Saturday 1 July 2023

नियत बचाके रख रे मनखे- तातंक छन्द

 नियत बचाके रख रे मनखे- तातंक छन्द


नियत बचाके रख रे मनखे, बचही पुरवा पानी हा।

लूट मचा झन बनगे लोभी, सिरा जही जिनगानी हा।


कब्जा झन पर्वत नदिया बन, झन खा पेड़उ पाती ला।

जादा झन निकाल खनिज जल, छेद धरा के छाती ला।।

सता प्रकृति ला अब झन जादा, के दिन रही जवानी हा।

नियत बचाके रख रे मनखे, बचही पुरवा पानी हा।।


चरै तोर बइला विकास के, सुख के धनहा डोली ला।

तोरे बइला तुहिंला पटके, गुनय सुनय ना बोली ला।।

हवै भोंगरा छत अउ छानी, आगी लगे फुटानी हा।

नियत बचाके रख रे मनखे, बचही पुरवा पानी हा।।


माटी मा गारा मिलगे गे हे, महुरा पुरवा पानी मा।

साँस लेय बर जुगत जमाथस, का हे अब जिनगानी मा।

काली बर बस काल बचे हे, सरगे तोर सियानी हा।

नियत बचाके रख रे मनखे, बचही पुरवा पानी हा।।


पेड़ लगावत फोटू ढिलथस, कभू बाँचतस नारा तैं।

सात जनम के ख्वाब देखथस, बइठे रटहा डारा तैं।

चाँद सितारा ला देखत हस, तड़पय धरती रानी हा।

नियत बचाके रख रे मनखे, बचही पुरवा पानी हा।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

बजट अउ आम आदमी

 बजट अउ आम आदमी


आँसों  फेर बजट ला, देखत हे आम आदमी।

आसा के आगी मा हाथ, सेकत हे आम आदमी।।


कखरो मुख मा कहाँ, नाम गाँव रथे इंखर,

ये जग मा सबर दिन, नेपत हे आम आदमी।


पेट्रोल डीजल टोल टेक्स, कुछु मा नइहे राहत,

आहत हो गाड़ी कार ला, बेचत हे आम आदमी।।


न कभू मरे न कभू मोटाय, का खाय का बचाय,

घानी के बने बइला तेल, पेरत हे आम आदमी।।


का बड़े का छोटे, सब खाय इंखरे कमाई ला,

अर्थव्यवस्था ला बोहे, लेगत हे आम आदमी।।


देश राज संस्कृति, अउ संस्कार के बन पुजारी।

खुद के ठिहा ठौर ला, लेसत हे आम आदमी।।


पिसाके दू पाटा बीच, तेल नून आँटा बीच,

सब दिन बस पापड़, बेलत हे आम आदमी।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)


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आम आदमी


सरकार के उपकार मा, हलाल बनके आम आदमी।

बनत रिहिस मसाल पर,मलाल बनगे आम आदमी।।


न ऊपर वाले जाने, ना नीचे वाले कभू माने ,

सिरिफ सपना मा,जलाल बनगे आम आदमी।।


असकटाके गुलामी के बेड़ी मा,नित फंदाय फंदाय,

खास बने के चाह मा, दलाल बनगे आम आदमी।।


शान शौकत के सपना ला, कभू पाँख नइ लगिस,

आन के सुरा शौक बर, कलाल बनगे आम आदमी।


दुबके दुबके नाम गाँव अउ, पद पार के संसो मा,

माँगे बर हक अपन, अलाल बनगे आम आदमी।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को कोरबा(छग)


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करजा परजा बर


सत मत धरम करम के, सदा जय होना चाही।

लत लोभ बैर बुराई के घर, प्रलय होना चाही।।


बड़का उही जे गार पछीना पेट परिवार ला पाले,

करजा काट के अमीरी गरीबी, तय होना चाही।।


काबिल के सर मा, सजै सबर दिन ताज तोरण,

चोर चमचा मन के मन मा,डर भय होना चाही।।


नाम नही काम बोले, नेता अफसर अधिकारी के,

छेरी कस फोकटे फोकट नइ मय मय होना चाही।


सजा छूट विधि विधान सबो बर रहै एक बरोबर,

आम आदमी के मन मा झन संसय होना चाही।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया

बाल्को कोरबा(छग)

हमर भाँखा हमर अभिमान-

 हमर भाँखा हमर अभिमान-


             चिरई चिरगुन, कुकुर बिलई, गाय गरुवा सबे के मुख के आवाज निकलथे, जेला हमन नरियई या चिल्लई कही देथन, फेर मनखे के मुख ले निकले आवाज ला भाँखा या बोली कहिथन, काबर कि मनखे मन के बोली भाँखा एक खांखा मा चलथे, कहे के मतलब एक बेर बने या बोले बात बोली सरलग वो शब्द या फेर वो बूता काम बर बउरे जाथे। चिरई चिरगुन मन का बोलथे तेखर बर तो इहिच कहिबों- "खग ही जाने खग की भाषा"। फेर गाय गरुवा चिरई चिरगुन घलो हमर थोर बहुत भाँखा ला समझथे तभे तो कुकुर बिलई गाय गरुवा ला आआ, हई आ, ले ले---- कहे मा आ जथे अउ हूत,हात, भाग --- कहे मा भगा जथे।

 हमर महतारी बोली भाँखा छत्तीसगढ़ी आय। एखर जनम कब होइस कइसे होइस तेखर बारे मा कुछु कही पाना सम्भव नइहे। बोली भाँखा ला स्थापित करे मा कतका उदिम लगे होही सोच के थरथरासी लगथे, काबर कि कोनो अंचल या क्ष्रेत्र के भाँखा बोली वो क्षेत्र के सबें रहवासी ला मान्य होथे, अउ तर्कसंगत घलो अउ ओला आन क्षेत्र जे मन घलो नइ डिगा सके। जइसे टेड़ा ल टेड़ के पानी निकाले बर पड़थे, ता वो टेड़ा होगे अउ ओखर पटिया पाटी, जे अपन काल मा मान्य रिहिस अउ आजो  मान्य या चलन मा हे। आज येला बदले नइ जा सके। गांव या अंचल के नामकरण घलो भौगोलिक, राजनीतिक, धार्मिक या अन्य कोनो परिदृश्य मा होवय, जइसे भांठा भुइयां के सेती भांठागाँव, खैर के लकड़ी के कारण खैरझिटी, डीही डोंगरी या देव धामी के कारण देवडोंगढ़, अमलीडीही, डोंगरगढ़ आदि आदि। आज भले स्थल या स्थान विशेष के नाम ल शाब्दिक अभाव या आधुनिकता  के कारण बदलत सुनथन, फेर ओखर मूल कतको बदलना उही रथे। पर वस्तु विशेष या क्रिया विशेष के नाम ला नइ बदल सकन। पंखा पंखा ही कहाही, ढेंकी ढेंकी ही कहाही, लमती, चकरी, टेड़गी तको उहीच कहाही। फेर नइ जाने तेमन ओ वस्तु के रंग रूप अनुसार कुछु आन तान बतावत गोठीयावत काम घलो चला लेथे।  कई ठन शब्द  या बोली अपभ्रंस, देशज रूप मा  घलो चलथे, पर लिखित या भाँखा के रूप मा जस के तस नइ लिखे जाय। कोनो अंचल विशेष मा सरलग बउरे जाने वाला बोली ही भाँखा के रूप लेथे। कोनो चीज जब नवा रूप मा अस्तित्व मा आथे ता ओखर नामकरण ओखर अविष्कारक मन करथे, अइसने काम बूता के नामकरण घलो होय होही। जानकार जे मन वो वस्तु या बूता काम ला आन भाँखा मा का कथे तेला जानत रिहिस होही ता उसनेच शब्द लिस होही, काबर की कई शब्द कई भाँखा मा एके रथे। अउ अनजान या येला का कथे अइसन चीज बस बर नवा शब्द गढ़ीन होही, फेर एखर बारे मा कुछु ठोसलगहा प्रमाण नइ हे। वो समय मनखे के सम्पर्क घलो सिमित राहय अउ आना जाना घलो सहज नइ रहय, ते पाय के हर अंचल के भाँखा बोली लगभग अलगे मिलथे।

             भाँखा घलो पानी कस ऊंच ले नीच कोती भागथे , कहे के मतलब सरलता कोती मुड़ जथे। दुनिया मा असंख्य भाँखा हे, सबके अपन अलग अलग अस्तिवव घलो हे। कतको भाँखा के अलगेच लिपि हे ता कतको भाँखा कई लिपि मा ही बउरावत रथे। बोली के जब तक समझइया नइ रही वो भाँखा नइ बन सके। छत्तीसगढ़ी बोली छत्तीसगढ़ भर मा बोले अउ समझे जाथे। जब भाँखा बनिस ता वो समय जेन भी चीज या जेन भी काम धाम वो अंचल विशेष मा चलत रिहिस वो सबके नामकरण होइस होही। जइसे हमर छत्तीसगढ़ मा ढेरा आँटना, मछरी धरना, मुही बाँधना, निंदई करना, धान मिंजना जइसन असंख्य काम--- । अब वो समय कम्प्यूटर, ट्रेक्टर, हार्वेस्टर नइ रिहिस ता कम्प्यूटर, ट्रेक्टर या हार्वेस्टर। चलाये बर अलग से शब्द नइ बनिस, बल्कि मशीन के नाम के अनुसार जब आइस तब अपना लेय गिस। आजो अइसने होवत हे कोनो भी नवा चीज न सिरिफ छत्तीसगढ़ी भाँखा मा बल्कि जम्मे भाँखा बोली मा जस के तस आवत हे,  येला बदले या अपभ्रंस करे के जरूरत घलो नइहे। भाँखा के बारे मा सोचबे ता एकठन अचरज घलो होथे जइसे कतको जुन्ना अउ जरूरी शब्द के नाम कतको भाँखा मा एके दिखथे, उदाहरण बर नाक, कान, दाँत ----  आदि कस कतको अकन शब्द हिंदी या अन्य बोली भाँखा मा वइसनेच मिलथे। जब भौह बर छत्तीसगढ़ी बोली मा चंडी/बटेना/टेपरा बनाइस ता कान ला कान ही काबर किहिस होही, या कान कहिस ता आन भाषी मन तको जस के तस कइसे अपनाइस होही। या हिंदी के शब्द कान ला  छत्तीसगढ़ी मा घलो कान लिस ता भौह ला चंडी काबर किहिस? खैर ये सब ला उही मन जाने।   कतको शब्द के एक ले जादा नाम तको दिखथे। एखर ले साबित होथे, भाँखा के निर्माण कोनो एक व्यक्ति या अंचल विशेष ले नइ होय हे, बल्कि जम्मे कोती के खोज खबर अउ महिनत,मान मनउवल मिले हे। इही क्रम मा सुरता आवत हे, आज कतको संगी मन धन्यवाद या धनबाद या धनेवाद कहिके छत्तीसगढ़ी शब्द बनाथे ,फेर ये उचित नइहे। काबर कि जुन्ना काल मा ये बात बात मा धन्यवाद कहे के परम्परा हमर छत्तीसगढ़ मा नइ रिहिस, बल्कि सेवा के बदला सेवा, अउ बड़े के छोटे के प्रति किये कोनो काम धाम कर्तव्य मा गिनती आवय। ददा अपन लइका बर खजानी लावय ता लइका ददा ला धन्यवाद नइ काहय, दाई रोटी खवावय तभो लइका गबर गबर खाये, धन्यवाद कहिके अभिवादन नइ करे। काबर कि वो दाई ददा के कर्तव्य अउ आदतन निःस्वार्थ बूता रहय,  जेखर करजा लइका बड़े होके चुकावै, धन्यवाद कहिके नइ बोचके। फेर आज तो लइका का दाई, ददा , भाई, बहिनी, यार दोस्त सबें एक दूसर ला धन्यवाद कहत फिरत हे। खैर छोड़व यदि कहना हे ता कहव, फेर छत्तीसगढ़ी भाँखा कहिके बिगाड़ के झन बोलव। मोर कहे के मतलब हे  हमर भाँखा प्राचीन हे जे चीज वो समय रिहिस ओखर बर प्रचलित शब्द हे, अउ नइ रिहिस तेखर बर नइहे। यदि नइहे ता वोला उही रूप मा शामिल करन अउ हवे या महिनत करके जुन्ना सगा सियान ले पूछन। आज कतको अकन प्रचलित ठेठ शब्द मन नइ बउराय के कारण उड़ावत जावत हे, जे हमर पुरखा मनके महिनत के उचित मान सम्मान नोहे।  दाई ला ओखर लइका ही दाई कही, कोनो आन नही अउ दाई के सेवा घलो लइका ल करेल लगही ,काबर की महतारी के करजा ले उऋण होना सम्भव नइहे, वइसने भाँखा घलो हमर महतारी आय अउ हम सब जम्मो छत्तीसगढिया मन ओखर लइका। अब कतका सेवा जतन, मान सम्मान करथन हमरे उपर हे। 

            आवन इही क्रम मा हमर शरीर के अंग मन के नाम ला जानन कि कोन अंग ला छत्तीसगढ़ी मा का कथे---


