Monday 31 December 2018

नवा बछर

बधाई नवा बछर के(सार छंद)

हवे  बधाई   नवा   बछर   के,गाड़ा  गाड़ा  तोला।
सुख पा राज करे जिनगी भर,गदगद होके चोला।

सबे  खूँट  मा  रहे  अँजोरी,अँधियारी  झन  छाये।
नवा बछर हर अपन संग मा,नवा खुसी धर आये।
बने चीज  नित नयन निहारे,कान सुने सत बानी।
झरे फूल कस हाँसी मुख ले,जुगजुग रहे जवानी।
जल थल का आगास नाप ले,चढ़के उड़न खटोला।
हवे  बधाई  नवा  बछर  के,गाड़ा  गाड़ा  तोला----।

धन बल बाढ़े दिन दिन भारी,घर लागे फुलवारी।
खेत  खार  मा  सोना  उपजे,सेमी  गोभी  बारी।
बढ़े बाँस कस बिता बिता बड़,यश जश मान पुछारी।
का  मनखे  का  जीव जिनावर, पटे  सबो सँग तारी।
राम रमैया कृष्ण कन्हैया,करे कृपा शिव भोला-----।
हवे  बधाई  नवा  बछर के,गाड़ा  गाड़ा  तोला------।

बरे बैर नव जुग मा बम्बर,बाढ़े भाई चारा।
ऊँच नीच के भेद सिराये,खाये झारा झारा।
दया मया के होय बसेरा,बोहय गंगा धारा।
पुरवा गीत सुनावै सबला,नाचे डारा पारा।
भाग बरे पुन्नी कस चंदा,धरे कला गुण सोला।
हवे बधाई नवा बछर के,गाड़ा गाड़ा तोला---।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)

Friday 7 December 2018

सपना

...............सपना.............
----------------------------------------
रतिहा रोत रहेंव,
रहि-रहि के सपना म |
डरे-डर म,सुते सुते,
दबे-दबे   दसना  म  |

जंगल गे रेहेंव,
पिकनिक मानेल |
करेन हो हल्ला,
नाचेन- गायेन |
भूँकर-भूँकर के,
गोल्लर कस,
उछर-उछर के खायेन |
मँउहा मारिस मितान मन,
मँय मन मडा़येव चखना म|
रतिहा रोत रेहेंव,
रहि-रहि के सपना म....|

जिंहा बँसरी बाजे,
तिहा डिस्को बाजत हे|
जिहा राहस राचे,
तिहा जुआ  मातत हे |
मॉस मछरी कस मजा,
नइहे मटर मखना म....|
रतिहा रोत रेहेंव,
रहि-रहि के सपना म...|

चारो मुड़ा सीसी-बॉटल,
अऊ गुटका पाऊच पड़े हे|
बीड़ी-सिकरेट म,
झुंझकुर झाड़ी अऊ पेड़़ जरे हे|
हुरहा हलिस पहाड़,
चपकागेव बड़का पखना म...|
रतिहा रोत रेहेंव,
रहि-रहि के सपना म............|

अलगागे गोड़ के जोंड़,
कुटी-कुटी टुटगे कनिहा,
दाई-ददा बरजत रिहिस,
अति करेल पिकनिक झनि जा|
टुटिस सपना ताहन कहॉ के पथना,
गोड़ खुसरे राहय खटिया के गँथना म..|
रतिहा रोत रेहेव,
रहि-रहि के सपना म........................|

सिरतोन म का ददा,
सपना म घलो नइ गोड़ तोड़वांव |
कान धरलेव अतलंगहा बन,
पिकनिक नई जांव |

             जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
              बाल्को(कोरबा)

Thursday 6 December 2018

मुसवा (सार छंद)

मुसवा(सार छंद)

कुरकुर-कुरकुर करे रात दिन,मुसवा करिया करिया।
कुटी  कुटी  कपड़ा  ला  काटे,मति हा जाथे छरिया।

खा खा के भोगाये हावै,धान चँउर फर भाजी।
भँदई पनही घलो तुनागे,नइ बाँचत हे खाजी।
कभू खोधरे परवा छानी,अउ घर अँगना कोड़े।
तावा के रोटी ला झड़के,आरुग कुछु नइ छोड़े।
चोरो बोरो घर हर लागे,कोला परगे परिया---------।
कुरकुर-कुरकुर करे रात दिन,मुसवा करिया करिया।

गदबिद गदबिद भागे भारी,खटिया मा चढ़ जावै।
हाथ  गोड़  ला घलो ककोने,नींद  कहाँ  ले आवै।
कुरिया कोठी कोठा कोला,सबे खूँट हे कोरा।
मुसवा  लेड़ी  मा भरगे हे,पाठ पठउँहा बोरा।
बरी बिजौरी बाँचत नइहे,नइ बाँचत हे फरिया------।
कुरकुर-कुरकुर करे रात दिन,मुसवा करिया करिया।

साँप असन पुछी दिखत हे,खरहा कस हे काया।
मनखे  तनखे  ला  नइ घेपे,मुसवा के बड़ माया।
आँखी लाल ठाढ़ मूँछ हे,देख बिलैया भागे।
छेना खरही माटी होगे,घर हा डोलन लागे।
भारी उधम मचावत हावै,चीं चीं चीं चीं नरिया------।
कुरकुर-कुरकुर करे रात दिन,मुसवा करिया करिया।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को (कोरबा)

Thursday 22 November 2018

मुक्ताहारा सवैया

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"के सवैया छंद

1,गंगोदक सवैया(लीम के पेड़)
लीम के पेड़ देथे हवा रोज ताजा जगालौ सबे तीर हे काम के।
दाँत सफ्फा करै रोग राई हरै तोड़ चाबौ मुखारी सुबे शाम के।
फायदा का कहौं लीम के तेल के होय पाना ग डारा सबो दाम के।
बैठ पंछी घलो हा लुभाये जिया ला रखौ लीम के पेड़ ला थाम के।

2,सुमुखी सवैया(हाय पइसा)
धरा म खड़े मनखे मन देखव हाथ लमाय अगास हवै।
करै मनके धन मा तनके बल बुद्धि घलो सब नास हवै।
रुतोवय नीर जराय जिया बगरा अँधियार गियास हवै।
कहाँ करथे सत काम कभू रुपिया पइसा बस खास हवै।

3,मुक्ताहारा सवैया(जुलूम जुलूस के)
भरे रिस मा मनखे मन बार दिये कतको घर मोटर कार।
धरे लउठी चिचियावत हे लहरावत हे टँगिया तलवार।
गली घर खोर के होय उजार थमे पहिया चुप हाट बजार।
जुलूस जुलूम करे ग हजार नफा बर चार धरे हथियार।

Tuesday 20 November 2018

बागीश्वरी सवैया

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"के सवैया छंद

1,सुखी सवैया(लइकापन)
बरदी नरवा तरिया परिया म सबो झन जा मिल कूदन खेलन।
कतको बड़का बिरवा ह रहे अमली अमुवा फर टोरन झेलन।
सब संग म अब्बड़ आय मजा दँउरी चढ़ जाँवन खाँसर बेलन।
फुतका कुधरा म सनाय रहे तन फेर जिया म मया बड़ मेलन।

2,महाभुजंग प्रयात छंद(आना के जमाना)
रहे हाथ मा चार आना ग भैया खुशी के रहे ना ठिकाना ग भैया।
जमाये रहे धाक आना सबो तीर का बैंक बाजार थाना ग भैया।
तिजोरी म बाजे बड़े छोट के गा चले देख आना जमाना ग भैया।
पुछारी कहाँ हे चँवन्नी अठन्नी आये नही एक दाना ग भैया।

बागीश्वरी सवैया(वीर जवान)
मले मूड़ मा धूल माटी धरा के सिवाना म ठाढ़े हवे वीर गा।
दिखे तोप गोला सहीं आग काया त आधे भला कोन हा तीर गा।
नँवाये मुड़ी जेन माँ भारती पाँव ओला खवाये बरा खीर गा।
गड़ाये कहूँ देश मा आँख बैरी त फेंके भँवाके जिया चीर गा।

सवैया

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया" के सवैया छंद

1,मंदारमाला सवैया(वाह रे मनखे)
काया म माया चढ़ाये फिरे गा मया के ठिहा ठौर खाली करे।
टोरे भरोसा बने लालची आज के संत चोरी ग काली करे।
कैसे बढ़े बाग बारी के पौधा ग छेरी सहीं काम माली करे।
माने नहीं आदमी बात बानी ग खाये उही छेद थाली करे।

