ते सब, नइ बिसराय।
देखे बर रहिरहि के, जिया ललाय।
मोरो अँगना आबे, भैया मोर।
जनम जनम झन टूटे, लामे डोर।।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को, कोरबा(छग)
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