हिंदी ले छत्तीसगढ़ी नाम


बाल/केश-चुन्दी

सिर- मूड़

मस्तक-माथा/कपार

भौंह- चंडी/टेपरा/बटेना

पुतली-पुतरी

आँख- आँखी

पलक- बिरौनी

मुँह- मुँहु

कान के बाहरी भाग- कनपट्टी

सिर के पीछे के भाग- चेथी

गला- घेंच/ टोंटा

गाल- कपोल

होट- ओंठ

ठुड्डी- दाढ़ी

कंधा-खाँध

कोहनी- हुद्दा

कलाई-मुरुवा

बाँह-बाँही

उंगली- अँगरी

अँनूठा-अंगठा/ठेंगा

नाखून- नख

जंघा-जांग

हड्डी-हाड़ा

तर्जनी उंगली- डुड़ी अँगरी

मध्यमा- माई अँगरी

अनामिका- पैंती अँगरी

कनिष्ठ- छीनी अँगरी

पंजा- थपोल

पैर- गोड़

टखना-घुटवा

नाभि- बोड़ड़ी

तलवा-पंवरी/तरपंवरी

धमनी/शिरा- नस/रग

कमर-कनिहा

चेहरा-थोथना

ताली-थपड़ी/थपौड़ी

हाथ को कुछ चीज को उठाने के लिये आधा सर्कल में जोड़ना-पसर

मुट्ठी- मुठा

घुटना- माड़ी

आँत-पोटा

काँख-खखोरी

कलेजा-करेजा

मूँछ-मेछा


क्रमशः

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

सार छंद- होगे मरना भारी

 सार छंद- होगे मरना भारी


खेत रुँधागे सड़क तीर के, होगे मरना भारी।

रहिरहि रोय किसान छेंव के, कइसे बूता टारी।


धरसा के बिन थमके गाड़ा, थमके नाँगर बइला।

छेंव खेत सब होगे बिरथा, चैन खुशी गे अइला।

फारम बनगे सड़क तीर मा, पइधे हें वैपारी।।

खेत रुँधागे सड़क तीर के, होगे मरना भारी।।


सड़क तीर मा जे पइधे हे, ते देखे बन गिधवा।

डहर बाट नइहे कहि डर मा, बेंचैं खेती सिधवा।

चक के चक्कर मा हावय बड़, रुँधना बँधना जारी।

खेत रुँधागे सड़क तीर के, होगे मरना भारी।।


हरिया भर नइ जघा रिता हे, नइ बाँचे हे परिया।

हाय हाय गरु गाय करत हे, गय किसान अउ करिया।

भारी भरकम हे दुख तब ले, चुप शासन अधिकारी।

खेत रुँधागे सड़क तीर के, होगे मरना भारी।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

बराती मन के टेस- सरसी छन्द

 बराती मन के टेस- सरसी छन्द


मारयँ अड़बड़ टेस बरतिया, मारयँ अड़बड़ टेस।

पहिर जींस टोपी अउ चश्मा, अजब गजब धर भेस।।


अँटियावैं बड़ जवान जइसे, लइका संग सियान।

कोनो बरजे कोनो बोले, देवयँ कहाँ धियान।।

मुँहजोरी अउ सीनाजोरी, करयँ लाज ला लेस।

मारयँ अड़बड़ टेस बरतिया, मारयँ अड़बड़ टेस।।


रंग रूप चुन्दी के लागे, जइसे कुकरा पाँख।

अहड़ा हड़हा टूरा तक हा, रेंगयँ फैला काँख।

बाँटी भौरा के खेलैया, खोजयँ कैरम चेस।

मारयँ अड़बड़ टेस बरतिया, मारयँ अड़बड़ टेस।


डिस्को भँगड़ा नागिन नाचत, कतको गिरयँ उतान।

पिचिर पिचिर बड़ थुकयँ बरतिया, खाके गुटका पान।

नाचे खाये पीये तक मा, दिखें लगावत रेस।

मारयँ अड़बड़ टेस बरतिया, मारयँ अड़बड़ टेस।।


नशा बराती मा खुद होथे, तेमा अद्धी पाव।

रहे कलेचुप हाथ गोड़ नइ, देवयँ लेवयँ घाव।

जिया लुभातिस राम सही ता, बन किंजरे लंकेस।

मारयँ अड़बड़ टेस बरतिया, मारयँ अड़बड़ टेस।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)


मारयँ अड़बड़ टेस बरतिया, मारयँ अड़बड़ टेस।

पहिर जींस टोपी अउ चश्मा, अजब गजब धर भेस।।

डिस्को भँगड़ा नागिन नाचत, कतको गिरयँ उतान।

पिचिर पिचिर बड़ थुकयँ बरतिया, खाके गुटका पान।

बाँटी भौरा के खेलैया, खोजयँ कैरम चेस।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

छेना खरही- दोहा चौपाई

 छेना खरही- दोहा चौपाई



पइसा फेकय हाँस के, जाँगर कोन खपाय।

नवा जमाना आय ले, जुन्ना चीज नँदाय।।


नवा जमाना कती हबरही। दिखे नही अब छेना खरही।।

छेना बीने के गय अब दिन। रहै सहारा जेहर सब दिन।।


पाठ पठउँहा बारी बखरी। जिहाँ रहै बड़ छेना लकड़ी।।

गरुवा गाय बँधाये घरघर। गोबर निकले कोल्लर भरभर।।


भाई बहिनी बाबू दाई। बिनै सबे गोबर मुस्काई।।

डार पिरौसी थोपैं छेना। तभो कखरो थकयँ ना डेना।


चलत रिहिस होही ये कब के। खरही राहय रचरच सबके।।

छेना खा खा भभके चूल्हा। दार भात तब झड़के दूल्हा।।


बर बिहाव का छट्ठी बरही। सबके थेभा राहय खरही।।

खरही खाल्हे डारे डेरा। मुसवा रोज लगाये फेरा।।


 घाम घरी बड़ खरही बाढ़े। आय बतर तब रो धो ठाढ़े।।

छेना बिना गोरसी रोये। पेट सेंक तब लइका सोये।।


अब के लइका का ये जाने। छेना धर सब आगी लाने।।

धुँवा दिखाये नजर जाय लग। छेना सुपचा देय हूम जग।।


छेना रचके बाट चढ़ावै। छेना मा खपरा पक जावै।।

छेना के सब बारे होरी। माँजे गहना गुठिया गोरी।।


एक आँच मा बनथे खाना। खाय माँग बड़ दादा नाना।

छेना राख भभूत लागे। धुँवा देख के मच्छर भागे।।


राख अबड़ उपजाऊ होवय। पौधा जर मा राख कुढ़ोवय।

बाढ़े छेना राख मा बिरवा। खातू बिन मिलवट के निरवा।।


छेना राख काम बड़ आये। बर्तन चकचक ले उजराये।।

बइगा छेना राखड़ धरके।  मारे मंतर फू फू करके।।


उपयोगी हे राख दाँत बर। उपयोगी हे राख आँत बर।।

घावउ गोंदर खजरी कीड़ा। राख मथे ले भागे पीड़ा।।


बिके अमेजन मा छेना हा। देख निकलथे मुख ले हाहा।।

जी सकथे मनखे बिन डेना। फेर जरूरी हावै छेना।।


गोधन रख जे सेवा करही। तेखर घर नित बढ़ही खरही।।गुण गोबर के हे आगर जस। गुण कारी छेना हावै तस।।


जनम धरत छेना ला कहिथे। मरत समय तक छेना रहिथे।

मनुष आधुनिक कतको होवय। कभुन कभू छेना बर रोवय।


छेना हे बड़ काम के, गरुवा गाय बिसाव।

थोपव गोबर सान के, खरही ऊँच बनाव।।


 जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

छत्तीसगढ़ के दलहन-तिलहन फसल- खैरझिटिया

 छत्तीसगढ़ के दलहन-तिलहन फसल- खैरझिटिया


                 चिप्स चाकलेट बिस्कुट मा कइसे देह आही, बड़ मरना हे, बिगन दार के लइका भातेच नइ खाय। रोज रोज दार घर मा चुरे घलो कइसे? सैकड़ा ले आगर पइसा खरचबे तब जाके एक किलो राहेर दार आथे। अइसनेच कहानी तेल के तको हे। ले ले के खवई मा बड़े छोटे सबे हख खागे हे। सुरसा कस मुँह उलाय महँगाई मा, हड़िया पउला भरबे नइ करे अउ इती खीसा उन्ना ऊपर उन्ना होवत जाथे। आजकल खवइया जादा हे, उपजइया कम,  ता खांव खांव तो होबे करही, चाहे चांउर, दार होय या तेल। जिहाँ पहली मनमाड़े उन्हारी घटकत रिहिस, तिहाँ आज सोवा परगे हे, भर्री भांठा तो दिखबे नइ करे। रीता भांठा भर्री मा  महल अटारी अउ अंधाधुन बनत कालोनी तिलहन दलहन फसल के घेच ल धर लेहे। कतको फसल तो चुक्ता सिराय के कगार मा तको आगे हे। हमर छत्तीसगढ़ धान के कटोरा कहिलाथे, फेर तिलहन दलहन फसल मा तको पहली बड़ सजोर रिहिस, आज किसनन्हा मन  पइसा के लालच मा भर्री भाँठा ला व्यपारी मन तीर बेच देवत हे, बचे खोचे भुइयाँ कल कारखाना के भेंट चढ़ जावत हे। सड़क तीर के खेत खार मा बड़े बड़े उद्यमी मनके कब्जा होगे हे, जेमन  सिरिफ समय के फसल बोय हे, जे दिन ब दिन बढ़त(दाम) जावत हे। उनला का चिंता? चिंता तो किसान ल हे। चारो कोती चमचम ले तार रुँधा गेहे। ओनहा कोनहा के किसान बपुरा मन के मरना होगे हे। गाय गरुवा तको छेल्ला होंगे हे। किसनहा मन करे ता का करे? गाय गरुवा कोनो प

पालना नइ चाहत हे, काबर कि न तो चरावन हे अउ न परिया। पैकेट के दूध दही अउ ट्रेक्टर हार्वेस्टर उंखर महत्ता ल खागे। गोबर छेना तो नवा जमाना के चीजे नइ रहिगे। खैर छोड़ ये सब बात ल, आज छत्तीसगढ़ मा होवइहा दलहन अउ तिलहन सफल के बारे मा विचार करबों। छत्तीसगढ़ मा फसल जादा मात्रा मा छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाका मा होथे। पठारी पहाड़ी कोती तको होथे फेर कमती। अउ व्व कोती मोटा अनाज कोदो, कुटकी, जव,जई,राई होथे, दलहन तिलहन, चाऊंर, गहूँ मैदानी छत्तीसगढ़ मा उपजथे। आवन छत्तीसगढ़ के मैदान मा दलहन तिलहन फसल के बारे मा जानन।

                   आजकल वइसे डोली खेत दिखे बर मिल जथे, फेर भर्री कमसल होवत जावत हे। दलहन तिलहन फसल ज्यातर भर्री मा घटकथे। पहली समय  के सुरता करबे ता चक के चक राहेर, तिली,चना,तिवरा, अरसी, सोयाबीन, मसूर,  सरसो देखत मन गदगद हो जावत रिहिस। फेर आज एकात ठन भर्री या डोली मा दिख गे ता खुद ला भागमानी जान। धान के फसल मा जतेक महिनत लगथे ,ओखर ले बड़ कमती महिनत उतेरा उन्हारी बर लगथे, तभे तो हाना रहय "बो दे गहूँ अउ निकल जा कहूँ"। फेर आज ये हाना लागू नइ हो सके, कीरा कांटा, गाय गरुवा, बन बेंदरा के मारे कहूँ नइ धियान देबे ता एको बीजा घलो देखना नोहर हो जही। पहली जिहाँ तक नजर जाय उतेरा उन्हारी घटके रहय, जादा रखवारी लगे न कीरा कांटा। फेर आज जे किसान कुछु बोवत हे ओखर मरना हे।

                हमर छत्तीसगढ़ मा तिलहन फसल के रूप मा मुख्य रूप ले सोयाबीन, सरसो, तिली, अरसी, मूंगफली अउ सूरजमुखी बोय जाथे। सोयाबीन एक समय सबे कोती कन्हार भुइयाँ मा उपजे ,फेर एक बेर  उड़ के चाबे वाले सांप के अफवाह के कारण कतको जघा बंद होगे। ता कतको जघा लुवे टोरे के बेरा पानी बादर के कारण।  सोयाबीन भर्री मा उपजथे, फेर धीरे धीरे भर्री डोली बनगे या उधोगी मनके नियत डोलगे। सोयाबीन खरीफ के फसल आय, इही मौसम मा उरीद, मूंग,राहेर जइसे दलहन फसल के खेती तको होथे। एक समय घरों घर अरसी के तेल बउरे जावत रिहिस, फेर आज के लइका मन का अरसी जाने अउ का ओखर तेल। अरसी बोवइया किसान बिरले दिखथे। अरसी के तेल बड़ गुणकारी होवय, रांधे खाय, चुपरे बर पहली खूब चलत रिहिस, एखर खरी घलो लाभकारी रहय। तिली के बोवइया तको जादा नइ दिखे। सरसो कहूँ न कहूँ कोती माँघ फागुन मा मन मोहत दिखी जथे। तिलहन मा सोयाबीन, मूंगफली,तिली खरीफ़ के ता सरसो अरसी रबी फसल के रूप मा बोय जाथे। कहूँ कहूँ कोती मूंगफली अउ सूरजमुखी खरीफ रबी दोनो मौसम मा बोवत दिखथे। धान बोय के बाद भर्री भांठा मा किसान मन सोयाबीन, राहेर, मूंग, उड़द, मुंगफली बोथे। ये फसल मन बर धान ले कम महिनत अउ कम उपजाऊ भुइयाँ घलो चलथे। तिलहन फसल के कम पैदावार, आज के लागत के हिसाब ले दाम नइ मिले के कारण अउ बिचौलिया मन के कारण, तेल के दाम आसमान छूवत हे।