2,सर्वगामी सवैया(ताजा खाना पीना)
तातेच खाना मिठाये सुहाये बिमारी ल बासी ग खाना ह लाने।
ताजा रहे साग भाजी घलो हा पियौ तात पानी ग रोजेच छाने।
धोवौ बने हाथ खाये के बेरा म कौंरा कभू पेट जादा न ताने।
खाये ग कौंरा पँचाये बने तेन गा आदमी रोग राई न जाने।

3,आभार सवैया(मीठ बानी)
बोली बने बोल भाही सबे हा कहाँ रास आथे ग कोनों ल चारी ह।
चोरी चकारी म बाढ़े नही शान नत्ता मया ला मताये ग गारी ह।
ओखी ग मारे बुता ला बिगाड़े त कैसे भला तोर होही पुछारी ह।
बोली म घोरे मया मीत जौने पटे ओखरे गा सबे संग तारी ह।

Monday 19 November 2018

देव उठनी तिहार के सादर बधाई

देव उठनी तिहार के सादर बधाई

रूपमाला छन्द

देवउठनी आज हे छाये हवे उल्लास।
हूम के धुँगिया उड़े महकै धरा आगास।
चौंक चंदन मा फभे अँगना गली घर खोर।
शंख  घन्टी मन्त्र सुन नाँचे जिया बन मोर।

घींव के दीया बरै कलसा म हरदी रंग।
ब्याह बंधन मा बँधे बृंदा बिधाता संग।
आम पाना हे सजे मंडप बने कुसियार।
आरती  थारी  म  माड़े  फूल गोंदा हार।

जागथे ये दिन देवता  होय मंगल काज।
दान दक्षिणा करे ले पुण्य मिलथे आज।
लागथे  मेला  मड़ाई  बाजथे  ढम ढोल।
रीस रंजिस नइ रहै मनखे रहै दिल खोल।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को (कोरबा

Thursday 8 November 2018

मातर हे मोर गाँव म


मातर हे मोर गाँव म
-------------------------------
देवारी के बिहान दिन,
मातर हे मोर गाँव  म।
नेवता   हे झारा-झारा,
घरो-घर उघरा राचर हे,
मोर  गाँव म---------।

गाँव-गुढ़ी   के  मान  म।
सकलाबोन गऊठान म।
राऊत भाई मन,मातर जागही।
सिंग - दमऊ - दफड़ा बाजही।
खीर-पुड़ी  बरा-सोंहारी,
संग     घरो  - घर    चूरे,
अंगाकर हे मोर गाँव म।
देवारी  के  बिहान दिन,
मातर हे  मोर  गाँव  म।
गाय-गरु संग,गाँव के गाँव नाचही।
अरे  ररे  हो कहिके,दोहा  बाँचही।
डाँड़   खेलाही , गाय - बछरू   ल,
खीर  -  पुड़ी  के ,परसाद  बाँटही।
अंगना - दुवारी  कस , सबके  मन,
चातर हे मोर गाँव म।
देवारी के बिहान दिन,
मातर हे मोर गाँव  म।
घरो-घर गोबरधन,
भगवान  देख ले।
मेमरी-सिलिहारि
संग खोंचाय हे,
धान  देख   ले।
डोली-डंगरी,गली-खोर संग,
नाचे लइका-सियान देख ले।
मया मोठ हे,
बैर पातर हे मोर गाँव म।
देवारी  के  बिहान  दिन,
मातर  हे  मोर  गाँव  म।
नेवता   हे    झारा-झारा,
घरो-घर   उघरा राचर हे,
मोर   गाँव   म---------।
जीतेन्द्र वर्मा "खैरझिटिया"
बालको(कोरबा)
9981441795

Friday 2 November 2018

सवैया

जीतेन्द्र वर्मा "खैरझिटिया" के सवैया छंद

1,किरीट सवैया(जड़काला)
साँझ सुबे ह सुहाय नही रतिहा बइरी कस लागत हावय।
जाँगर जाड़ म हे अँकड़े अँखिया रतिहा भर जागत हावय।
नाक बहै अउ दाँत बजे बड़ जाड़ म देखव का गत हावय।
सूरज देव घलो तरसावय होत बिहान ले भागत हावय।

2,चकोर सवैया(धान लुवई)
हाथ धरे धरहा हँसिया बड़ मारत हे ग उछाह उफान।
मूड़ म ललहूँ पटकू ल लपेट किसान चले ग लुवे बर धान।
गावत हे करमा सुर मा मन भावत हावय जेखर तान।
धान दिखे चरपा चरपा पिंवरा करपा बड़ पावय मान।

3,अरसात सवैया(अंत समे)
मोर कही झपटे धन दौलत फोकट रोज करे अतलंग जी।
मीत मया सत छोड़ दया तँय काबर छेड़त हावस जंग जी।
के दिन काम दिही धन दौलत साथ न देवय रूप न रंग जी।
छूट जही सब अंत समे बस तोर रही करनी हर संग जी।

Thursday 25 October 2018

सवैया

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"के सवैया

1,मतगयन्द सवैया(देवारी)
चिक्कन चिक्कन खोर दिखे अउ चिक्कन हे बखरी घर बारी।
हाँसत हे मुसकावत हे सज आज खुशी म सबे नर नारी।
माहर माहर हे ममहावत आगर इत्तर मा बड़ थारी।
नाचत हे दियना सँग देखव कातिक के रतिहा अँधियारी।

2,दुर्मिल सवैया(जय गणराज)
अरजी बिनती कर जोर करौं प्रभु मोर छुड़ावव राग ल हो।
धरके भटकौं बिरथा धन दौलत रोज सँकेलँव ताग ल हो।
तन भीतर बंम्बर मोह बरे प्रभु आन बुझावव आग ल हो।
सबके बिगड़ी ल बनाय गजानन मोर बनावव भाग ल हो।

3,मदिरा सवैया(बेजा कब्जा)
छेंकत हें सब खोर गली धरसा ह घलो नइ बाँचत हे।
मोर हरे कहिके सब जंगल झाड़ पहाड़ ल नापत हे।
गाँव गली घर खोर म झंझट देखव रोज ग मातत हे।
लालच मा सब छेंकत हावय फेर सबो बर आफत हे।

Monday 22 October 2018

घनाक्षरी

@@@घनाक्षरी@@@

मन म बुराई लेके,आलस के आघू टेके,
तप जप सत फेके,कैसे जाबे पार गा।
झन कर भेदभाव,दुख पीरा न दे घाव,
बढ़ाले अपन नाँव,जोड़ मया तार गा।
बोली के तैं मान रख,बँचाके सम्मान रख,
उघारे ग कान रख,नइ होवै हार गा।
पीर बन राम सहीं,धीर बन राम सहीं,
वीर बन राम सहीं,बुराई ल मार गा।

आशा विश्वास धर,सियान के पाँव पर,
दया मया डोरी बर,रेंग सुबे शाम के।
घर बन एक मान,जीव सब एक जान,
जिया कखरो न चान,छाँव बन घाम के।
मीत ग मितानी बना,गुरतुर बानी बना,
खुद ल ग दानी बना,धर्म ध्वजा थाम के।
रद्दा ग देखावत हे,जग ला बतावत हे,
अलख जगावत हे,चरित्र ह राम के।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)

Wednesday 17 October 2018

किसनहा आशिक


📝किसन्हा आसिक📝
-------------------------------------
.....माटी ले जुंड़बोन.....
----------------------------------------
नखरा नवा जमाना के,
मनखे ल चुरोना कस कांचही |
माटी ले जुंड़बोन  मितान,
तभे जिवरा  बांचही |
फिरिज टीभी कम्पूटर सस्तात हे,
मंहगात हे चांऊर दार |
सपना म घलो सपनाय नही खेती,
बेंचात हे खेतखार |
उद्धोग ढॉबा लाज बनत हे,
टेकत हे महल अटारी|
स्वारथ म रौंदाय भूंईया,
नईहे कोनो संगवारी |
पेट म मुसवा कुदही,
त कोन भला नांचही........ |
मांटी ले जुंड़बोन मितान,
तभे जिवरा बांचही |
खेती आज बेटी होगे,
भात नईहे कोनो |
चाहे देखावा कतरो बखाने,
फेर अपनात नईहे कोनो |
करजा म किसान ,
कलहर-कलहर के अधमरहा होगे |
मेहनत भर ओखर तीर ,
ब्यपारी तीर थरहा होगे |
भूख मरही किरसी भूंईया भारत,
म बिदेसिया घलो हांसही.......|
मांटी ले जुंड़बोन मितान,
तभे जिवरा बांचही  |
तंहू हस नंवकरी म,
मंहू हंव नंवकरी म,
पईसा हे ईफरात |
फेर दुच्छा हे हंड़िया,
दुच्छा हे परात |
कल कारखाना अंखमुंदा लगात  हे |
दार-चांउर छोंड़,आनी-बानी के चीज बनात हे|
हाय पईसा-हाय पईसा होगे,
का दुच्छा पेंट पईसा ल चांटही....?
मांटी ले जुंड़बोन मितान,
तभे जिवरा बांचही |
           
              जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
                बाल्को(कोरबा

Thursday 11 October 2018

कलमकार

@@@कलमकार@@@

कलमकार  हरौं, चाँटुकार  नही।
दरद झेल सकथौं,फेर मार नही।

दुख के दहरा म,अन्तस् ल बोरे हँव।
अपन लहू म,कलम ल चिभोरे हँव।
मैं तो मया मधुबन चाहथौं,
मरुस्थल थार नही-----------

बने बात के गुण,गाथौं घेरी बेरी।
चिटिक नइ सुहाये,ठग-जग हेरा फेरी।
सत अउ श्रद्धा मा,माथ नँवथे बरपेली,
फेर फोकटे दिखावा स्वीकार नही-------

हारे ला ,हौंसला देथौं मँय।
दबे स्वर ला,गला देथौं मँय।
सपना निर्माण के देखथौं,
चाहौं  कभू उजार नही---------

समस्या बर समाधान अँव मैं।
प्रार्थना आरती अजान अँव मैं।
मनखे अँव साधारण मनखे,
कोनो ज्ञानी ध्यानी अवतार नही-------

फोकटे तारीफ,तड़पाथे मोला।
गिरे थके के संसो,सताथे मोला।
जीते बर उदिम करहूँ जीयत ले,
मानौं कभू हार नही-------------

ऊँच नीच भेदभाव पाटथौं।
कलम ले अँजोरी बाँटथौं।
तोड़थौं इरसा द्वेष क्लेश,
फेर मया के तार नही----------

भुखाय बर पसिया,लुकाय बर हँसिया अँव।
महीं कुलीन,महीं घँसिया अँव।
मँय मीठ मधुरस हरौं,
चुरपुर मिर्चा झार नही----------

हवा पानी अगास पाताल।
कहिथौं मँय सबके हाल।
का सजीव का निर्जीव मोर बर,
मँय लासा अँव,हँथियार नही-------

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)

छप्पय छंद

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"के छप्पय छंद

1,खुदखुशी
विनती हे कर जोर,गला झन फंदा डारव।
जिनगी हे अनमोल,हँसी अउ खुशी गुजारव।
जाना हे यम द्वार,एक दिन सब्बो झन ला।
जीवन अपन सँवार,रखव ये जग मा तन ला।
जीना हे दिन चार गा,थोरिक सोंच बिचार गा।
आखिर तो जाना हवै,अलहन खड़े हजार गा।

2,सागर तीर
बइठे सागर तीर,मजा लेवव लहरा के।
फोकट करौ न नाप,रेत पानी दहरा के।
कुदरत के ये देन,पार पाना मुश्किल हे।
इहाँ ठिहा घर ठौर,असन कतको ठन बिल हे।
सागर जब शांत हे, तब तक तट मा खेल लौ।
करनी झन बिरथा करौ,दया मया नित मेल लौ।

3,पर्यावरण संरक्षण
पर्यावरण बँचाव,उजारौ झन बिरवा बन।
पुरवा पानी साफ,रहै ठाँनव ये सब झन।
गलत कभू झन होय,भूल के सपना मा जी।
होही घर बन राख,लगाहू जब जब आगी।
करौ जतन जुरमिल सबो,होही तब उद्धार जी।
पुरवा पानी बन धरा,जिनगी के हे सार जी।

Monday 8 October 2018

तोर साथ

.........    तोर साथ    .........
------------------------------------------------
तोर साथ ,   मोर   साँस  बन    जहि।
मिलाबों हाथ,बैरी बर फाँस बन जहि।

के दिन भुकरही,पूँजीवाद के गोल्लर?
बर  एकता  के डोरी, नाथ  बन जहि।

झुँझकुर झाड़ी,ठाड़-ठाड़ काँटा ले झन डर्रा,
हटा  मिलजुल  के, रेंगे  बर  पात  बन जहि।

झन अँटिया,फोकटे-फोकट पैसा-कउड़ी म।
मिलके  नाच - गा, जिनगी  रास  बन  जहि।

झन  कलकलान दे,  काली कस कोनो ल,
नही ते जीयत मनखे घलो,लास बन जहि।

हाड़ा  कस  हँव, फेर  हाँकत  हँव  ए  जुग  ल,
दुरिहाहूँ महिनत ले,त तोर तन मॉस बन जहि।

दू दिन के जिनगी म,दुवा लेके जी जी"जीतेन्द्र"।
बखाना-सरापा  एक दिन तोर, नास  बन  जहि।

              जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
               बालको(कोरबा)
               9981441795

कज्जल छंद(नवरात)

नवरात्रि(कज्जल छंद)

लागे महिना,हे कुँवार।
बोहावत हे,भक्ति धार।
सजा दाइ बर,फूल हार।
सुमिरन करके,बार बार।

महकै अँगना,गली खोल।
अन्तस् मा तैं,भक्ति घोल।
जय माता दी,रोज बोल।
मनभर माँदर,बजा ढोल।

सबे खूँट हे,खुशी छाय।
शेर सवारी,चढ़े आय।
आस भवानी,हा पुराय।
जस सेवा बड़,मन लुभाय।

पबरित महिना,हरे सीप।
मोती पा ले,मोह तीप।
घर अँगना तैं,बने लीप।
जगमग जगमग,जला दीप।

माता के तैं,रह उपास।
तोर पुराही,सबे आस।
आही जिनगी,मा उजास।
होही दुख अउ,द्वेष नास।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)




कज्जल छंद(देवारी)

कज्जल छंद
मानत हे सब झन तिहार।
घर कुरिया सब हे तियार।
उज्जर उज्जर घर दुवार।
महल घलो नइ पाय पार।

बोहावय जी मया धार।
लामे हावय सुमत नार।
बखरी बारी खेत खार।
नाचे  घुरवा कुँवा पार।

चमचम  चमके सबे तीर।
बने  घरो  घर फरा खीर।
महके  होयव  मन अधीर।
का राजा अउ का फकीर।

झड़के भजिया बरा छान।
नाचे लइका अउ सियान।
सुनके  दोहा  सुवा गान।
भरे अधर हे ग मुस्कान।

देवारी   हे    परब   आय।
हाँस हाँस  के सब मनाय।
सबके मन मा खुसी छाय।
दया  मया  के सुर लमाय।

रिगबिग  दीया  के अँजोर।
का घर अउ का गली खोर।
परले पँउरी हाथ जोर।
भाग बनाही दाइ तोर।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)

Thursday 4 October 2018

मौत दिंयार के

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"के कुंडलियाँ छंद

1,करनी के फल
माटी कठवा ला करे,खाके जउन दिंयार।
तेखर नाँव बुझात हे,बाँटव सब ला प्यार।
बाँटव सब ला प्यार,ठिकाना का जिनगी के।
करके फोकट बैर,भला का पाहू जी के।
काँटय छाँटय जौन,होय मनखे या चाँटी।
करम करै बेकार,खुदे मिल जावै माटी।

2,आगी जंगल के
दहकत हे जंगल अबड़,बरै डार अउ पान।
भागत हे सब जीव मन,अपन बँचाके जान।
अपन बँचाके जान,छोड़ के जंगल झाड़ी।
हरियर हरियर पेड़,जरै जइसे गा काड़ी।
कतको जरगे जीव,पड़े कतको हे लहकत।
कइसे आग बुझाय,अबड़ जंगल हे दहकत।

3,दाना पानी चिरई बर
चहके चिरई डार मा,देख उलाये चोंच।
दाना पानी डार दे,मनखे थोरिक सोंच।
मनखे थोरिक सोंच,घाम हा गजब जनाये।
जल बिन कतको जीव,तड़प के गा मर जाये।
घाम सहे नइ जाय,बिकट भुँइया हा दहके।
पानी रखबे ढार,द्वार मा चिरई चहके।

