दुर्मिल सवैया(पुरवा)
सररावत हे मन भावत हे रँग फागुन राग धरे पुरवा।
घर खोर गली बन बाग कली म उछाह उमंग भरे पुरवा।
बिहना मन भावय साँझ सुहावय दोपहरी म जरे पुरवा।
हँसवाय कभू त रुलाय कभू सब जीव के जान हरे पुरवा।
खैरझिटिया
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कइसे बसंत आथे
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रितु बसंत बैठे बाजू म,
बतियाय कवि ले|
मोर नॉव के बोझा ल,
तँय ढोवत हस अभी ले..... |||
मॅय सहर नगर ले दूर
डिही डोंगरी खेत-खार म रिथों|
अपन मन के बात ल,
पुरवइया बयार म किथों|
मँय आमा म मौंरे हों,
मँय परसा म फुलें हौ|
बंभरी म सोनहा खिनवा कस,
त अमली म झूले हौ|
मँय गंहू के बाली बने हौं
महिं फुल महिं माली बने हौं|
झुले चिरई चढ़के फुलगी म,
महिं पाना महिं डाली बने हौं|
कोयली संग मँय बोलथंव|
फगुवा म रंग रस घोलथंव|
घमघम ले अरसी कस फुलके,
पिंवरी सरसो बन डोलथंव|
मँय मुंग मुंगेसा फुट फुटेना कस,
रंग रंग के खाजी|
लहलहावत बारी बखरी म,
आनि-बानि के भाजी|
मँय घाट-घठौंदा;बाग-बगइचा,
अलिन-गलिन म नाचथों|
कुहकी पारत मगन होके,
लइकामन कस हॉसथों।
बरखा आथे त पानी गिरथे,
सीत आथे त जाड़ लगथे,
अऊ गरमी आके गरमाथे|
तँय नइ लिखतेस त कोन जानतिस?
कि कइसे बसंत आथे|
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)