                किसान मन धान लुवाय के बाद नमीयुक्त धनहा डोली मा लाख, लाखड़ी, मसूर उतेरथे ता भर्री मा चना, गहूँ ,सरसो, मसूर,अरसी ओनारथे। चना, तिवरा, मसूर, मूंग, उड़द,राहेर, मटर, मोठबीन, जिल्लो, ग्वार, खेसारी ये सब दलहन फसल आय। जेमा कुछ ला खरीफ फसल अउ कुछ ला रबी फसल के रूप मा बोय जाथे। तिवरा के खेत मा जिल्लो अपने आप खरपतवार के रूप मा उगे। पहली के किसान मन एखरो दार खायँ, अब तो काये तेला बनेच मन जाने घलो नही। चना, मसूर, अरसी,मटर,  सरसो,तिवरा रबी फसल के शान रहय। चना के खेत मा  छीताय बीच बीच मा सरसो के पिंवरा फूल अउ धनिया के सफेद फूल देखत जउन आत्मीय आनन्द मिलथे, वोला लिख के बयां नइ करे जा सके। अरसी के  घमाघम माते मसरंगी फूल जन्नत के सैर कराथे। ये सबके रखवारी करे बर जेखर बूता लगे, उंखर दिनचर्या सरग बरोबर लगे। रंग रंग के फूल,फर, गावत भौरा, नाचत तितली, चहकत तीतुर,मैना अउ बहकत पुरवइया, आ हाहाहा का कहना। खेत के मेड मा बने कुंदरा मा बइठे बइठे चिरई चिरगुन के गीत सुनत, कागभगोड़ा अउ खेत खार ला निहारत, बोइर अमली झडक़त कब चना,गहूँ, सरसो, मसूर, अरसी पक जथे पता नइ चले। फेर आज रखवार बन बेंदरा के मारे मर जावत हे, अउ बाँचे खोचे आस, चोरहा मनखे मन के मारे नास हो जाथे। एक अनार सौ बीमार के स्थिति कई गांव मा देखे बर मिलथे। आजो कई डहर चक के चक चना गहूँ माते दिखथे, फेर अब धीरे धीरे कमती होवत जावत हे। 

                 अरसी, जिल्लो,उरदानी,सोयाबीन के बोवइया कमतिच बचे हे। दलहन तिलहन फसल घर मा खाय,बउरे के साथ बाजार मा अच्छा दाम तको देथे। आज दलहन अउ तिलहन फसल के प्रति किसान मन के  कम रुझान चिंतनीय हे, अइसने रही ता आघू अउ सबे चीज महँगाही। शहर लहुटत गांव टेस् टेस मा अपन असली धन दौलत (खेत किसानी) ला बरोवत जावत हे, अउ आधुनिकता के चंगुल मा फँसके अभी हाँसत हे, फेर काली का होही तेखर चिटको संसो नइ करत हे। सरकार एक समय दलहनी फसल ल बढ़ाये बर पीली क्रांति लाय रिहिस आजो वइसने कुछु उपाय के जरूरत हे, ताकि धान के कटोरा कहिलइया हमर छत्तीसगढ़ दलहन तिलहन के डलिया तको कहाय।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

रंग के तिहार मा- सार छंद

 रंग के तिहार मा- सार छंद


चलव सँगी रँग के तिहार मा, सब दिन बर रँग जाबों।

दया मया सत सुम्मत घोरे, तन मन दुनों रँगाबों।।


नीर नदी नरवा तरिया के, रहै सबे दिन सादा।

झन मइलाय अँटाये कभ्भू, सबें करिन मिल वादा।।

रचे रहै धरती हरियर मा, बन अउ बाग बचाबों।।

चलव सँगी रँग के तिहार मा, सब दिन बर रँग जाबों।


बने रहे सूरज के लाली, नीला नभ मन भाये।

चंदन लागे पिंवरा धुर्रा, महर महर ममहाये।।

प्लासामा सेम्हर कस फुलके, सबके जिया लुभाबों।

चलव सँगी रँग के तिहार मा, सब दिन बर रँग जाबों।


जे रँग जे हे अधिकारी, वो रँग वोला देबों।

भेद करन नइ जड़ चेतन मा, सबके सुध मिल लेबों।।

दुःख द्वेष डर लत लालच ला, होरी बार जलाबों।

चलव सँगी रँग के तिहार मा, सब दिन बर रँग जाबों।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

पइसा अउ संगी- सार छन्द

 पइसा अउ संगी- सार छन्द


पइसा के राहत ले मिलथें, किसम किसम के संगी।

रोज चढ़ाथें चना झाड़ मा, ख्वाब दिखा सतरंगी।।


काम करयँ नइ कभू अकेल्ला, रटथें यारी यारी।

जुगत बनाथें खाय पिये के, घूम घूम के भारी।।

चाँटुकार के घोर चासनी, बात कहयँ बेढंगी।

पइसा के राहत ले मिलथें, किसम किसम के संगी।


जिया जीतथें जुरमिल फोकट, झूठमूठ कर दावा।

राहन नइ दय पहली जइसे, रंग रूप पहिनावा।।

बना डारथें सिधवा ला तक, अपने कस हुड़दंगी।

पइसा के राहत ले मिलथें, किसम किसम के संगी।


देवयँ नइ सुझाव फोकट मा, साहब बइगा गुनिया।

किसन सुदामा के जुग नइहे, मतलब के हे दुनिया।

रसा रहत ले चुहके मनभर, भागयँ देखत तंगी।

पइसा के राहत ले मिलथें, किसम किसम के संगी।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

खुदखुशी - तातंक छंद

 खुदखुशी - तातंक छंद


बढ़त हवै खुदखुशी करे के, घटना नवा जमाना मा।

प्राण तियागे दुख हे कहिके, ता कतको झन ताना मा।।


कोनो कूदे छत मिनार ले, कोनो मोटर गाड़ी मा।

फाँसी मा कतको झन झूलें, जले कई झन हाँड़ी मा।।

नस नाड़ी ला कोनो काटे, कोनो मरगे हाँ ना मा।।

बढ़त हवै खुदखुशी करे के, घटना नवा जमाना मा।


एक अकेल्ला कोनो मरगे, कतको झन माई पिल्ला।

चिहुर मातगे घर अउ बन मा, दुख मा अउ आँटा गिल्ला।

धीर गँवा के बड़े मरत हें, छोटे मन बचकाना मा।

बढ़त हवै खुदखुशी करे के, घटना नवा जमाना मा।


दुख हा परखे मनखे मन ला, सरल हवै सुख मा जीना।

खुद खुश नइ खुदखुशी करइया, ता काबर महुरा पीना।

बिना मगज के जीव जानवर, जीथें पानी दाना मा।

बढ़त हवै खुदखुशी करे के, घटना नवा जमाना मा।


अजर अमर नइहे ये तन हा, सब ला इकदिन जाना हे।

हे हजार अलहन मारे बर, जीये बर दू खाना हे।।

जउन मोल तन के नइ जानें, वोमन फँसयँ फँसाना मा।

बढ़त हवै खुदखुशी करे के, घटना नवा जमाना मा।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा (छग)

कलाकार- सरसी छन्द

 कलाकार- सरसी छन्द


कलाकार ला झन देते तैं, पेट पार परिवार।

हाय विधाता एखर सेती, कतकों हें लाचार।।


कला हवै अउ धन नइहे ता, दरदर भटका खायँ।

घर दुवार नइ चले कला मा, तभ्भो गायँ बजायँ।।

नाम गाँव हे कला दिखावत, ताहन हे अँधियार।

कलाकार ला झन देते तैं, पेट पार परिवार।।


करैं फिकर नइ घर दुवार के, चाहें नइ कुछु दाम।

नशा कला के अतका होथे, घुमैं छोड़ सब काम।।

करैं कलाकारी जीयत भर, चुचवायें नइ लार।

कलाकार ला झन देते तैं, पेट पार परिवार।


तन मन धन ले कला साधथें, तब पाथें दिल जीत।

गावत रहिथें सबदिन परबर, सुख अउ दुख मा गीत।।

कलाकार जे हावयँ सच्चा, ओखर होय न हार।

कलाकार ला झन देते तैं, पेट पार परिवार।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

रानी अवंतीबाई बलिदान दिवस विशेष- सरसी छंद गीत

 रानी अवंतीबाई बलिदान दिवस विशेष- सरसी छंद गीत


वीरांगना अवंती बाई, लोधी कुल के शान।

देश राज के रक्षा खातिर, होगिस हें बलिदान।


डलहौजी के हड़प नीति ले, होके रानी तंग।

सन सन्तावन मा बैरी सँग, खूब लड़िस हे जंग।

दाँत फिरंगी कटरत रिहिगिस, देख समुंद उफान।

वीरांगना अवंती बाई, लोधी कुल के शान।।


चढ़के घोड़ा गरजे रानी, धर चमकत तलवार।

काटे भोंगे बैरी मन ला, बहय लहू के धार।।

देख युद्ध कौशल रण भीतर, गूँजय गौरव गान।

वीरांगना अवंती बाई, लोधी कुल के शान।।


डर के मारे कतको राजा, होगिस बैरी साथ।

तभ्भो लड़िस अवंती बाई, सदा उठा के माथ।

जीते जीयत देश धरम के, जावन नइ दिस मान।

वीरांगना अवंती बाई, लोधी कुल के शान।।


जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

दुख ऊपर दुख(तातंक छंद)

 दुख ऊपर दुख(तातंक छंद)


बारो  मास  बेंदरा कूदय,अड़बड़ परवा छानी मा।

सीलन आगे परछी कुरिया,छेना भींगय पानी मा।


चूल्हा  के  आगी  गुँगवाये ,चुरथे लटपट मा खाना।

मुसवा सुरही के खवई मा,कमती होवत हे दाना।

भाजी सेमी मखना सरगे,जागिस नइ कुछु बारी मा।

बत्तर बारा हाल करत हे,बइठे साँप झिपारी मा।

धान खेत  के  जागत  नइहे,एसो जादा पानी मा।

बारो  मास  बेंदरा कूदय,अड़बड़ परवा छानी मा।


कोठ ओदरे फूटे भाँड़ी,दीमक अड़बड़ होगे हे।

घूना मुसवा खजुरा घिरिया,घर भीतर आ सोगे हे।

मोर भाग मा दुक्ख लिखे हे,गाड़ा अकन बिधाता हा।

कोन  जनी  काबर  रोवाथे,मोला  धरती   माता  हा।

कभू बाढ़ अउ कभ्भू सुक्खा,सुख नइहे जिनगानी मा।

बारो  मास  बेंदरा कूदय,अड़बड़ परवा छानी मा।


जाँगर हा धन मोर हरे बस,घरबन सबो कमाना हे।

उपजाये हँव सोन घलो मैं,तभो कहाँ घर दाना हे।

मोर लोग अउ लइका मन हा,दूसर के मुँह ला ताके।

मोर  दुक्ख  के भागी बनगे,जनम मोर घर मा पाके।

दू असाड़ हे दुब्बर बर ता, झरे हँसी का बानी मा।

बारो  मास  बेंदरा कूदय,अड़बड़ परवा छानी मा।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बालको(कोरबा)

काया काली बर- सार छन्द

 काया काली बर- सार छन्द


जिबे आज ला जब तैं बढ़िया, तब तो रहिबे काली।

सेहत सबले बड़का धन ए, धन दौलत धन जाली।।


काली बर धन जोड़त रहिथस, आज पेट कर उन्ना।

संसो फिकर करत रहिबे ता, काल झुलाही झुन्ना।।

तन अउ मन हा हावय चंगा, ता होली दीवाली।

जिबे आज ला जब तैं बढ़िया, तब तो रहिबे काली।।


खाय पिये अउ सुते उठे के, होय बने दिनचरिया।

काया काली बर रखना हे, ता रख तन मन हरिया।

फरी फरी पी पुरवा पानी, देख सुरुज के लाली।

जिबे आज ला जब तैं बढ़िया, तब तो रहिबे काली।।


हफर हफर के हाड़ा टोड़े, जोड़े कौड़ी काँसा।

जब खाये के पारी आइस, अटके लागिस स्वाँसा।।

उपरे उपर सजा झन फोकट, जड़ हे ता हे डाली।

जिबे आज ला जब तैं बढ़िया, तब तो रहिबे काली।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

कुंडलियाँ

 कुंडलियाँ


पइसा बर पी एफ के, नियत बिगड़गे आज।

सब मा काटे टैक्स अब, आवत नइहे लाज।।

आवत नइहे लाज, ब्याज मूल सबे ला झटके।

गिरगे हे सरकार, आम जन ला धर पटके।।

नेता मन मिल लूट, खात हें बनके भँइसा।

पेंसन वेतन झोंक, जमावत हें खुद पइसा।।


खैरझिटिया

सड़क के गरुवा गाय ला पहली खेदार जी

 सड़क के गरुवा गाय ला पहली खेदार जी


तुम्हर समूह संगठन दल बल ला टार जी।

सड़क के गरुवा गाय ला पहली खेदार जी।।


कुकरी बोकरा कस रोज पूजात हे गोधन।

नित सड़क मा जिनगी पहात हे,गोधन।।

नवा जमाना मा गाय गरु सड़क छाप होगे।

गाय गरुवा के पलई आज अभिशाप होगे।।

झट ले आघू बढ़ झन देख मुँह फार जी।

सड़क के गरुवा गाय ला पहली खेदार जी।।


रात मा चिन्हाय नही गाय गरु कारी।

आय दिन होवत रथे दुर्घटना भारी।।

मोटर गाड़ी जनधन कोनो नइ बाँचत हे।

सड़क मा चारो कोती काल नाँचत हे।।

बन असल गौरक्षक बोह ए भार जी।

सड़क के गरुवा गाय ला पहली खेदार जी।।


नवा तकनीकी तिरिया दिस गरुवा गाय ला।

विकास विज्ञान खड़ा कर दिस ये बाय ला।।

बचे गौठान चरवाहा ब्यारा बारी नइहे।

गोधन के आज चिटको पुछारी नइहे।।

सोच ये स्थिति के कइसे होही सुधार जी।

सड़क के गरुवा गाय ला पहली खेदार जी।।


जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

कुंडलियाँ छंद(गलत विज्ञापन करत खिलाड़ी अभिनेता)

 कुंडलियाँ छंद(गलत विज्ञापन करत खिलाड़ी अभिनेता)