देख देवारी दिनों दिन दुबरात हे

देख देवारी,दिनों-दिन दुबरात हे।
--------------------------------------------
अँगसा-सँगसा म दिया,कोन  जलाय?
दूसर संग अब  जिया , कोन  मिलाय?
कोन   हटाय  , कांदी  -  कचरा    ल?
कोन   पाटे ,  खोंचका -  डबरा     ल?
मनखे के मन म,हिजगा पारी हमात हे।
देख  देवारी ,दिनों - दिन , दुबरात    हे।

पाँच    दिन    के    तिहार    बर,
पाख   भर   पहिली  जोरा  होय।
छभई  - मुँदई ,   लिपई  -  पोतई,
साफ-सफई,कचरा  कोरा   होय।
नाचे नवा-नवा होके,गली -  खोर।
सुघराई राहय,ए छोर ले ओ छोर।
फेर मनखे अब ,जांगर  चोरात हे।
देख देवारी ,दिनों-दिन  दुबरात हे।

तेरस के यम दिया, कोन  जलाय हे?
चऊदस म बिहनिया ,कोन नहाय हे?
कोन दाई लक्षमी बर , चँऊक पुरे हे?
कहाँ कढ़ी म,कोमढ़ा-कोचेई बुड़े हे?
छिनमिनात हे,गोबरधन के गोबर ले,
भाई-दूज  बर  घर म ,कोन राहत हे?
देख देवारी, दिनों- दिन  दुबरात  हे।

कोठा म घलो कहाँ,गाय बँधाय हे।
सुपा म  कोन, सुखधना मड़ाय हे?
कति बाजत हे,सींग-दफड़ा-दमऊ?
कति  पहटिया,सोहई  धर आय हे?
अँटात हे तेल ,दिया के दिनों - दिन।
सिरात हे मया,जिया के दिनों -दिन।
का     करहि     फोड़     फटाका ?
मनखे   बम   कस   गोठियात    हे।
देख  देवारी , दिनों - दिन दुबरात हे।

पहिरे    हे   नवा- नवा  कुर्था,
फेर      मन   मइलाय      हे।
पीये      हे   मंद  -     मँऊहा,
मास   -   मटन     खाय    हे।
देख      तभो      पापी     ल ,
दाई           लक्षमी         तीर,
पइसा   माँगे    ल   आय  हे।
हुदरइया- कोचकइया  मिलथे,
नचइया    -     गवइया   नही।
ददा-दाई ल  ,बेटा नइ मिलत हे,
बहिनी     ल     भईया      नही।
कोन   जन  का   चीज  धरे  हे?
सबो अपने   अपन अँटियात हे।
देख देवारी,दिनों-दिन दुबरात हे।

    जीतेन्द्र वर्मा "खैरझिटिया"
     बालको(कोरबा)
     9981441795

दाई(शंकर छँद)

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"के शंकर छंद
(महतारी)

महतारी कोरा मा लइका,खेल खेले नाँच।
माँ के राहत ले लइका ला,आय कुछु नइ आँच।
दाई दाई काहत लइका,दूध पीये हाँस।
महतारी हा लइका मनके,हरे सच मा साँस।1।

करिया टीका माथ गाल मा,कमर करिया डोर।
पैजन चूड़ा खनखन खनके,सुनाये घर खोर।
लइका के किलकारी गूँजै,रोज बिहना साँझ।
महतारी के लोरी सँग मा,बजै बाजा झाँझ।2।

धरे रथे लइका ला दाई,बाँह मा पोटार।
अबड़ मया महतारी के हे,कोन पाही पार।
बिन दाई के लइका के गा,दुक्ख जाने कोन।
दाई हे तब लइका मनबर,हवे सुख सिरतोन।3।

Tuesday 2 October 2018

काबर

एक ठन अइसने चलती फिरती मन म आगे

मनखे मनखे सब एक हे,
त मोर अउ पर काबर।

गुजारा कुँदरा म हो सकथे,
त आलीशान घर काबर।

गाँव गंगा मथुरा काँसी,
त भाथे शहर काबर।

बेरा सब हे एक बरोबर,
त सुबे शाम दोपहर काबर।

साँस रोक घलो मर सकथस,
त पीथस जहर काबर।

सुख शांति के तहूँ पुजारी,
त मचथे कहर काबर।

दया मया नइ हे जिवरा म,
त काँपथे थर थर काबर।

सताये नहीं संसो काली के,
त कोठी हे भर भर काबर।

पीये बर घर म पानी नही,
त फोकटे नहर काबर।

बात जावत हे जिया तक,
त बइठाना बहर काबर।

लाँघ सकथस कानून कायदा,
त खोजथस डहर काबर।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)

Saturday 29 September 2018

नवा जमाना

नवा जुग (गीत)

मोर गाँव के धुर्रा मा राखड़ मिलगे,कइसे तिलक लगावौं।
बंजर होगे खेती खार सब,का चीज मैं उपजावौं।

सड़क सुते हे लात तान के,महल अटारी ठाढ़े हे।
मोर आँखी मा निंदिया नइहे,संसो अड़बड़ बाढ़े हे।
नाँव बुझागे रूख राई के,बंगबंग जिवरा बरत हे।
मन भीतरी मोर मातम हावै,बाहिर हाँका परत हे।
सिसक घलो नइ सकत हँव दुख मा,कइसे सुर लमावौं।

लोहा सोन चाँदी उपजत हे,बनत हवै मोटर अउ कार।
सब जीतत हे जिनगी के जंग,मोरे होवत हावय हार।
तरिया परिया हरिया नइहे,नइ हे मया के घर अउ गाँव।
हाँव हाँव अउ खाँव खाँव मा,चिरई करे न चाँव चाँव।
नवा जुग के अँधियारी कूप मा,भेड़ी कस झपावौं।

हवा पानी मा जहर घुरत हे,चुरत हे धरती दाई।
स्वारथ के घोड़ा भागत हे,लड़त हे भाई भाई।
हाय विधाता भूख मार दे,तन ला कर दे कठवा।
नवा जुग ला माथ नवाहूँ,जिनगी भर बन बठवा।
दुख पीरा म जिवरा डोले,माटी पूत मैं
आवौं।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)

बाँस के जंगल

जंगल म बाँस के

जंगल  म  बाँस  के,
कइसे रहँव हाँस के।
खेवन खेवन खाँध खींचथे,
चीखथे सुवाद माँस के----

सुरसा कस  बाढ़े।
अँकड़ू बन वो ठाढ़े।
डहर बाट ल लील देहे,
थोरको मन नइ माढ़े।
कच्चा म काँटा के डर,
सुक्खा म डर फाँस के।
--------------------------।

माते हे बड़ गइरी।
झूमै मच्छर बइरी।
घाम घलो घुसे नही,
कहाँ बाजे पइरी।
कइसे फूकँव बँसुरी,
जर धर साँस के---।

झुँझकुर झाड़ी डार जर,
काम के न फूल फर।
सताये साँप बिच्छी के डर,
इँहा मोला आठो पहर।
बिछे हवे काँदी कचरा,
बिजराय फूल काँस के।
--------------------------।

शेर भालू संग होय झड़प।
कोन सुने मोर तड़प।
आषाढ़ लगे नरक।
जाड़ जड़े बरफ।
घाम घरी के आगी,
बने कारण नास के।
----------------------।

मोर रोना गूँजे गाना सहीं।
हवा चले नित ताना सहीं।
लाँघन भूँखन परे रहिथौं,
हे सुख गड़े खजाना सहीं।
जब तक जिनगी हे,
जीयत हँव दुख धाँस के।
----------------------------।

पाना ल पीस पीस पी,
पेट के कीरा संग,
मोर पीरा मरगे।
मोर बनाये चटई खटिया,
डेहरी म माड़े माड़े सरगे।
प्लास्टिक सुहाये सबला,
लेवै समान काँस के।
------------------------।

न कोयली न पँड़की,
झिंगरा नित झकझोरे।
नइ जानँव अँजोरी,
अमावस आसा टोरे।
न डाक्टर न मास्टर,
 हौं अड़हा जियौं खाँस खाँस के।
------------------------------------।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)