दारू गुटखा अउ जुआ, देथे जिनगी घाल।

विज्ञापन एखर करे, वोखर नीछव खाल।।

वोखर नीछव खाल, बढ़ावै जे अवगुन ला।

सिर मा झन बइठाव, इसन अभिनेता घुन ला।।

इंखर सुनके बात, बिगड़गे गंगा बारू।

होगे हावय काल, जुआ गुटखा अउ दारू।।


बुता बिगाड़े के करे, बनके बड़का जौन।

वोला दव फटकार मिल, हो जावै झट मौन।

हो जावै झट मौन, स्टार बनके जे फाँसे।

नइ ते सत संस्कार, सबे हो जाही नाँसे।

बड़का पन के मान, रखत सत झंडा गाड़े।

देवँय बढ़िया सीख, कहूँ झन बुता बिगाड़े।।


तास जुआ के खेल हा, बने कभू नइ होय।

विज्ञापन ला एखरो, कई खिलाड़ी ढोय।।

कई खिलाड़ी ढोय, लोभ लालच के गट्ठा।

खेले बर उकसाय, बात नोहे ए ठट्ठा।

बिगड़त हवै समाज, जरूरत हवै दुआ के।

चुक्ता होवय बंद, खेल हा तास जुआ के।



जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

हरिगीतिका छंद

 हरिगीतिका छंद


मारे मरे के खेल ला मनखे सहज अपनात हे।

कोई बने यमराज हे कोनो जहर जर खात हे।।

जिनगी खुदे हे चार दिन के तेन मा तक ये बला।

मर जात हे धन धान बर हीरा असन तन ला गला।।


कखरो चरित बिगड़े हवे कखरो बिगड़हा चाल हे।

कतको धनी गरजत फिरे कोनो निचट कंगाल हे।।

कोई लबारी मार के अघुवाय हावय हार के।

गुंडा गढ़े निज भाग ला हक मार रोजे चार के।।


पग आज नइ ते कल उखड़ही पाप पोंसे तौन के।

ओखर कभू कुछु होय नइ सत सार करनी जौन के।।

बरकत बुराई देय नइ बारो महीना जान ले।

कर काज बढ़िया आज बर मरना हवै कल मान ले।।


इहि लोक मा सब मोह माया छोड़ के जाना हवै।

नेकी करे मा नाम हे बदमाश बर ताना हवै।।

कब छोड़ जाही पिंजरा के सुख सुवा हा का पता।

जिनगी बने जी हाँस के भुलके कहूँ ला झन सता।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

घाम घरी के फर- सार छंद

 घाम घरी के फर- सार छंद


किसम किसम के फर बड़ निकले, घाम घरी घर बन मा।

रंग रूप अउ स्वाद देख सुन, लड्डू फूटय मन मा।।


पिकरी गंगाअमली आमा, कैत बेल फर डूमर।

जोत्था जोत्था छींद देख के, तन मन जाथें झूमर।।

झुलत कोकवानी अमली हा, डारे खलल लगन मा।

किसम किसम के फर बड़ निकले, घाम घरी घर बन मा।


तेंदू तीरे अपने कोती, चार खार मा नाँचै।

कोसम कारी कुरुलू कोवा, कखरो ले नइ बाँचै।

डिहीं डोंगरी के ये फर मन, राज करै जन जन मा।

किसम किसम के फर बड़ निकले, घाम घरी घर बन मा।


पके पपीता लीची लिमुवा, लाल कलिंदर चानी।

खीरा ककड़ी खरबुज अंगुर, करथे पूर्ती पानी।।

जर बुखार लू ला दुरिहाके, ठंडक लाथे तन मा।

किसम किसम के फर बड़ निकले, घाम घरी घर बन मा।


जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

नीर- मतगयंद सवैया

 नीर- मतगयंद सवैया


रंग न गंध न स्वाद घलो नइ नीर तभो सबके मन भावै।

का मनखे अउ जीव जिनावर पेड़ तको के परान बचावै।।

ये जग जाय जले जल के बिन ये धरती जल पी हरियावै।

नीर हवै तब हे जिनगी बिन नीर चराचर जी नइ पावै।।


जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा

टीबी रोग- दोहा छंद

 टीबी रोग- दोहा छंद


बड़का बड़का रोग के, हवै दवाई आज।

घबराये मा नइ बने, करवावव ईलाज।।1


टीबी के लक्षण दिखे, डॉक्टर ला देखाव।

बेरा मा खाके दवा, झट बढ़िया हो जाव।।2


साँस फुले बाढ़े दरद, बिकट पछीना आय।

वजन घटे तीपे बदन, टीबी रोग झपाय।।3


खाँसी आथे रोज के, लहू घलो दिख जाय।

अँकड़े जकड़े तन बदन, जी मचले घबराय।।4


खाँसे छीके अउ छुये, मा फइले ये रोग।

जेन सावधानी रखें, पाये सुख संजोग।।5


इम्यूनिटी शरीर के, होथे जब कमजोर।

टीबी के बैक्टीरिया, दै तन ला झकझोर।।6


जेन छुपाये तेन हा, खुद बर काल बुलाय।

लक्षण देखत करँय दवा, समझदार उहि आय।।7


होय फेफली फेफड़ा, धूम्रपान दव त्याग।

बीड़ी अउ सिगरेट ए, तन बर बिखहर नाग।।8


खाना खावव ताकती, हरा साग फल फूल।

रखव सफाई सब तिरन, इहि सेहत के मूल।।9


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

गीत-चिरई बर पानी

 गीत-चिरई बर पानी


चिरई बर मढ़ाबों चल, नाँदी मा पानी।

गरमी के बेरा आगे, तड़पे जीव परानी।।


जरत हवय चटचट भुइँया, हवा तात तात हे।

मनखे बर हे कूलर पंखा, जीव जंतु लरघात हे।।

रुख राई के जघा बनगे, हमर छत छानी।

चिरई बर मढ़ाबों चल, नाँदी मा पानी।।


बिहना आथे चिंवचिंव गाथे, रोये मँझनी बेरा।

प्यास मा मर खप जाथे, संझा जाय का डेरा।।

काल बनगे जीव जंतु बर, हमर मनमानी।

चिरई बर मढ़ाबों चल, नाँदी मा पानी।।


दू बूँद पानी माँगे, दू बीजा दाना।

पेड़ पात के बीच रहिथे, बनाके ठिकाना।।

चिरई बिन कहानी कइसे, कही दादी नानी।

चिरई बर मढ़ाबों चल, नाँदी मा पानी।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

कुंडलियाँ छंद-एच आई वी रोग

 कुंडलियाँ छंद-एच आई वी रोग


लापरवाही झन करव, नइ ते होही काल।

जानकार बनके चलव, हाल रही खुशहाल।।

हाल रही खुशहाल, रोग जर तिर नइ आही।

रइही जे अंजान, ओखरे उपर झपाही।।

तन ला एड्स विषाणु, भीतरे भीतर खाही।

सावचेत हो जाव, करव झन लापरवाही।।


बीमारी हा एड्स के, होथे लाईलाज।

यौन जनित ये रोग ए, चेत जाव सब आज।

चेत जाव सब आज, दिखे लक्षण झट जागव।

डॉक्टर ला देखाव, दूर झन सच ले भागव।

समझदार बन रोज, निभावव दोस्ती यारी।

करत चलव परहेज, दूर होही बीमारी।


बीमारी यदि हे कहूँ, तभो झने घबराव।

डॉक्टर तिरन सलाह ले, उचित दवाई खाव।

उचित दवाई खाव, सावधानी बरतव नित।

दूसर ला झन होय, सम्हल के साथ चलव नित।

खुद समझव समझाव, देय नइ कोनो गारी।

बनहू लापरवाह, फैलही ये बीमारी।।



जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

सुधरे सेलिब्रेटी मन- लावणी छंद

 सुधरे सेलिब्रेटी मन- लावणी छंद


गलत चीज ला जौन बढ़ाये, तज दव अइसन हस्ती ला।

अपन सुवारथ बर उन मन हा, फूँक दिही घर बस्ती ला।


कोई बेचे दारू घुटका, ता समान कोई घटिया।

ये सब कर उन पइसा जोड़े, हमर जाय बिक घर टठिया।

लाज आय नइ बड़े बने हे, दिखे डुबोवत कस्ती ला।

गलत चीज ला जौन बढ़ाये, तज दव अइसन हस्ती ला।


जुआ चिती मा घर बन उजड़े, तभो करे विज्ञापन ला।

दू पइसा के लालच खातिर, बेच डरिस हें तन मन ला।

भले भाड़ मा जाये जनता, नइ छोड़े उन मस्ती ला।

गलत चीज ला जौन बढ़ाये, तज दव अइसन हस्ती ला।


नंगापन अउ गलत नियत लत, लोगन के बीच परोसे।

अइसन मन ला बड़े बनाके, कोन फालतू मा पोसे।।

पथरा ला पारस ए कहिके, महँगा कर दिस सस्ती ला।

गलत चीज ला जौन बढ़ाये, तज दव अइसन हस्ती ला।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)


सेलिब्रेटियों द्वारा कुछ भी विज्ञापन किया जा रहा है, जो कि सही नही है।

कुकुंभ छंद(आसो मोर अँगना मा)

 कुकुंभ छंद(आसो मोर अँगना मा)


गरज गरज के आबे बादर,आसो झन रोवाबे तैं।

हँरियर चारो कोती होवय, धरके बदरा आबे तैं।।


टपकय टिपटिप रहि रहि छानी,अलिन गलिन बोहय पानी।

भर  जाये   झट   डोली   डबरा,मन   भाये   बरखा    रानी।

तोर अगोरा हावय बादर,जादा झन तरसाबे तैं।

गरज गरज के आबे बादर,आसो झन रोवाबे तैं।


धान  निकलगे  हे कोठी  ले,खेती  के  होगे  जोरा।

सजगे नाँगर बइला जूँड़ा,टुकनी चरिहा अउ बोरा।

जेठ बुलकगे करहूँ बाँवत,कहाँ हवस पग दाबे तैं।

गरज गरज के आबे बादर,आसो झन रोवाबे तैं।


भभकत भुँइया ला तैं पानी,सोसन भर पीयादे गा।

काँस काँद बन दूबी मन ला,हँरियर कर जीयादे गा।

बरस बरस तैं गरज गरज के,सबके प्यास बुझाबे तैं।

गरज गरज के आबे बादर,आसो झन रोवाबे तैं।


पान पतउवा देख तोर बिन,अइलाय पड़े हेवे जी।

मुँह  फारे  भुँइया  हा  देखे,तोला  गारी   देवे  जी।

आकुल बाकुल जिवरा होगे, आके नित हरसाबे तैं।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

 बालको(कोरबा)

जू के प्रानी- लावणी छंद

 जू के प्रानी- लावणी छंद


हमर नैन के सुख बर जू मा, कैद रथे कतको प्रानी।

लइका संग सियान झुमरथे, जीव जंतु के सुन बानी।।


चिरई चिरगुन चिंवचिंव चहकै, फुसकारे डोमी अजगर।

भँठेलिया भलुवा बनभैसा, इमू नेवला आय नजर।

नाचे फैला पाँख मँयूरा, करय बेंदरा मनमानी।

हमर नैन के सुख बर जू मा, कैद रथे कतको प्रानी।


हाथी घोड़ा हैना मिरगा, नील गाय चीतल सांभर।

बघवा बिज्जू बारह सिंगा, बनबिलवा गिलहरी मगर।।

मछरी मेढक बतख कोकड़ा, इतराथे पाके पानी।

हमर नैन के सुख बर जू मा, कैद रथे कतको प्रानी।


पांडा गैंडा गोह गोरिल्ला, जेब्रा जगुआर छछूंदर।

कंगारू जिराफ तेंदुवा, शाही चीता शेर सुअर।

लामा उद दरियाई घोड़ा, जू ला माने छत छानी।

हमर नैन के सुख बर जू मा, कैद रथे कतको प्रानी।


अपन देश दुनिया ले दुरिहा, रहिके जिनगी नित काटे।

अपन दुःख ला जाने उहि हा, काखर तीरन जा बाँटे।।

पिजरा भीतर मर खप जाथे, जंगल के राजा रानी।

हमर नैन के सुख बर जू मा, कैद रथे कतको प्रानी।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को कोरबा(छग)

हाल खेती भुइयाँ के- सरसी छंद

 हाल खेती भुइयाँ के- सरसी छंद


भुइयाँ के रखवार सिरागे, बढ़गे देख दलाल।

शहर लगे ना गाँव लगत हे, फइले हावै जाल।।


कुटका कुटका कर भुइयाँ ला, बना बना के प्लाट।

बेंचत हावै वैपारी मन, नदी ताल तक पाट।।

धान गहूँ तज समय फसल बो, नाचै दे दे ताल।

भुइयाँ के रखवार सिरागे, बढ़गे देख दलाल।।


माटी हा महतारी जइसे, उपजाये धन सोन।

आफत आगे ओखर ऊपर,जतन करै अब कोन।।

धमकी चमकी अउ पइसा मा, होय किसान हलाल।

भुइयाँ के रखवार सिरागे, बढ़गे देख दलाल।।


बड़े बड़े बिल्डर बइठे हें, भुइयाँ मा लिख नाम।

गला घोंट खेती भुइयाँ के, करत हवै नीलाम।।

अइसन मा मुश्किल हो जाही, कल बर रोटी दाल।

भुइयाँ के रखवार सिरागे, बढ़गे देख दलाल।।


इंच इंच मा बनगे बासा, नइ बाँचिस दैहान।

जीव जंतु के मरना होगे, देवै कोन धियान।।

तार घेरागे भू कब्जागे, बचिस पात ना डाल।

भुइयाँ के रखवार सिरागे, बढ़गे देख दलाल।।


जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

नेता गिरी

 नेता गिरी


खेमा बदले के खेल जारी हे।

पद पाये बर पेलम पेल जारी हे।।


कोई आत हे ता कोई जात हे,

राजनीति के पटरी मा रेल जारी हे।।


मुर्गी चोर मंगलू काटत हे उमरकैद,

खूनी नेता मन के बेल जारी हे।।


वोट पाये बर बाँट देथे जनता ला,

खुद के पेंशन पइसा बर मेल जारी हे।।


सच के होगे हवय राम नाम सत,

झूठ के जघा जघा सेल जारी हे।।


पास होगे नेता पद पाके सब मा,

बिकास बाबू के फेल जारी हे।।


बाँटे बर हे बैर तोर मोर नेता तीर,

सात पीढ़ी बर धन सकेल जारी हे।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

गर्मी मा बरफ गोला- सार छंद

 गर्मी मा बरफ गोला- सार छंद


गजब सुहाथे घाम घरी मा, बरफ बरफ के खाजी।

लइका संग सियान खाय बर, हो जाथे झट राजी।।


काड़ी वाले होय बरफ या, रंग रंग के गोला।

रबड़ी कुल्फी बरफ मलाई, देय नियत ला डोला।।

सस्ता होवय या हो महँगा, कइथे सब झन ला जी।

गजब सुहाथे घाम घरी मा, बरफ बरफ के खाजी।।


आमा गन्ना नीम्बू रस मा, डार बरफ के चूरा।

ठंडा ठंडा मन भर पीले, जिया जुड़ाथे पूरा।।

बरफ संग मा सेवइ कतरी, खा के कहिबे वा जी।

गजब सुहाथे घाम घरी मा, बरफ बरफ के खाजी।


खुशी हमाथे मन मा भारी, देख बरफ के ठेला।

कोनो ला गर्मी नइ भाये, सब ठंडा के चेला।।

फोकट हे धन बल के गर्मी, जुड़ रख जिया जुड़ा जी।

गजब सुहाथे घाम घरी मा, बरफ बरफ के खाजी।।


जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

जेठ महीना- सार छंद

 जेठ महीना- सार छंद


जेठ महीना जुलुम ढात हे, जरै चटाचट धरती।

धनबोहर मा फूल फुले हे, टपकै आमा गरती।।


लाली फुलवा गुलमोहर के, गावत हावै गाना।

नवा पहिर के हरियर लुगरा, बिरवा मारे ताना।।

छल बल धर गरमाये मनखे, निकलै बेरा ढरती।

जेठ महीना जुलुम ढात हे, जरै चटाचट धरती।।


निमुवा अमवा बर पीपर हा, जुड़ जुड़ छँइहा बाँटै।

तरिया नदिया कुँवा सुखावै, हवा बँवंडर आँटै।।

होय फूल फर कतको झरती, ता कतको के फरती।

जेठ महीना जुलुम ढात हे, जरै चटाचट धरती।


जीव जंतु सब लहकै भारी, पानी तीरन लोरे।

भाजी पाला अब्बड़ निकलै, मोहे बासी बोरे।।

पेड़ प्रकृति हा जिनगी आये, सुख दुख देय सँघरती।

जेठ महीना जुलुम ढात हे, जरै चटाचट धरती।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

मन अरझगे तरिया के कमल फूल मा-सार छंद

 मन अरझगे तरिया के कमल फूल मा-सार छंद


एक फूल ले दुसर फूल मा, मन बइठे जा जाके।

फँसा डरे हे अपन जाल मा, कमल फूल तरिया के।।


तरिया भीतर फूल पान हा, चौंक पुरे कस लागे।

दुर्योधन कस अहमी मन हा, धोखा खात झपागे।।

हँसे पार अउ पानी खिलखिल, मन दुबके शरमाके।

फँसा डरे हे अपन जाल मा, कमल फूल तरिया के।।


पात पीस के पिये कभू ता, कभू पोखरा खाये।

कभू ढेंस गुण सुन चुन राँधे, कभू फूल लहराये।।

पाँव परे माता लक्ष्मी के, पग मा कमल चढ़ाके।

फँसा डरे हे अपन जाल मा, कमल फूल तरिया के।।


डर देखा नहवइया मन ला, तरिया ले खेदारे।

कहे पोगरी मोर फूल ए, भौंरा तितली हारे।।

सुरुज देख के सँग सँग जागे, सोये सँग संझाके।

फँसा डरे हे अपन जाल मा, कमल फूल तरिया के।।


जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

आम- रोला छंद

 आम- रोला छंद


फर गर्मी मा आय, लुभावै सब ला भारी।

छोट बड़े सब खाँय, बिसाके ओरी पारी।।

फर कहाय राष्ट्रीय, हमर भारत के एहा।

जाने उही सुवाद, खाय ये फर ला जेहा।।1


सुनके एखर नाम, चेहरा सबके खिलथे।

कई प्रकार के आम, सुने देखे बर मिलथे।।

कुछ आमा के नाम, गिनावत हँव लिख रोला।

कलमी चुहकी जोग, अचारी लौ भर झोला।।2


हिमसागर हापूस, बगीनापल्ली पैरी।

तोतापरी बदाम, लंगडा ललचि दसैरी।।

मलगोवा बनराज, मालदा अउ गुलबाड़ी।

जमरूखो जमदार, आम्रपाली आसाड़ी।।3


रत्नागिरी रुमानी, कालिया बघिकल्यानी।

अर्का अरुण पुनीत, आमड़ी अउ अरमानी।

निलेश्वरी निलपान, स्वर्ण रेखा श्रावनिया।

कंरजियो आण्डूस, चिम्पियो चौसा जमिया।।4


फजली फ्रंजोनील, चोग बटली बाजरिया।

अलफोंनस जर्दालु, पितर पिलिया पोपरिया।।

दूधमिया अमृतंग, रोम रूसा रसपूरी।।

केसर किरियाभोग, सफेदा सन सिंदूरी।।5


गौरजीत अनमोल, दूधपण्डो मक्का रम।

हरि गोपालाभोग, नारिएरी हिम नीलम।।

मलिका लक्ष्मणभोग, बम्बई बैगनीपल्ली।

नूरजहाँ जँहगीर, ग्रीन बम्बइया फल्ली।।6


सरदर पूसालाल, सुकुल बरमास बदंदी।

सब ला नइ लिख पाँव, जमत नइहे तुकबंदी।।

आम घलो अब हाथ, सहज नइ आवत हावै।

बने खास मन आम, आम ला खावत हावै।।7


आम कहाँ अब आम, खास बन महँगा होगे।

चटनी चिरा अथान, नवा जुग मा दुख भोगे।।

आम पना कोल्ड्रिंक, मुरब्बा लगथे बढ़िया।

आमा ला बन आम, खाँय सब छत्तीसगढिया।।8


आम होय या खास, हाँस खाये सब आमा।।

कई खास बन आम, करत दिख जाथे ड्रामा।

पद पाये बर आम, बने नेता अधिकारी।

स्वारथ जब सध जाय, आम के कहाँ पुछारी।।9


आम देय फर फूल, हवा लकड़ी अउ छँइहा।

गीत कोयली गाय, सुनत मन जाये बइहा।

कहे आम के आम, दाम गुठली के होथे।

गुठली ला झन गीन, आम खा तब मन रोथे।10


आम आदमी आम, सही चुँहका फेकागे।

बड़े बड़े जन खास, आम अन कहिके छागे।।

जब तक हें जन आम, चलत हे दुनिया दारी।

सब हो जाही खास, मरे के आही पारी।।11


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

बफर सिस्टम में

 बफर सिस्टम में


खवागे खट्टा मिट्ठा ठंडा अउ गरम, बफर सिस्टम में।

नुनछुर चुच्चुर चेम्मर चिबरी नरम, बफर सिस्टम में।


घर मा चाही सोफा डाइनिंग, चटाई पीढ़ा पिहड़ी।

खड़े खड़े खाय मा नइहे शरम, बफर सिस्टम में।।


घर मा भात साग दार खंगे बँचे, ता कोहराम मचे।

छप्पन भोग फेकाये डरम डरम, बफर सिस्टम में।


अघाय भुखाय छोड़, फुर्ती देखा अउ खुद हेर खा।

नइहे कुछु नियम अउ न धरम, बफर सिस्टम में।


बढ़ाये हवय छेनू, देखावा के चक्कर मा मेनू।

पइसा खरचा होवत हे चरम, बफर सिस्टम में।


सब घूम घूम के खात हे, चाँट चाँट के उंगली।

जुरे हवय दोस्त यार परम, बफर सिस्टम में।।


लालच मा गोलू खा डरिस, गोंह गोंह ले भारी।

नइ पँचिस ता टूटगे भरम, बफर सिस्टम में।।


जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

गीत-अमरइया मा जाबों(सार छन्द)

 गीत-अमरइया मा जाबों(सार छन्द)


चलो सँगी खेले बर खुडुवा,अमरइया मा जाबों।

दाई अँचरा कस जुड़ छइहाँ, ओढ़ ओढ़ इतराबों।


पवन धूकथे पंखा रहि रहि, सुरुज देव बिजराथे।

छमछम नाचय पाना डारा, गीत कोयली गाथे।

ढेला फेक गिराबों आमा, मिलजुल के सब खाबों।

चलो सँगी खेले बर खुडुवा,अमरइया मा जाबों।


गरमी घरी तको जुड़ रहिथे, अमरइया के छइहाँ।

जिहाँ पहुँच सब खेल खेलबों, जोर सबे झन बइहाँ।

आम तरी मा बाँध झूलना, झुलबों अउ झूलाबों।

चलो सँगी खेले बर खुडुवा,अमरइया मा जाबों।


बइहाँ जोड़े पेड़ खड़े हे, सहि जुड़ बादर पानी।

हवा दवा फल फूल लुटाथे, सबदिन बनके दानी।

ठिहा ठौर हे जीव जंतु के, देख देख हरसाबों।

चलो सँगी खेले बर खुडुवा,अमरइया मा जाबों।


गली खोर घर खेत खार सँग, साथी ताल तलैया।

गिल्ली डंडा बाँटी भँवरा, के हम सब खेलैया।।

चंदन जइसे धुर्रा माटी, माथा तिलक लगाबों।

चलो सँगी खेले बर खुडुवा,अमरइया मा जाबों।


जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

गीत-नकली(सार छंद)

 गीत-नकली(सार छंद)


नवा जमाना नकली कोती, नवगे हे सँगवारी।

हँसी खुशी आँसू हे नकली, नकली रिस्तादारी।


नकली चाँद सुरुज बनगे हे, नकली घर फर बिरवा।

घुरगे मनखे के जिनगी मा,नकली जिनिस ह निरवा।

मनखे मनके नकली सँग मा, पटत हवै बड़ तारी।

नवा जमाना नकली कोती, नवगे हे सँगवारी।।


असली के असलियत उघारे, परखे सिर पग पाँखी।

नकली चीज बिसाये हँसके, बउरे मूंदें आँखी।।

सस्ती नकली चीज बिकत हे, असली महँगा भारी।

नवा जमाना नकली कोती, नवगे हे सँगवारी।।


बुढ़वा के हे बाल घमाघम, दाँत हवै खिसखिस ले।

देखे भर मा बढ़िया लागे, काम बुता बर फिसले।।

कोन कहे नकली ला नकली, सबझन हवै पुजारी।

नवा जमाना नकली कोती, नवगे हे सँगवारी।।


नकली ओढ़त नकली पहिरत, मनखे नकली होगे।

अन्तस् भीतर के सत सुम्मत, दया मया तक सोगे।

बैर बदी लत होवय नकली, होवय असली यारी।

नवा जमाना नकली कोती, नवगे हे सँगवारी।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

गीत-जोरा खेती किसानी के

 गीत-जोरा खेती किसानी के


जोरा करले ग, खेती किसानी के।

दिन आवत हे, बादर पानी के।।।


झँउहा बिसाले नवा, नवा टुकनी चरिहा।

पजवा ले नाँगर के, लोहा ल नँघारिया।

हला डोला देख, जुड़ा डाँड़ी अउ नाँगर।

अब तो खपायेल लगही, दिन रात जाँगर।

फुरसत हो ग,छा खपरा छानी के।

दिन आवत हे, बादर पानी के।।।


घण्टी कानी नाथ नवा,बैला ल पहिराले।

नाहना जोंता काँसरा, केंनवरी बनाले।

जतन के रख रापा टँगिया, हँसिया कुदारी।

साग भाजी बर घलो, चतवार ले झट बारी।

खातू माटी ल,चाल धरती रानी के।

दिन आवत हे, बादर पानी के।।।


लमती टेंड़गी टपरी अउ, बाहरा हे बोना।

मासुरी महामाया कल्चर, सफरी अउ सरोना।

हरहुना अउ माई, सबो धान अलगाले।

लकड़ी छेना पैरा भूंसा, कोठा म भितराले।

भँदई चामटी म, तेल चुपर घानी के।

दिन आवत हे, बादर पानी के।।।


मोरा कमरा खुमरी अउ, छत्ता तिरियाले।

तुतारी बनाले, चामटी इरता लगाले।

बाँध बने मुही पार, गाँसा पखार।

कांद काँटा छोल छाल, डोली चतवार।

गा कर्मा ददरिया, हमर बानी के।

दिन आवत हे, बादर पानी के।।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

चमचागिरी- लावणी छंद

 चमचागिरी- लावणी छंद


एखर ओखर खास बने बर, जीभ लमा के करबे का।

सरग सिंहासन हावै रीता, बता आज तैं मरबे का।।


स्वारथ अउ देखावा खातिर, काबर चम्मच बनगे हस।

मनखे हो के स्वाभिमान खो, रब्बड़ जइसे तनगे हस।।

चापलुसी के चरम लांघ के, आन बान सत चरबे का।

एखर ओखर खास बने बर, जीभ लमा के करबे का।।


पद पइसा धन बल वाले के, तेवर तोरे सेती हे।

नेकी धर्मी सतवादी के, परिया परगे खेती हे।।

आदर देना अलग बात ए, चमचा बनगे सरबे का।

एखर ओखर खास बने बर, जीभ लमा के करबे का।


असल गुणी ज्ञानी मनखे मन, चम्मच एको नइ पोसे।

चमचा गिरी करइया मन ला, सदा जमाना हा कोसे।।

कखरो आघू पाछू होके, भव सागर ले तरबे का।

एखर ओखर खास बने बर, जीभ लमा के करबे का।


जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

आषाढ़ ले आस हे"

 "आषाढ़ ले आस हे"