Wednesday 26 September 2018

म्हाभुजंग प्रयात छंद

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"के भुजंगप्रयात छंद(मयारू तोर मया)

मयारू मया तोर हे मोर आशा।
ढुला ना मया ला बना खेल पाशा।
करेजा हरे साग भाजी नही वो।
कटाही भुँजाही त कैसे रही वो।1।

मया तैं जता बाट देखा बने वो।
कते बात ला गाँठ बाँधे तने वो।
कचारे मया के धुरी ला बही तैं।
करे फोकटे वो दहीं के महीं तैं।2।

दया ना मया तोर हे तीर गोरी।
जराये जिया ला रचा रोज होरी।
करौं का करौंदा तिहीं हा बताना।
पियासे हवौं प्रीत पानी पियाना।3।

पीतर(हरिगीतिका छंद)

गोठ पुरखा के(हरिगीतिका छंद)

मैं छोड़ दे हौं ये धरा,बस नाम हावै साख गा।
पुरखा हरौं सुरता ल कर,पीतर लगे हे पाख गा।
रहिथस बिधुन आने समय,अपने खुशी अउ शोक मा।
चलते रहै बस चाहथौं,नावे ह मोरे लोक मा।

माँगौं नहीं भजिया बरा,चाहौं पुड़ी ना खीर गा।
मैं चाहथौं सत काम कर धरके जिया मा धीर गा।
लाँघन ला नित दाना खवा कँउवा कुकुर जाये अघा।
तैं मोर बदला दीन के दे डेहरी दाना चघा।

कर दे मदद हपटे गिरे के मोर सेवा जान के।
सम्मान दे तैं सब बड़े ला मोर जइसे मान के।
मैं रथौं परलोक मा माया मया ले दूर गा।
पीतर बने आथौं इहाँ पाथौं मया भरपूर गा।

जीतेन्द्र कुमार वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)

Tuesday 25 September 2018

जय बाबा विश्वकर्मा(सरसी छंद)

जय बाबा विश्वकर्मा (सरसी छंद)

देव दनुज मानव सब पूजै,बन्दै तीनों लोक।
बबा विश्वकर्मा के गुण ला,गावै ताली ठोक।

सतयुग मा जे सरग बनाये,त्रेता लंका सोन।
द्वारिका पुरी हस्तिनापुर के,पार ग पावै कोन।

चक्र बनाये विष्णु देव के,शिव के डमरु त्रिशूल।
यमराजा के काल दंड अउ,करण कान के झूल।

इंद्र देव के बज्र बनाये,पुष्पक दिव्य विमान।
सोना चाँदी मूँगा मोती,देव लोक धन धान।

बादर पानी पवन गढ़े हे,सागर बन पाताल।
रंगे हवे रूख राई फुलवा,डारा पाना छाल।

घाम जाड़ आसाढ़ गढ़े हे,पर्वत नदी पठार।
बीज भात अउ पथरा ढेला,दिये बने आकार।

दिन के गढ़े अँजोरी ला वो,अउ रतिहा अँधियार।
बबा विश्वकर्मा सबे चीज के,पहिली सिरजनकार।

सबले बड़का कारीगर के,हवै जंयती आज।
अंतस मा बइठार लेव जी,होय सुफल सब काज।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)
भगवान विश्वकर्मा सबके आस पुरावै

बने बात ,हरिगीतिका छंद

बने बात (हरिगीतिका छंद)

किरपा करे कोनो नही,बिन काम होवै नाम ना।
बूता  घलो   होवै  बने,गिनहा मिले जी दाम ना।
चोरी  धरे  धन  नइ  पुरे,चाँउर  पुरे  ना दार जी।
महिनत म लक्ष्मी हा बसे,देखौ पछीना गार जी।

संगी  रखव  दरपन  सहीं,जेहर दिखावय दाग ला।
गुणगान कर धन झन लुटै,धूकै हवा झन आग ला।
बैरी  बनावौ  मत  कभू,राखौ  मया मीत खाँप के।
रद्दा बने चुन के चलौ,अड़चन ल पहिली भाँप के।

सम्मान दौ सम्मान लौ,सब फल मिले ये लोक  मा।
आना  लगे  जाना लगे,जादा  रहव  झन शोक मा।
सतकाम बर आघू बढ़व,संसो फिकर ला छोड़ के।
नैना  उघारे  नित रहव, कतको खिंचइया गोड़ के।

बानी  बनाके  राखथे ,नित  मीठ  राखव  बोल गा।
अपने खुशी मा हो बिधुन,ठोंकव न जादा ढोल गा।
चारी   करे   चुगली   करे,आये   नही  कुछु  हाथ  मा।
सत आस धर सपना ल गढ़,तब ताज सजही माथ मा।

पइसा  रखे  कौड़ी  रखे,सँग  मा रखे नइ ग्यान गा।
रण बर चले धर फोकटे,तलवार ला तज म्यान गा।
चाटी  हवे   माछी  हवे , हाथी  हवे  संसार  मा।
मनखे असन बनके रहव,घूँचव न पाछू हार मा।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)

रोला छंद

""""""""गर्मी छुट्टी(रोला छंद)

बन्द हवे इस्कूल,जुरे सब लइका मन जी।
बाढ़य कतको घाम,तभो घूमै बनबन जी।
मजा उड़ावै घूम,खार बखरी अउ बारी।
खेले  खाये खूब,पटे  सबके  बड़ तारी।

किंजरे धरके खाँध,सबो साथी अउ संगी।
लगे जेठ  बइसाख,मजा  लेवय  सतरंगी।
पासा  कभू  ढुलाय,कभू  राजा अउ रानी।
मिलके खेले खेल,कहे मधुरस कस बानी।

लउठी  पथरा  फेक,गिरावै  अमली मिलके।
अमरे आमा जाम,अँकोसी मा कमचिल के।
धरके डॅगनी हाथ,चढ़े सब बिरवा मा जी।
कोसा लासा हेर ,खाय  रँग रँग के खाजी।

घूमय खारे  खार,नहावय  नँदिया  नरवा।
तँउरे ताल मतंग,जरे जब जब जी तरवा।
आमाअमली तोड़,खाय जी नून मिलाके।
लाटा खूब बनाय,कुचर अमली ला पाके।

खेले खाय मतंग,भोंभरा  मा गरमी के।
तेंदू कोवा चार,लिमउवा फर दरमी के।
खाय कलिंदर लाल,खाय बड़ ककड़ी खीरा।
तोड़  खाय  खरबूज,भगाये   तन   के  पीरा।

पेड़ तरी मा लोर,करे सब हँसी ठिठोली।
धरे  फर  ला  जेब,भरे बोरा अउ झोली।
अमली आमा देख,होय खुश घर मा सबझन।
कहे  करे बड़ घाम,खार  मा  जाहू  अबझन।

दाइ ददा समझाय,तभो कोनो नइ माने।
किंजरे  घामे घामे,खेल  भाये  ना आने।
धरे गोंदली जेब,जेठ ला बिजरावय जी।
बर पीपर के छाँव,गाँव गर्मी भावय जी।

झट बुलके दिन रात,पता कोई ना पावै।
गर्मी छुट्टी आय,सबो  मिल मजा उड़ावै।
बाढ़े मया पिरीत,खाय अउ खेले मा जी।
तन मन होवै पोठ,घाम  ला झेले मा जी।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"बाल्को(कोरबा)

Sunday 13 May 2018

छंद के छ ~ एक पाठशाला,एक आंदोलन*
**************************************
                    वइसे "छंद के छ" हा आज कोनो परिचय के मोहताज नइ हे तभो ले मैं छोटे मुँहु बड़े बात करत हँव। छत्तीसगढ़ी छंद शास्त्र के पहिलावँत किताब "छंद के छ" सन्  2015 मा श्री अरुण निगम  जी  द्वारा लिखे हमर मन के बीच मा आइच। छत्तीसगढ़ी साहित्य ला पोठ करे के उद्देश्य ले लिखे ए किताब हा छंद बद्ध रचना के संगे-संग छंद के विधि-विधान उदाहरण सहित अपन भाखा मा देथे। एखर पहिली संस्करन मा मात्र दू सौ किताब छपे रहीच। "छंद के छ" किताब मा पचास प्रकार के छंद रचना विधि-विधान सहित हावय। छंद के नवा लिखइया मन बर ए किताब हा वरदान बरोबर हावय। दू बछर मा ए किताब हा सिरिफ किताब भर नइ रहीगे ओखर आगू आज एहा ए पाठशाला अउ एक आँदोलन के रुप धर ले हे। छंद सिखे-सिखाय के अइसन इस्कूल, अइसन आंदोलन के सरुप हे "छंद के छ" जेमा अवइया दस-बीस बछर मा छत्तीसगढ़ी साहित के छंदकार के झड़ी लगा दीही। प्रस्तुत लेख मा इही "छंद के छ" के महत्तम, गतिविधि अउ असल उद्देश्य ला बताय के प्रयास करत हँव।