            लकलक लकलक जरत भुइयाँ मानसून के हबरे ले वइसने जुड़ हो जथे,जइसे कोनो भभकत अँगेठा या आगी म गघरा भर पानी उल्दा जथे।रिमझिम रिमझिम पानी जब आषाढ़ धरके आथे,तब सबले जादा खुशी किसान मन ल होथे।अउ काबर नइ होही?इही आषाढ़ म किसान मन अपन महिनत ले आशा रूपी धान के बिजहा ल धरती दाई के कोरा म छितथे।आसाढ़ के आय ले धरती महतारी हरियर सवांगा म सजगे मुचुर मुचुर मुस्कायेल लग जथे।डारा पाना पुरवाही म हाथ हला हला के नाचथे।बादर के गरजई घुमरई अउ कड़कड़ कड़कड़ बिजुरी किसान मन बर एक ताल के काम करथे,जेखर सुर  म किसान मन अपन जाँगर अउ नाँगर ल साज के धरती दाई के कोरा म,करमा ददरिया के तान छेड़त,ओहो तोतो के अउ खन खन बाजत बइला के घुँघरू संग ,मगन होके महिनत करत नाचथे।फेर आने मनखे मन बर आसाढ़ या मानसून सिर्फ गर्मी ले राहत आय।वो मन गर्मी ले हदास खा जथे,फेर किसान उही जरत,भभकत गरमी म,मानसून के रद्दा जोहत किसानी के जम्मो जोरा ल करथे।मेड़ पार अउ मुही ल बाँधना,खँचका-डिपरा ल बरोबर चालना,काँटा खूँटी ल बिनना,काँद दूबी ल खनना ये सबो बुता ल तो उही भभकत गर्मी म साजथे।अउ घर म घलो उही गर्मी म आषाढ़ के आये के पहली पैरा धरथे,परदा भाँड़ी म पलांदी देथे,बखरी बारी ल रंग रंग के साग भाजी बोय बर चतवारथे,नार बियार ल चढ़ाये बर ढेंखरा लानथे,चौमास बर लकड़ी छेना अउ कतको जरूरी चीज ल भितराथे,छानी परवा ल घलो उही गर्मी म छाथे।अइसन घर - बन के जम्मो बूता ल साध के किसान मन आशा के जोती बारे मॉनसून अउ आषाढ़ के अगोरा करथे।अउ जब पानी के पहिली बूँद मूड़ म परथे तब मार खुशी म नाचेल धर लेथे।ताहन का पूछना,भिनसरहा उठ के बइला ल खवा पिया के नाँगर धरके खेत कोती पाँव बढ़ाथे।बइला ल जब किसान भिनसरहा कोटना म पानी पियाथे तब ओखर गला के घण्टी अउ किसान के मुख ले निकले सुघ्घर सिसरी(सीटी) मनभावन लगथे।एखर आनंद उही ले सकथे जेन कभू गाँव म सुने होही या देखे होही।


           आसाढ़ म किसान सँग ओखर पूरा परिवार नाचत झूमत खेती किसानी म लग जथे।बाँवत के बेरा के वर्णन कोनो बढ़िया कैमरा ले फोटू खींचे कस लगथे।चारो मुड़ा खेत; खेत म सइमो-सइमो करत कमइया,टुकनी बोरी म माढ़े धान,हरिया भर नाँगर नाँस म बनत सुघ्घर कूँड़,बइला के गला के खनकत घण्टी,किसान के मुख ले बरसत करमा ददरिया अउ ओहो तोतो के आवाज,निंदईया महतारी मनके हाथ के खनकत चूड़ी,खार म रटत पपीहा,पड़की अउ तीतुर के सुघ्घर बोल मन ल मोह लेथे। नान्हे नान्हे लइका मन हाथ म कुदारी धरे मनमाड़े कूदत नाचत टोकन कोड़थे।ये सब दृश्य मन म अपार खुशी भर देथे।एखर आनंद भी उही मनखे उठा सकथे जेन बाँवत के बेरा म कभू सपड़े होही।लिख के कवि या लेखक घलो वो मनोरम दृश्य अउ आनंद ल नइ बता सकय।ये परम् आनंद के अनुभूति सिर्फ उही मेर मिल सकथे।कतको बूता करे कखरो तन मन म थकासी नइ दिखे।बिहनिया ले सँझा काम बूता म लगे किसान पाछू बरस के जम्मो दुख पीरा ल भुलाके आसाढ़ म नवा आस जगाके,जाँगर टोर महिनत करथे।


               आषाढ़ के पहली बारिस जब भुइयाँ  ल चुमथे तब माटी महतारी सौंधी महक म महकेल लग जथे।वो महक ल लिख के बया करना असंभव हे।उही पहली बारिस के संग भुइयाँ म पड़े जम्मो लमेरा,बन,बिजहा धीरे धीरे अपन आँखी उघारथे।जेमा रंग रंग के काँदी,चरोटा,लटकना,धनधनी, उरदानी,छिंद,परसा,बोइर,आम,जाम,अमली,बम्हरी,

कउहा,करंज,के फर पिकी फोड़के जागे बर धर लेथे। आषाढ़ मास म करिया करिया राय जाम पेड़ उप्पर कारी घटा कस दिखथे।लइका मन ओला टोरे बर टोली बनाके ए रुख ले वो चिल्लावत फेरा लगाथे।हाट बाजार म घलो ये फर अब्बड़ बिकथे।गाँव के गौठान म गरुवा गाय आषाढ़ के संग सकलायेल लगथे,काबर की डोली म धान पान बोवाथे।हरियर हरियर चारो मुड़ा चारा देखके गाय गरुवा के मन म घलो अपार खुशी होथे।गर्मी म लहकत लहकत दिन बिताये अउ सुख्खा काँद पात खाय के बाद आषाढ़ म हरियर चारा अउ पीये बर, पानी सबो जघा गाय गरुवा म मिलेल लगथे।


            धरती दाई आषाढ़ म अपन अन्तस् के पियास बुझावत ससन भर पानी पीथे। रझरझ रझरझ पानी बरसे ले तरिया,बाँधा, कुँवा बउली म पानी भरेल लग जथे।नरवा ,नँदिया,झरना,म धार बढ़ेल लगथे।चारो मुड़ा खोचका डबरा म पानी भर जथे।गली खोर म चिखला घलो मात जथे।कोनो साहब बाबू सूट बूट पहिरे चिखला पानी के डर ले पँवठा म पाँव मड़ावत धीर लगाके चलथे त उही म किसान मनखे बिन चप्पल के चभरंग चभरंग गीत गावत खुशी म बढ़थे। आसाढ़ सावन भादो ये चार मास पानी,बादर गरजई, घुमरई मा बीतथे, ये मास ला चौमासा कहे जाथे। जेखर जोरा अउ ये मास मा खेती बाड़ी कमइयां मन बड़ महिनत करथे।

लइका मन मनमाड़े खुशी म चिल्लावत चिल्लावत आषाढ़ के बरसा के मजा लेवत घड़ी घड़ी भींगथे।अउ रंग रंग के खेल खेलथे,गोल गोल घानी मूंदी घूमथे।बरसा के धार म पात पतउवा ल बोहा के थपड़ी पीटत अबड़ मजा करथे।फाँफा फुरफुन्दी के पाछू पाछू भागथे।अउ सबले खास बात जम्मो लइका मन खेलत खेलत "घानी मूंदी घोर दे,पानी दमोर दे कहिके"चिल्लावत फिरथे।इही मास म स्कूल घलो खुलथे। लइका मन ममादाई के घर गरमी छुट्टी बिताये के बाद कापी बस्ता धरके फेर स्कूल म पढ़े लिखे बर जाथे।


      घुरवा,डबरा तरिया,नरवा,कुँवा,बउली के पानी म मछरी मन मेछरायेल लगथे।तरिया के घठोंदा बाढ़े बर धर लेथे।कहे के मतलब ये की तरिया म पानी भरे ले घाट घठोंदा उपरात जाथे।मेचका अउ झींगुर रट लगायेल लग जथे।बरसा के पानी पाके तलमलावत साँप, बिच्छी ,केकरा अउ कतको कीरा मकोड़ा अपन अपन बीला ले बाहिर निकलथे।पिरपिटी साँप जोथ्था जोथ्था इती उती देखे बर मिल जथे।ये मउसम म ये सब जीव मनके अब्बड़ डर रहिथे।कभू कभू घर कुरिया म घलो घूँस जथे।रंग रंग के कीरा ये मउसम म जघा जघा दिखथे।बउग बत्तर रतिहा अँजोर ल देख अब्बड़ उड़ियाथे।संगे संग रंग रंग के फाँफ़ा फुरफुन्दी घलो उड़थे।झिमिर झिमिर बरसत पानी म कौवा काँव काँव करत पाँख फड़फड़ावत छानी म बइठे रहिथे।त गौरइय्या ह दल के दल अँगना म बरसा म भींगत भींगत चिंव चिंव करत दाना चुगथे।


        आषाढ़ ले सबला आस रहिथे।चाहे छोटे से छोटे जीव रहे या कोनो बड़का हाथी।आषाढ़ के बरखा सबला नवा जीवन देथे।आषाढ़ म किसान मन हम सबके पेट के थेभा धान के खेती करथे, उँखर महिनत ले ही सबके पेट बर दाना मिलथे।जइसे पेट भरे के बाद ही जीव मन आने काम ल सिधोथे वइसने खेती म ही दुनिया के आने सबो बूता टिके हवे।आषाढ़ आय के बाद किसान म अपन देवी देवता ल  मनाये  बर कतको अकन तिहार घलो मानथे।जेमा जुड़वास पहली तिहार होथे,जेन आषाढ़ मास के अँधियारी पाँख म अठमी के मनाये जाथे।ये दिन किसान मन अपन गाँव के शीतला दाई म तेल हरदी जघा के खेती किसानी अउ गाँव के समृद्धि बर बारम्बार पूजा अर्चना अउ वंदना करथे।ओखर बाद बारो महीना तीज तिहार के क्रम चलत रहिथे।हमर भारत भइयाँ म तिहार बार खेती के हिसाब ले चलथे।सावन महीना के हरेली ल पहली बड़का तिहार केहे जाथे।


आषाढ़ के बोहावत पानी  ल बचाये बर घलो हम सबला उदिम करना चाही ताकि भूजल  स्तर  म बढ़ोतरी होय,तरिया नदिया,बाँधिया म पानी भरे रहय। अउ बछर भर पानी के तंगई झन होय।आषाढ़ के बने बरसा बने किसानी के निसानी आय,अउ बने किसानी सुखमय जिनगानी के निसानी आय।


जीतेन्द्र वर्मा "खैरझिटिया"

बाल्को (कोरबा)

कुदरत-सार छंद

 कुदरत-सरसी छंद


कुदरत के आघू मा कखरो, का गल पाही दाल।

बने बने मा जिनगी आये, कहर ढाय ता काल।।


सात समुंदर लहरा मारय, अमरै गगन पहाड़।

बरसै गरजै बादर रझरझ, बिजुरी मार दहाड़।।

पवन बवंडर बन ढाये ता, जगत उड़े बन पाल।

कुदरत के आघू मा कखरो, का गल पाही दाल।।


रेती पथरा माटी गोंटी, धुर्रा धूका जाड़।

लावा लद्दी बरफ बिमारी, जिनगी देय बिगाड़।।

सुरुज नरायण के बिफरे ले, बचही काखर खाल।

कुदरत के आघू मा कखरो, का गल पाही दाल।।


धरती डोलय मचय तबाही, काँपय जिवरा देख।

सुक्खा गरमी बाढ़ बिगाड़ै, लिखे लिखाये लेख।।

कुदरत के कानून एक हे, काय धनी कंगाल।

कुदरत के आघू मा कखरो, का गल पाही दाल।।


हुदरत हे कुदरत ला मनखे, होय गरब मा चूर।

धन बल गुण विज्ञान हे कहिके, कूदयँ बन लंगूर।।

जतन करत नित जीना पड़ही, कुदरत के बन लाल।

कुदरत के आघू मा कखरो, का गल पाही दाल।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)


बिफर जाय पानी पवन, ता काखर अवकात।

धनी बली ज्ञानी गुणी, सबे उड़ँय बन पात।।

खैरझिटिया


बिफरजाँय तूफान प्रभावी झन होय

गीत- मानसून

 गीत- मानसून


मान अउ सुन बात मानसून।

रझारझ पानी गिरा, बुलकत हे जून---


तोरेच थेभा मोर, खेती अउ बाड़ी।

तोरेच थेभा मोर, जिनगी के गाड़ी।

घाम बड़ टँड़ेड़त हे, अँउटत हे खून----


तैं आरो देबे ता, मैं हरिया धरहूँ।

जाँगर खपाहूँ, धरती पइयाँ परहूँ।

सोना उपजाहूँ मैं, खा बासी नून---


माटी महतारी के, सेवा धरम मोर।

तोरे संग बँधे हे, बबा करम मोर।

मोर देखे सपना ला,झन तैंहा चून---


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

गजल *212 1212 1212 1212*

 गजल


*212 1212 1212 1212*


पेट बड़ खनाय हे सही मा अउ अघाय के।

अन्न पानी नइ तको हे भाग मा भुखाय के।1


जौन करजा लेत बेरा पाँव ला परत रिहिस।

तौन नाम लेत नइहे करजा ला चुकाय के।2


लत मनुष के गे बिगड़ नजर घुमाले सब डहर।

काम धाम हे करत पिरीत सत भुलाय के।3


छोट अउ बड़े खड़े लिहाज छोड़ के लड़े।

बाप ला घुरत हे बेटा आँख तक उठाय के।4


रेल चलथे पाट मा ता गाड़ी घोड़ा बाट मा।

आदमी उदिम करत हे रात दिन उड़ाय के।5


राग रंग साधना ये साज बाज साधना।

साधना लगन हरे जिनिस नही चुराय के।6


तोप ढाँक लाख चाहे दिख जथे बुराई हा।

 नइ लगे गियान गुण ला काखरो गनाय के।7


जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

बुझो तो जाने-दोहा

 बुझो तो जाने-दोहा


करिया रँग के फूल हा, सिर के ऊपर छाय।

गरमी पानी  मा खिले, बाकि समय मिटकाय।1


आघू पाछू बाप माँ, लइका मन हे बीच।

लेजय अपने संग मा, दुरिहा दुरिहा खीच।2


पर के साँसा मा चलय, तन हे लंबा गोल।

छेद गला अउ पेट मा, बोले गुरतुर बोल।3


जुड़वा भाई दास बन, रहे सबे दिन संग।

एक बिना बिरथा दुसर, एक दुनो के रंग।4


खटे सबे एकेक झन, का दिन अउ का रात।

 दुनिया सँग इंखर चले, होवय भाई सात।5


पढ़े लिखे के काम बर, रखय कई झन संग।

नोहे कागज अउ कलम, नोहे कोनो अंग।6


जतिक देर पीये लहू, ततिक देर लै साँस।

ना रक्सा ना देवता, ना हाड़ा ना माँस।।7


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

मादक द्रव्य निषेध दिवस विशेष मधुशाला छंद

 मादक द्रव्य निषेध दिवस विशेष


मधुशाला छंद


दारुभट्ठी


गाँव गली पथ शहर नगर मा, मिल जाथे दारू भट्ठी।

कभू बड़े छोटे नइ लागे, सब आथें दारू भट्ठी।

सब ला एक समान समझ के, कहै जेब कर लौ खाली,

अपन तिजोरी मा पइसा नित, खनकाथे दारू भट्ठी।।1


भीड़ भाड़ रहिथे मनखे के, चहल पहल रहिथे भारी।

रदखद दिखथे चारो कोती, करे नही कोनो चारी।

कतको झन छुप छुपके लेवैं, कतको झन खुल्लम खुल्ला,

झगरा माते दिखे इही कर, दिखे इही कर बड़ यारी।।2


कोनो कोनो गम कहि ढोंके, कोनो पीये मस्ती मा।

साहब बाबू कका बबा का, सब सवार ये कस्ती मा।

लड़भड़ाय पीये पाये ते, खुदे मूड़ माड़ी फोड़े,

कतको पड़े अचेत इही कर, कतको भूँके बस्ती मा।।3


बिलायती कोनो पीये ता, कोनो देशी अउ ठर्रा।

रोक पियइया ला नइ पावै, गरमी पानी घन गर्रा।

अद्धी पाव जुगाड़ करे बर, कतको पाँव परत दिखथे,

नसा पान के कतको आदी, पीथें खीसा नित झर्रा।।4


मालामाल आज अउ होगे, जेन रिहिस काली कँगला।

चिंता छोड़ पियइया पीये, बेंच भाँज घर बन बँगला।

रोज पियइया बाढ़त हावय, हाँसत हे दारू भट्ठी।

खाय हवै किरिया कतको मन, नइ छोड़े दारू सँग ला।।5


पूल समुंदर में पी बाँधे, टार सके नइ जे ढेला।

चोर पुलिस सबझन के डेरा, भट्ठी मेर भरे मेला।

दारू छोड़व कहे सुबे ते, संझा दिखथे भट्ठी मा,

रोजगार तक देवै भट्ठी, हें दुकान पसरा ठेला।।6


छट्ठी बरही सब मा दारू, नइ सुहाय मुनगा मखना।

पी के मोम लगे कतको मन, ता कतको लागय पखना।

तालमेल तक दिखे गजब के, दिखे गजब दोस्ती यारी,

एक लेय बिन बोले दारू, एक जुगाड़े झट चखना।।7


कतको सज धज बड़े बने हे, खुद बर खुद हार बनाके।

सब दिन हीने हें गरीब ला, ऊँच नीच के पार बनाके।

एक पियइया होय बेवड़ा, फेर एक के फेंसन हे,

भला बुरा भट्ठी ला बोले, बड़का मन बार बनाके।।8


हरे आज के थोरे दारू, सुन शराब के गाना ला।

कतको बाढ़े किम्मत चाहे, कोन भुले मयखाना ला।

अनदेखा करके सब पीथें, नसा नास के हाना ला,

गोद लिये सरकार फिरत हे, भट्ठी भरे खजाना ला।।9


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)


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कुंडलियाँ छंद -दरुहा बरसात मा


ओधा मा बइठे हवै, अउ पीयत हे मंद।

छलत हवै तन ला अपन, बनके खुद जयचंद।

बनके खुद जयचंद, गुलामी करै काल के।

झगरा झंझट झूठ, चलै लत लोभ पाल के।

संगी साथी संग, पियै बर खोजै गोधा।

पियै हाँस के मंद, बइठ के पथना ओधा।


छपक छपक के रेंगथे, उठउठ अउ गिर जाय।

दरुहा के बरसा घरी, तन मन दुनो सनाय।

तन मन दुनो सनाय, हमाये काखर मुँह मा।

रहिरहि के बस्साय, गिरे डबरा अउ गुह मा।

बुता काम बतलाय, मेघ हा टपक टपक के।

चले हलाके घेंच, मंदहा छपक छपक के।


रोवै लइका लोग हा, पड़े हवै घर खेत।

छोड़ छाँड़ सब काम ला, दरुहा फिरे अचेत।

दरुहा फिरे अचेत, सुनय नइ कखरो बोली।

करै सबे ला तंग, गोठ ले छूटय गोली।

धन दौलत उरकाय, जहर घर बन मा बोवै।

लगगे हे चौमास, लोग लइका सब रोवै।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)


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सार छंद-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

 सार छंद-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"


जइसे गिरे असाढ़ म पानी, भुइयाँ भभकी मारे।

निकलै कई किसम के कीरा, रेंगय मुँह ला फारे।


रंग रंग के साँप निकलथे, रंग रंग के कीरा।

सावचेत नइ रहे म होथे, तन मन ला बड़ पीरा।

भरका बिला म पानी भरथे, गिल्ला रहिथे मिट्टी।

सलमल सलमल भागत दिखथे, इती उती पिरपिट्टी।

कीरा काँटा साँप बिच्छु ले, कतको जिनगी हारे।

जइसे गिरे असाढ़ म पानी, भुइयाँ भभकी मारे।


रसल वाइपर अजगर डोमी, माम्बा अउ मुड़हेरी।

सुतत उठत बस झूलत रहिथे, नयन म घेरी बेरी।

फिरे करैत ढोड़िहा धमना, जिया देख के काँपे।

बारिस घरी काल बन घूमय, कई किसम के साँपे।

ठौर ठिहा बन खेत खार में, रइथे डेरा डारे।

जइसे गिरे असाढ़ म पानी, भुइयाँ भभकी मारे।


फाँफा फुरफुन्दी चमगादड़, झिंगुरा मुसवा चाँटा।

कान खजूरा बत्तर अँधरी, बिच्छी कीरा काँटा।

डाढ़ा टाँग केकरा रेंगय, मेंढक टरटर बोले।

किलबिल किलबिल कीरा करथे, देखत जिवरा डोले।

झन सोवव बिन खाट धरा में, रेंगव नयन उघारे।

जइसे गिरे असाढ़ म पानी, भुइयाँ भभकी मारे।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)


सावधान होके लेवव बरसात के मजा

सवैया-पावस

 सवैया-पावस 


पावस पावन आ बरसावन लागत हे रस धार सखा।

तरिया परिया हरिया भरगे जल लांघत हावय पार सखा।

गरजे बदरा चमके बिजुरी जस मातय हावय रार सखा।

झिंगुरा सँग दादुर गीत सुनावय लागय रोज तिहार सखा।

गाँव मा

 गाँव मा


खुलगे विकास के, पोल गाँव मा।

दिन रात रथे बिजली, गोल गाँव मा।।


सो पिस के जमाना मा, सोवत हे सुख चैन।

जागत नइहे गुठलू अउ, चिचोल गाँव मा।।


उपरे उपर दिखथे दया मया, उबटन कस।

फेर भीतरे भीतर हे, बड़ झोल गाँव मा।।


हीरक के नइ देखे, कुर्सी ला पाके नेता।

बस चुनाव दरी पीटथे, आके ढोल गाँव मा।।


फइलत हे जँउहर, देखमरी के बीमारी।

धीर लगाके नँदात हे, गुरतुर बोल गाँव मा।।


डहर बाट मा बोहात हे, नहानी के पानी।

पर सुख दुख के नइहे, कोई मोल गाँव मा।।


विकास के बइला बस, कागज मा मेछरात हे।

टर्रावत हे मेचका अउ, बिंधोल गाँव मा।।


भागत हे सुख सुविधा बर, शहर गँवइहा।

व्यपारी जमीन नपात हे, होलसोल गाँव मा।।


ददा दाई घिरलत ले कमात हे, खेत खार मा।

बाढ़े टूरी टूरा मन मारत हें, रोल गाँव मा।।


बोहाय पड़े हे घर के, पिछोत बखरी बारी।

ठाढ़े हे अँगना दुवारी, मुँह खोल गाँव मा।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

बरसात (गीतिका छ्न्द)

 बरसात (गीतिका छ्न्द)


घन घटा घनघोर धरके, बूँद बड़ बरसात हे।

नाच के गाके मँयूरा, नीर ला परघात हे।

खेत पानी पी अघागे, काम के हे शुभ लगन।

दिन किसानी के हबरगे, कहि कमैया हें मगन।।


ढोंड़िहा धमना हा भागे, ए मुड़ा ले ओ मुड़ा।

साँप बिच्छू बड़ दिखत हे, डर हवैं चारो मुड़ा।

बड़ चमकथे बड़ गरजथे, देख ले आगास ला।

धर तभो नाँगर किसनहा, खेत बोंथे आस ला।


घूमथे बड़ गोल लइका, नाचथें बौछार मा।

हाथ मा चिखला उठाके, पार बाँधे धार मा।

जब गिरे पानी रदारद, नइ सुनें तब बात ला।

नाच गाके दिन बिताथें, देख के बरसात ला।


लोग लइका जब सनावैं, धोयँ तब ऍड़ी गजब।

नाँदिया बइला चलावैं, चढ़ मचें गेड़ी गजब।

छड़ गड़उला खेल खेलैं, छोड़ गिल्ली भाँवरा।

लीम आमा बर लगावैं, अउ लगावैं आँवरा।।


ताल डबरी भीतरी ले, बोलथे टर मेचका।

ढेंखरा उप्पर मा चढ़के, डोलथे बड़ टेटका।

खोंधरा झाला उझरगे, का करे अब मेकरा।

टाँग के डाढ़ा चलत हें, चाब देथें केकरा।।


पार मा मछरी चढ़े तब, खाय बिनबिन कोकड़ा।

रात दिन खेलैं गरी मिल, छोकरा अउ डोकरा।

जब करे झक्कर झड़ी, सब खाय होरा भूँज के।

पाँख खग बड़ फड़फड़ाये, मन लुभाये गूँज के।।


खेत मा डँटगे कमैया, छोड़ के घर खोर ला।

लोर गेहे बउग बत्तर, देख के अंजोर ला।

फुरफुँदी फाँफा उड़े बड़, अउ उड़ें चमगेदरी।

सब कहैं कर जोर के घन, झन सताबे ए दरी।


होय परसानी गजब जब, रझरझा पानी गिरे।

काखरो घर ओदरे ता, काखरो छानी गिरे।

सज धरा सब ला लुभावै, रूप हरिहर रंग मा।

गीत गावै नित कमैया, काम बूता संग मा।


ओढ़ना कपड़ा महकथे, नइ सुखय बरसात मा।

झूमथें भिनभिन अबड़, माछी मछड़ दिन रात मा।

मतलहा पानी रथे, बोरिंग कुवाँ नद ताल के।

जर घरो घर मा हबरथे, ये समै हर साल के।


चूंहथे छानी अबड़, माते रथे घर सीड़ मा।

जोड़ के मूड़ी पुछी कीरा, चलैं सब भीड़ मा।

देख के कीरा कई, बड़ घिनघिनासी लागथे।

नींद घुघवा के परे नइ, रात भर नित जागथे।


नीर मोती के असन, घन रोज बरसाते हवे।

मन हरेली तीज पोरा, मा मगन माते हवे।

धान कोदो जोंधरी, कपसा तिली हे खेत मा।

लहलहावै पा पवन, छप जाय फोटू चेत मा।


बूँद तक बरसै नही, कतको बछर आसाढ़ मा।

ता कभू घर खेत पुलिया, तक बहे बड़ बाढ़ मा।

बाढ़ अउ सूखा पड़े ता, झट मरे मन आस हा।

चाल के पानी गिरे तब, भाय मन चौमास हा।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

आषाढ़ मा उगे लमेरा-रोला छ्न्द

 आषाढ़ मा उगे लमेरा-रोला छ्न्द


आये जब आषाढ़, रझारझ बरसे पानी।

झाँके पीकी फोड़, लमेरा आनी बानी।

किसम किसम के काँद, नार बन बिरवा जागे।

नजर जिंहाँ तक जाय, धरा बस धानी लागे।


बम्हरी बगई बेल, बेंमची अउ बोदेला।

बच बगनखा बकूल, बोदिला बदउर बेला।

बन तुलसी बोहार, जिमीकाँदा अउ जीरा।

खदर खैर खरबूज, खेड़हा कुमढ़ा खीरा।


काँसी कुसुम कनेर, कुकुरमुत्ता करमत्ता।

कँदई अउ केवाँछ, भेंगरा फुलही पत्ता।

कुँदरू कुलथी काँस, करेला काँदा कूसा।

कर्रा कैथ करंज, करौंदा करिया रूसा।


सन चिरचिरा चिचोल, चरोटा अउ चुनचुनिया।

लटकन लीम लवांग, लजोनी लिमऊ लुनिया।

गूमी गुरतुर लीम, गोड़िला गाँजा मुनगा।

गुखरू गुठलू जाम, गोमती गोंदा झुनगा।


दवना दुग्धी दूब, मेमरी अउ मोकैया।

धतुरा धन बोहार, बजंत्री बाँस चिरैया।

साँवा शिव बम्भूर, सेवती सोंप सिंघाड़ा।

आदा अंडी आम , आँवला अउ गोंटारा।


माछी मुड़ी मजीठ, मुँगेसा मूँग मछरिया।

कउहा कँउवा काँद, केकती अउ केसरिया।

बन रमकलिया छींद, कोलिहापुरी कलिंदर।

रक्सी रंगनबेल, खेकसी पोनी पसहर।


भसकटिया दसमूर, पदीना पोई पठवन।

गुलखैरा गुड़मार, सेनहा साजा दसवन।

गुड़सुखडी गिन्दोल, गोकर्णी गँउहा गुड़हर।

फरहद फरसा फूट, फोटका परसा फुड़हर।


देवधूप खम्हार, मोखला अरमपपाई।

उरदानी फन्नास, सारवा अउ कोचाई।

गुढ़रू चिनिया बेर, सन्दरेली सिलियारी।

उरईबूटा भाँट, खोटनी रखिया ज्वाँरी।

 