छंद का हे:-
"छंद के छ" ला जाने के पहिली छंद का हे एला जाने के प्रयास करथन। छंद ला काव्य के आत्मा कहे जाय ता कोनो अतिश्योक्ति नइ कहाही। काव्य मा भाव हा देंह हरय ता छंद हा ओखर आत्मा हरय। वइसे छंद हा एक नियम-कायदा हरय जेमा बंध के काव्य रचना करे जाथे। छंद एक निश्चित बेवसथा अउ निर्धारित क्रम होथे जेमा काव्य रचना करे जाथे। काव्य रचना के इही बेवस्थित रंग-ढ़ंग के शास्त्रीय नाँव छंद हा हरय। ए बेवसथा मा मातरा, वरन के संखिया, विराम, गति, लय अउ तुक के संगे-संग वियाकरन के विधि-विधान ले पालन करे जाथे। छंद के शाब्दिक अर्थ हे छंदाय या बंधाय। एखर मतलब होथे के अइसन काव्य रचना जेमा एक मातरा ना उपराहा, ना एक मातरा उन्ना। एक मातरा के भी कम या जादा कभूच नइ चलय। कोनो दशा, दिशा अउ देशकाल मा एमा मातरा के छूट न इच मिलय। एक बंधना, एक नियम, एक विधान छंद के पहिचान हरय। छंद चेत-बिचेत होके नहीं सावचेत होके लिखे के उदीम हरय जउन सबो झन के बस के बात नो हे। छंद सिरिफ मातरा गिनती भर के बुता नो हे बल्कि एखर ले बढ़के बंधना के अनुशासन हरय। छंद रचना हा शब्द सामरथ के बड़ कठिन साधना आय। शब्द संखिया, क्रम, मातरा गिनती अउ उचित यति-गति ले सजे-धजे बंधाय पद्य रचना हा छंद कहाथे। छंद शब्द हा छद धातु ले बने हावय, ए छद धातु शब्द के अर्थ हे- जउन अपन इच्छा या मन ले चलथे। याने के अपन गति ले चलइया। एखरे सेती छंद के मूलभाव गति हा होथे। बिन गति के छंद अबिरथा होथे। उचित गति हा छंद ला गेयता बनाथे। गति के संगे-संग शब्द संयोजन जेला कल संयोजन कहे जाथे एहा छंद ला सरल सुग्घर गुरतुर बनाथे। शब्द संयोजन खातिर शब्द चयन बड़ महत्तम के होथे। ए प्रकार एक छंद रचना बर कवि ला वरन के संखिया, विराम, गति, लय, कल संयोजन अउ तुक मिलान के नियम के पालन करे ला परथे। एक प्रकार ले छंद रचना मापनी जइसे होथे जेमा नाप-जोख सबले बड़े बुता हरय। छंद बद्ध रचना हा पद्य के कसौटी हरय अउ गद्य के कसौटी पद्य रचना ला माने जाथे।
                              अदर-कचर अउ गलत-सलत लिखइया मन बर छंद शास्त्र हा बड़ मुसकुल काम हरय फेर एक बेर जउन छंद के मरम ला जान डारथे, पार ला पा जाथे ओखर बर छंद लिखई डेरी हाथ के बुता होथे। छंदकार ला सिरिफ छंद सुहाथे अउ काँही नइ निक लागय। छंद विधान भले कठिन साधना अउ अनुशासन हरय फेर छंद मा छंदाय बंधाय रचना बड़ उँचहा मान पाथे,कंठ मा सोज्झे मधुरस कस घुरथे अउ रचनाकार ला अमर बनाथे। जन-जन ला छंद रचना बड़ गुरतुर अउ निक लागथे एखर सेती झट्टे जनप्रिय बन जाथे। सरसती के सरसधार भलभल ले छंद रचना मा बोहाथे। इही पाय के कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, रहीम, जायसी, रसखान जइसन मन के छंद रचनामन हा लोकभाखा के रुप धरथे अउ मुअखरा सुरता आथे। छंद के सहारा पाके उपजे रचना मन मा लय अउ सुर के संगत मा गुरतुर गीत के भाव मन मस्तिस्क मा भर जाथे। छंद के साँचा मा ढ़ले, छंद विधान के आगी मा पके छंद रचना हा अभिव्यक्ति के सँउहे रंग ला जस के तस जनमानस मा बगराथे। छंद के प्रभाव हा अंतस मा परथे जेखर सेती छंद रचना हमर दिमाग मा तुरते बइठ जाथे अउ बरसों सरस जींयत रथे। हमर सोच अउ समझ ला नवा दिशा अउ दशा छंद रचना हा देथे। एखरे सेती आज घलाव दोहा, चौपाई, कुण्डली, रोला, सोरठा, आल्हा जइसन छंद मन हा साहित के सिरतो शोभा बने हावय। छंद रचना साहित के माई कोठी के बिजहा हरय। बिन बिजहा नवा फसल के उपज कभू संभव नइ हे। छंद रचना साहित मा पुरखा मन के अनमोल धरोहर जइसन हे।

"छंद के छ" का हे:-
             सरी संसार हा मानथे के छंद अनुशासन, संयम अउ लगन के बड़ मुसकुल उदिम हरय। बिन साधना के छंद रचना हा बहुते कठिन काम हे। छंद संयम अउ समरपन माँगथे। हिन्दी अउ संस्कृत साहित मा छंद शास्त्र के गियान देवइया किताब थोरकुन खोजे मा मिल जाही फेर हमर छत्तीसगढ़ी भाखा मा छंद गियान के अकाल हे। साहित जगत मा सबले पहिली छंद छत्तीसगढ़ के धरती ले आदिकवि वाल्मीकि जी हा लिखे रहीन फेर छत्तीसगढ़ी मा छंद लिखइया छत्तीसगढ़ी छंदकार मन के संखिया सिरिफ गिने-चुने हे जादा नइ हे। श्री जगन्नाथ प्रसाद"भानु",  बाबू रेवाराम, रघुवर दयाल, श्यामसुंदर बाजपेयी जइसन कवि मन के पाछू मा सिरिफ पं. सुंदरलाल शर्मा ले लेके कपिलनाथ कश्यप, जनकवि कोदूराम "दलित" जी के नाँव छत्तीसगढ़ी छंदकार के रुप मा इस्थापित रहीन। इँखर मन के बाद चालीस-पचास बछर तक छत्तीसगढ़ी छंद के अकाल सहीं आगे हे रहीस। इही अकाल ला सुकाल मा बदले खातिर हमर सुजानिक छंदगुरु श्री अरुण निगम जी हा छंद विधान के किताब "छंद के छ" के रचना करीन हे। श्री अरुण निगम जी हा जनकवि कोदूराम दलित जी के वो सपूत हरँय जउन मन हा अपन पुरखा के परमपरा ला आगू बढ़ाय बर छंद गियान के किताब लिखे के बड़ मुसकुत बुता ला साधीन। छत्तीसगढ़ी छंद साहित ला पोठ के असल भाव ले ए "छंद के छ" किताब ला रचे गे हावय।
                     जबले छत्तीसगढ़ राज बने हे अपन भाखा बोली मा लिखइया मन के पाटपूरा आगे हे। एमा जादा झन मन हा अनचेतहा अदर-कचर लिखत हें अउ चारो मुँड़ा छाए हें। फेर अइसन चेत-बिचेत लिखइया मन के रचना हा चरदिनिया बरोबर लागथे। बिन बियाकरन पालन के, बिन अनुशासन अउ बिन विधि-विधान के सिरजन हा छत्तीसगढ़ी साहित ला नसकान कर सकत हे। अवइया नवा पीढ़ी बर घलो एहा फलित नइ होवय। अइसन रचना मन हा हमर साहित ला कोनो नवा रद्दा नइ देखा सकँय। आज छत्तीसगढ़ी साहित ला पोठ करे के जरुरत हे, छंद बद्ध रचना के खच्चित आवश्यकता हे। नवा पीढ़ी मन बर आदर्श इस्थापित करे के बेरा हे ए समय हा। साहित हा बिन अनुशासन, बियाकरन अउ विधि-विधान के बिन कइसे पोठ होही? एहा संसो के विषय हे ए वर्तमान घड़ी मा। बिन कठिन साधना के सफलता हा भुसभुस लागथे। छंद  हा कठिन विषय हरय कहीके एला दुरिहा ले माथ नवाके घुँच देथे फेर छंद अतका मुसकुल नइ हे जतका दिखथे। हाँ फेर छंद के ए कठिन साधना ला सरल बनाय बर एक समरथ गुरु गियानी के सिखोना के खच्चित जरुरत परथे। इही बात ला धियान मा राखत श्री अरुण निगम जी हा छत्तीसगढ़ी साहित ला पोठ करे खातिर छत्तीसगढ़ मा नवा छंदकार तियार करे के जुमे उठाय हे। ए मन हा छत्तीसगढ़ी साहित के माई कोठी ला अपन छंद रचना ले सरलग पोठ करत हावँय। आज निगम जी हा छत्तीसगढ़ी साहित मा अपन छंद बद्ध रचना के सेती एक सुजान कवि के रुप मा भरपूरहा मान पावत हें। इँखरो बर बिन गुरु गियानी अउ कोनो छंद शास्त्र के बिन छंद के कठिन साधना बड़ मुसकुल काम रहीच। अपन मन के लगन, सीखे के ललक अउ अपन आत्मबिसवास ला एकमई करके निगम जी हा ए छंद साधना के कठिन कि म ला सरल बना डारीन। फेर ए बुता हा बिन गुरु अउ बिन छंद शास्त्र के थोरिक कठिन जरुर जनाइस फेर पुरखा के परमपरा ला आगू बढ़ाय के धुन हा ए बुता ला सरल बना डारीस। ना कोनो समरथ गियानी गुरु मिलय ना एको किताब छंद विधान के दिखय। जउन मिलय तेहा थोरउचा परय। बिन सुवारथ के गुरु गियानी खोजे मा नइ मिलय अउ जउन मिलय ते मन करा अतका समय नइ रहय के सरी विधि-विधान ला चेतलग सिखोय। निगम जी हा छंद के किताब खोजे बर बिलासपुर, रइपुर, दुरुग, भेलाई, के संगे-संग जबलपुर अउ लखनऊ के किताब दुकान मन के चक्कर लगा के जुच्छा लहुट आवँय। अइसन बिकट समय मा इन्टरनेट मा "ओपन बुक्स आँनलाईन" के माधियम ले छंद सिखाय के एकठन समरथ मंच मिलीस। ए मंच हा आज के समय मा सबले छंद सिखोय के सरेस्ठ मंच हावय। इही मंच ले सीखते-सीखत निगम जी हा छंद मा लिखना शुरु करीन। बछर 2015 के शुरुवात मा इँखर छंद बद्ध हिन्दी रचना के संग्रह "शब्द गठरिया बाँध" छपीस। ए किताब मा दू सौ ले जादा छंद बद्ध कविता के संग्रह हावय फेर छंद विधान के कोनो जानकारी नइ हे। हिन्दी छंद कविता संग्रह मा छंद विधान के कमी ला पूरा करें खातिर अपन भाखा छत्तीसगढ़ी छंद बद्ध रचना के संग्रह "छंद के छ" निकालीन। ए "छंद के छ" किताब मा पचास प्रकार के छत्तीसगढ़ी छंद बद्ध कविता अउ ओखर लिखे के नियम-धियम हा उदाहरन सहित हावय। ए किताब मा छत्तीसगढ़ी छंद रचना लिखे सिखे बर सरी विधि-विधान सरल ढ़ंग से बताय गे हावय।
                "छंद के छ" किताब हा अपन भाखा मा नवा छंद लिखइया मन बर अपन परमपरा अउ संस्कार ला सहीं ढ़ंग ले निभाय के साधन हरय।  आज नंदावत छंद रचना के परमपरा ला फेर लहुटा के लाने के जरुरत हे। छंद के ए मरत बर रुख ला फेर जियाँए के उदिम ए किताब हा करत हावय। लगभग 112 पेज के नान्हे ए किताब के  पहिली संस्करन सन् 2015 मा सिरिफ 200 प्रति ही छप पाए रहीच। छंद के प्रति रुचि जगइया ए किताब के माँग दिनों-दिन बाढ़ते जावत हे। "छंद के छ" किताब हा निमगा बियाकरन भर के किताब नो हे। एमा पचास किसम के छंद के विधि-विधान सहित सुग्घर सरल उदाहरन देके समझाय गे हावय। सबले छोटे सरल फेर बड़े मात मातरा गिनती के नियम-कानून ले ए किताब के शुरुवात होय हे। बिन मातरा गिनती के जानकारी के छंद लिखना सबले मुसकुल बुता हरय। ए किताब मा अक्छर, तुकांत, वरन,यति, गति, मातरा, मातरा गिने के नियम, डाँड़ अउ चरन, सम चरन, विसम चरन, गन के बारे मा गुने के गोठ सबले शुरु मा होय हे। "छंद के छ" के सबले बड़े बात एहे के एमा जतका भी उदाहरन हे वो कविता मन हा कहूँ ले माँगे-जाँचे उधारी के नो हे। ए किताब के जम्मों रचना उदाहरन सहित श्री अरुण निगम जी के खाँटी मौलिक रचना हरय। पहिली संस्करन मा छपे किताब आज कमती परगे। नवा छंद लिखइया, छंद सिखइया मन बर ए किताब हा वरदान बरोबर हे। छंद परेमी अउ छंद के आरो लेवइया गुनी सुजानिक मन बर "छंद के छ" हा उँखर खोज ला पूरा करथे। छत्तीसगढ़ी साहित अगाश मा पुन्नी के चंदा अस अँजोर बगरावत हे ए "छंद के छ" हा। निगम जी हा ए किताब ला लिख के छंद लिखे के पुरखा मन के परमपरा ला आगू बढ़ावत हें अउ छत्तीसगढ़ी साहित ला पोठ करत हें। आज ए किताब हा एक पाठशाला अउ एक आंदोलन के रुप धर के फूलत-फरत हावय। निगम जी सिरिफ "छंद के छ" लिख के अपन साधना ला पूरा कर लीन अइसे नइ हे बल्कि ए किताब ला एक इस्कूल के रुप देके एक आंदोलन के बिजहा बोए गेहे। बिन सुवारथ के छंद परमपरा ला आगू बढ़ाय खातिर तन,मन अउ धन ले संकलपित होके निगम जी हा अपन अराम करे के उमर मा कनिहा कँस के एमा भिड़ें हें।