हँफली हरदी चेंच, डँवर धनधनी अमारी।

बाँदा बर बरियार, मेंहदी बाँकसियारी।

चिरपोटी चनसूर, कोदिला कोपट कसही।

रागी रामदतोन, कोचिला केनी कटही।


बिच्छीसुल शहतूत, कोरई अउ कोलीयारी।

लिली सुदर्शन फर्न, सबे ला भावै भारी।

लिख पावौं सब नाम,मोर बस में नइ भैया।

बरसा घड़ी अघाय, धरा सँग ताल तलैया।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

गीत- बतर के बेरा(रोला छंद)

 गीत- बतर के बेरा(रोला छंद)


आजा राजा मोर, बतर के बेरा आगे


गरजे बड़ आगास, जिया हा थरथर काँपे।

आँखी अपन उघार, बिजुरिया भुइयाँ नाँपे।

छाय घटा घनघोर, रात कस दिन तक लागे।

आजा राजा मोर, बतर के बेरा आगे।।


घाम घरी भर काम, करे के किरिया खाके।

शहर नगर मा पाँव, रखे हस जोड़ी जाके।

बितगे बैरी घाम, सुरुज मा नरमी छागे।

आजा राजा मोर, बतर के बेरा आगे।।


ले दे के दिन काट, बाट नैना जोहत हे।

गरमी भर बरसात, सही सरलग बोहत हे।

बरस बरस दिन रात, चार महिना हे जागे।

आजा राजा मोर, बतर के बेरा आगे।।


बरसिस नैनन रोज, मातगिस तन मा गैरी।

छुटगिस भूख पियास, रात दिन बनगिस बैरी।

उसलत नइहे गोड़, हाथ हलना बिसरागे।

आजा राजा मोर, बतर के बेरा आगे।।


दे देंतेंव उधार, नयन जल मैं बादर ला।

बरसा होतिस रोज, छोड़ते नइ तैं घर ला।

होगिस गर्मी काल, मोर सुख चैन गँवागे।

आजा राजा मोर, बतर के बेरा आगे।।


खुश हो चातक मोर, गीत गावत हें मनभर।

बइला नांगर जोर, ददरिया छेड़य हलधर।

अमुवा निमुवा डार, झूलना डोर बँधागे।

आजा राजा मोर, बतर के बेरा आगे।।


दँउड़ दँउड़ गरु गाय, चरत हे कांदी हरियर।

नदिया नरवा ताल, पियत हे पानी फरिहर।

काय जवान सियान, लोग लइका बइहागे।

आजा राजा मोर, बतर के बेरा आगे।।


कतको कीट पतंग, चलै दल मा मिल-जुल के।

चिरई चोंच उलाय, चरै चारा झुल-झुल के।

खुद के गत ला सोच, बदन तज मन हा भागे।

आजा राजा मोर, बतर के बेरा आगे।।


मछरी झींगुर साँप, मेचका मारे ताना।

मैं रोवौं दिन रात, बाकि सब गावैं गाना।

माटी तक बोहाय, मोर जिनगी मस्कागे।

आजा राजा मोर, बतर के बेरा आगे।।


होगे हँव हलकान, बितावत गरमी बेरा।

पा बरसा के शोर, शोरियाले तैं डेरा।

गे जे रिहिस बिदेश, कमैया सब जुरियागे।

आजा राजा मोर, बतर के बेरा आगे।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)


https://youtu.be/v3ROmGpVYpI

नेता जी के योग दिवस

 नेता जी के योग दिवस


                     योग दिवस के अवसर मा भारी चमचमावत बड़का मंच, जेमा बइठे हे बड़का नेता संग कतको वीआईपी मनखे अउ नीचे मा चेला चंगुरा संग असल योग करइया। जे मन नेता मन के बुलावा मा अपन काम बूता ला छोड़ के आय हे। योग के पहली नेता के भाषणबाजी अउ ताली के गड़गड़ाहट ले, तीर तखार गूँजत हे। योग के फायदा ले चालू होवत बात वोट के फायदा तक कब पहुँचिस पता नइ लगिस। भाषण बाजी के बाद बेरा आइस योग करे के। योग करवाये बर कतको नामी गिनामी योगा टीचर मंच मा आसन जमाये बइठे रिहिन। नेता घलो तीर मा बइठगे। सीखइया टीचर किहिस जइसे जइसे हमन करबों वइसे वइसे सब करत जाहू। हाथ गोड़ ला झटकारे के बाद घेंच ला चारों कोती घुवावत बेरा नेता के घेंच टेंड़गागे। घेंच एके डाहर अटके रहिगे, मानो योग बीच जनता के नियत ल टकटकी लगाए देखत हे, कि वोट ये कार्यक्रम ले बढ़ही कि नही? मंच मा देखो देखो होगे, नेता के घेंच सीधा होबे नइ करिस, आनन फानन में वोला हॉस्पिटल लेगिस, तब कहीं स्थिति काबू मा आइस। 

            नेता के तबियत बिगड़े के बाद जनता ला कोन पूछे। जम्मो वीआईपी संग चेला चंगुरा निकल गे पाछू पाछू। एक दिन देखावा करत हाथ, गोड़ मुड़ी, कान ला डोलाये मा अइसन तो होबे करही। सकलाय जनता मन उहाँ का करतिन? जेमन भीड़ बढ़ाये बर चढ़ावा मा आये रिहिन ओमन चढ़ावा लेके टसके लगिन। देखते देखत थोरिक बेरा मा अंडाल, पंडाल सब तिरियागे।  रोग भगाये बर होवत योग ला लोगन मन नेता जी के कारण नइ कर पाइन। अब बपुरा मन के तबियत पानी के का होही? कहूँ योग कर डरे रहितिंन ता साल भर भला चंगा रहितिंन, फेर होनी ला कोन टार सकत हे।

                

                 योग मा भाग ले बर कतको प्रकार के आदमी आये रिहिन, जेमा साहब, बाबू, सिपइहा, कमइयां मजदूर अउ किसान मन तको रिहिन। बूता दू प्रकार ले करे जाथे, एक हाड़ा गोड़ा खपा के ता एक दिमाक लगाके। बूता दूनो जरूरी हे। श्रम अउ सोच के समन्वय होय ले ही ये दुनिया चलत हे। फेर सोचे के बात हे, नेता मन के योग दिवस मा मजदूर किसान मन के का काम? जे बपुरा मन रात दिन जांगर खपावत रइथे, उंखर अपन हाथ,गोड़ थोड़े जाम रही। हाथ गोड़ तो ओखर जकड़े रइथे, जे मन दिन भर सोफा, कुर्सी ला पोगराये रइथे। मोर कहे के मतलब ऑफिस मा दिमाक खपइया साहब, बाबू ला ये सब करना जादा जरूरी हे, जांगर खपइया मन के काया के कसरत तो काम बूता मा आगर तक हो जथे। तभो अइसन देखावा बाजी मा नेता मन के निमंत्रण मा बनिहार,मजदूर मन दिखबे करथे। नेता मन वोट के लालच मा बुलाथे, ता ये मन नोट के लालच मा आ तको जथे। आजकल फोकट मा भीड़ कहाँ जुटथे, अउ भीड़ बढ़ाये बर छोट मोट आदमी मन तो काम आथें। काखर कर आज समय हे, जे बिन स्वार्थ के कोनो फलां ढमका के दर्शन करे। पर जेन श्रम के गाड़ी  ला सबर दिन अपन हाथ म खिचथें, वो नेता मन के बिगारी बर घलो अघुवाय रथे। ऊंखर जिनगी मा गरीबी रूपी रोग सपड़े रथे, जे योग-जोग ले नइ भागे। ये रोग तको नेता मन के कृपा के ही बाट जोहथे, काबर कि काया खपाये मा पेट-परिवार ले देके पलथे, अइसन मा देख देवावा अउ शान शौकत तो सपना मा तको नइ आय। खैर नेता जी के योग दिवस के बहाना भीड़ के हिस्सा बने ले चाय शर्बत अउ एक दिन के रोजी तो मिलगे, अइसने सुध सबर दिन जनता के नेता मन लेवँय। 

                    योग ध्यान दुनिया मा जमाना ले चलत आवत हे। साधु, संत मन सरलग योग ध्यान मा लीन रहै। बचपन मा खेलकूद, जवानी मा कामधाम अउ बुढापा मा भाव भजन, ये  सब विधान अस्त पस्त हो गे हे। अइसन मा आज योग सबके जरूरत बनगे हे। आधुनिक खान पान अउ दूषित पर्यावरण के आघू कोनो निरोग नइ रही सके। मनखे के शरीर मशीन आय, जेखर देख रेख अउ उचित खानपान ही, वोला बढ़िया रख सकथे। योग ध्यान तभे काम के हे, जब खानपान अउ दिनचर्या बने रहय, काबर कि योग सात्विक आचार विचार अउ खानपान के द्योतक होथे। योग अउ कसरत अलग अलग चीज आय। योग ध्यान आत्मिय अउ कसरत शारीरिक क्रिया ले जुड़े हे। कमइयां बनिहार, मजदूर किसान के आत्मीय जुड़ाव भुइयाँ अउ करत काम संग सहज रइथे, संग मा काया के कसरत तो होबे करथे, अइसन मा का  योग, का कसरत अउ का जिम सिम? आज ठलहा अउ स्मार्ट बूता करइया मन इम- जिम मा पछीना ओगारत तको दिखथे। किसान मजदूर कस आज मनखे ला चाही, कि जे भी काम ला करे, पूरा बूड़ के करे। काम टड़काये मा मूड़ पिराबे करही। बूता- काम ही सब ले बड़े योग ध्यान आय, बस वो काम मा काया जरूरत के हिसाब ले खटे अउ मन बरोबर रमे अउ रचे। कमइयां मन जाँगर खपा खपा के थक जावत हे, ता बैठइया मन बइठे बइठे जाँगर ला हलाय-डोलाय अउ मोटाय के उदिम करत पस्त दिखथें। कोनो भी चीज एक दिन मा कुछु नइ होय, वइसने योग ध्यान तको एक दिन के चीज  नोहे, येमा सरलग समय निकाल के जुड़े रहना चाही, नही ते नेता जी कस घेंच ला घुमावत बेरा घेंच धरबे करही। 


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

कविता-QC

 कविता-QC


QCFI हे गजब काम के।

सफल हो जाबों येला थाम के।।

ये जब अपन गुण देखाथे।

समस्या तक अवसर बन जाथे।।

जड़ ले जुड़े लोग ला जोड़ के।

गुणवत्ता चक्र मा निचोड़ के।।

समस्या ला सब आघू लाथे।

ये बूता सबके मन भाथे।।

समस्या ला परिभाषित करके।

छोट बड़े सब बात ला धरके।।

प्रश्न पूछ अउ दिमाक लगा।

अध्ययन करथें सब सकला।।

जड़ मा समस्या के जाना होथे।

मूल कारण ला लाना होथे।।

उठथे जब महिनत के तूफान।

तब दिख जाथे समाधान।।

सोचे समझे ले बार बार।

सपना होय लगथे साकार।।

आथे जब बढ़िया परिणाम।

तब हो जाथे सफल काम।।

महिनत हा रंग लाथे अब्बड़।

मन मा खुशी छाथे अब्बड़।।

सोच समीक्षा जब पाथे पंख।

बजथे तब विकास के शंख।।

जेहर भी QCFI अपनाथे।

उहाँ सुख समृद्धि शांति छाथे।।


खैरझिटिया

घाट न घर के-रोला छंद

 घाट न घर के-रोला छंद


छोटे मोटे काम, गिनावय कर बड़ हल्ला।

श्रेय लेत अघुवाय, श्राप सुन भागय पल्ला।।

खुद के खामी तोप, उघारय गलती पर के।

अइसन मनखे होय, कभू भी घाट न घर के।।


सोंचे समझे छोड़, करे मनमानी रोजे।

पर के ठिहा उजाड़, अटारी खुद बर खोजे।।

झटक आन के अन्न, खाय नित उसर पुसर के।

अइसन मनखे होय, कभू भी घाट न घर के।।


दाई ददा ल छोड़, नता के किस्सा खोले।

मीठ मीठ बस बोल, जहर सब कोती घोले।।

कभू होय नइ सीध, रहे अँइठाये जरके।

अइसन मनखे होय, कभू भी घाट न घर के।।


रखे पेट मा दाँत, खोंचका पर बर कोड़े।

अवसर पाके पाँव, गलत पथ कोती मोड़े।

पहिर स्वेत परिधान, चले नित कालिख धरके।

अइसन मनखे होय, कभू भी घाट न घर के।।


घर के भेद ल खोल, मान मरियादा बारे।

आफत जब आ जाय, रहे देखत मुँह फारे।।

बरसे अमरित धार, फुले तभ्भो नइ झरके।

अइसन मनखे होय, कभू भी घाट न घर के।।


पापी बनके पाप, करे अउ लेवय बद्दी।

जाने नही नियाव, तभो पोटारे गद्दी।।

दानवीर कहिलाय, आन के धन बल हरके।

अइसन मनखे होय, कभू भी घाट न घर के।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)