"छंद के छ" एक आँदोलन:-
                "छंद के छ" आज सिरिफ छंद शास्त्र के गियान देवइया किताब भर नो हे। एहा आज छत्तीसगढ़ी साहित मा छंद के अकाल ला मेटे बर एक आँदोलन, एक अभियान के रुप धरके एक इस्कूल कस चलत हावय। आज जमाना सोशल मीडिया के हावय अउ छत्तीसगढ़ के नवा पीढ़ी के कवि मन हा इहाँ बड़ लिखत हें व्हाट्सएप मा फेर गुणवत्ता के कमी हे।  नवा पीढ़ी के रचनाकार मन ला सही दिशा मा सहीं रचना लिखे ला सिखाए बर व्हाट्सएप मा "छंद के छ" ग्रुप बनाए गीस। एखर सदुपयोग करत "छंद के छ" ला सरी छत्तीसगढ़ मा बगराय के बुता दू साल ले सरलग चलत हावय। व्हाट्सएप के माधियम ले "छंद के छ" ग्रुप बनाके सुजानिक कवि छंद गियानी श्री अरुण निगम जी हा छंद के कक्षा चलावत हें। मोबाईल के अउ आने-ताने बने व्हाट्सएप ग्रुप मन ले सबले अलग हटके ए "छंद के छ" ग्रुप हावय। ए "छंद के छ" व्हाटसएप ग्रुप मा छत्तीसगढ़ी छंद के सिखइया-लिखइया छंद साधक मन हा सरी छत्तीसगढ़ के कोनहा-कोनहा ले जुड़ के छंद साधना करत हावँय। छंद साधना बर जउन लगन, महिनत अउ समरपन चाही वो सब गुन ए ग्रुप के छंद साधक मन मा मिलथें। व्हाट्सएप के माधियम ले संचालित ए "छंद के छ" ग्रुप हा एक इस्कूल बरोबर चलथे। रोज हाजिरी के संगे-संग  अभ्यास अउ गृहकार्य ला अपन हिसाब ले चौबीस घंटा के भीतर मा पूरा करे ला होथे। इहाँ उल्टा-सीधा अउ अनाप-शनाप मेसेज भेजे के मनाही हावय। छंद के अभ्यास ले संबंधित सवाल-जवाब करे के छूट हे। संझा, मँझनिया, रतिहा के जय-जोहार, कोनो प्रकार के बधाई संदेश, आडियो-विडियो, चित्र अउ पोस्टर भेजे के मनाही हे।  ए ग्रुप ला खाली सिखे भर बर बनाय गे हावय जइसे घर के एक कमरा पूजा खोली ला साफ सुथरा अउ सिरिफ पूजा-पाठ बर रखे जाथे। सिरिफ अउ सिरिफ छंद के गोठ बात,छत्तीसगढ़ी साहित के विकास के बात ए "छंद के छ" ग्रुप मा करे जाथे। सोलाआना अपन छत्तीसगढ़ी भाखा के प्रयोग इहाँ सिखे-सिखाय मा करे जाथे। "छंद के छ" इस्कूल मा उमर के सम्मान तो होथेच फेर साधक के समरपन, लगन अउ ओखर रचना हा वोला उचित मान देवाथे। साधक के रचना हा साधक ला सुजान अउ सियान बनाथे इहाँ। छंद रचना सिखे-लिखे बर बियाकरन के गियान, सहीं शब्द चयन, लय, गति, वरन,चरन अउ तुकांत के धियान राखे ला परथे। गीत, कविता ला मीटर या मापनी मा लिखना,गजल ला बहर मा लिखना एक प्रकार के छंद विधान हरय। कोनो भी रचना ला बिन बंधना के कालजयी होना बड़ मुसकुल हे। पतंग घलाव हा अपन डोरी के बंधना मा ही अगाश ला नापथे, बिन बंधना के एती-तेती भटक जाथे। सारथक अउ समरथ होय बर सबला बंधना ला स्वीकार करेच ला परथे। 
                   छंद सिखे-लिखे बर हमर छत्तीसगढ़ मा ना कोनो प्रकार के इस्कूल हे ना कोनो संस्था हावय। ना कोनो गुरु गियानी हे जौन ला बिन सुवारथ के दुसर ला सिखाय के ललक हावय। "छंद के छ" व्हाट्सएप ग्रुप ले छंद सीखे के इही समसिया के समाधान बिन सुवारथ के फोकटे-फोकट मा हमर छंदगुरु श्री निगम जी हा करत हावँय। आज हर क्षेत्र मा मठाधीश के चलन हावय। साहित के क्षेत्र हा घलो ए बिमारी ले अछूता नइ हे। बड़े अउ नामी कवि मन हा नवा लिखइया मन ला भाव नइ दँय। नवा कवि मन ला हाथ धरके सिखैया गिनती के मिलहीं। बजार मा कविता सीखे बर किताब नइ मिलय अउ छंद सीखे बर जौन किताब मिलही वो हा अपर्याप्त हे। फेर किताब पढ़के मनखे गियानी हो जातिन ता इस्कूल, कालेज के का जरुरत रहितिस। साधना बर समरपन घातेच जरुरी होथे। समय सबला एकेच बरोबर मिलथे जौन हा सबले कीमती जीनिस हरय। गियान बर अभ्यास अउ साधना जरुरी होथे। इही सार गोठ "छंद के छ" के अधार हरय।
                     अपन पिताजी श्री कोदूराम "दलित" जी के पहिली कुण्डली संग्रह "सियानी गोठ" बछर 1967 के भूमिका ला पढ़के आज "छंद के छ" के सूत्रपात होय हावय। अपन किताब के भूमिका मा दलित जी संसो के स्वर मा लिखे रहीन के "ए छत्तीसगढ़ी बोली मा खास करके छंद बद्ध रचना के अकाल असन हावय, इहाँ के कवि मन ला चाही के ए अभाव के पूर्ति अपन छंद बद्ध सिरजन ले करँय। स्थाई छंद लिखे डहर जासती धियान देवँय। हमर ए बोली पूर्वी हिन्दी कहे जाथे। ए हर राष्ट्रभाषा हिन्दी ला अड़बड़ सहयोग दे सकथे। इही सोच के महूँ हा छत्तीसगढ़ी मा रचना करे हँव।" अपन परमपूज्य पिताजी के विचार ला पूरा करे के एक छोटकुन उदिम हमर छंदविद् गुरु गियानी श्री अरुण निगम जी हा उठाँय हवँय। चार-पाँच बछर पहिली निगम जी हा छंद सीखे के कोशिश शुरु करीन। छंद के विधि-विधान ला विधिवत जाने बर ए मन ला एको किताब इँखर जरुरत के हिसाब ले खोजे नइ मिलीच। कोनो समरथ इस्थानीय छंद गियानी गुरु घलाव एको नइ मिलीस। अइसन विषम परिस्थति मा घलाव निगम जी हा छंद सीखे के आस ला नइ छोड़ीन। एती-वोती कोनो भी कोती ले छंद सीखे के प्रयास मा इंटरनेट अउ मोबाईल ले आज घलाव निगम जी सरलग छंद सिखत अउ सिखात हावय। छंद सीखे के अपन इही अनुभव , गियान, साधन अउ साधना ला नवा सिखइया-लिखइया मन संग बिन सुवारथ के साझा करे खातिर व्हाट्सएप मा "छंद के छ" ग्रुप बनाय हावँय।
                 "छंद के छ कक्षा-एक" के शुरुवात 9 मई 2016 मा अकती तिहार के दिन छत्तीसगढ़ी छंद बाउग के रुप मा करीन। ए दिन हमर छत्तीसगढ़ मा बिजहा बोए के बड़ सुग्घर परमपरा हावय। इही परमपरा के पालन करत "छंद के छ" के नेव धराइस हे। "छंद के छ कक्षा-दू" हा 28 सितंबर 2016 जनकवि कोदूराम दलित जी के पुण्यतिथि मा शुरु होइस। "छन्द के छ कक्षा-तीन" ला जनवरी 2017 मा शुरु करे गीस हे। आदरनीय निगम जी ला मिलाके कुल बीस झन नवा छंद साधक एक बछर मा तियार होगे हें जौन मन हा निरदोस विधान सम्मत छंद रचना करत हावँय। मँय भागमानी हँव के महूँ हा "छंद के छ कक्षा-दू"
के छंद साधक हरँव। मोला गरब हे के मँय छंदगुरु निगम जी के "छंद के छ" आँदोलन मा एकठन नान्हें सिपाही के रुप मा अपन समरथ हिसाब योगदान करत हँव। "छंद के छ कक्षा-चार" अकती तिहार 2017 मा शुरु करे गे हावय अउ "छंद के छ कक्षा-पाँच"  ला कुवाँर नवरात्र मा 28 सितंबर 2017 के दिन शुरु करे गेहे। "छंद के छ" के एक कक्षा मा सिरिफ दस साधक रखे जाथे ताकि उँखर जम्मों रचना उपर बारिकी ले धियान दिए जा सकय। छंद साधक मन के रचना मा लिंग, वचन, काल संबंधी दोष निवारन के संगे-संग सहीं शब्द चयन अउ उत्तम तुकांत उपर जोर दे जाथे। इहाँ छंद सिखे के शुरुवात वरन अउ शब्द के मातरा गिनती ले होथे। मातरा, डाँड़, चरन, यति,गति अउ तुक मिलान के गियान सरल से सरल ढ़ंग ले बताय जाथे। एक कक्षा के सफल साधक हा दुसर कक्षा के प्रशिक्षक बनके नवा छंदकार गढ़े के पुनीत काज मा भागीदार बनथें। "छंद के छ" के एक प्रमुख उद्देश्य सीखना अउ सीखाना घलाव हरय। इही पाए के जम्मों सफल साधक मन के भूमिका नवा कक्षा बर प्रशिक्षक के हो जाथे। प्रशिक्षक के रुप मा घलाव इँखर मन के दुसर छंद के अभ्यास सरलग चलत रहीथे। सीखे के कोनो उमर नइ होय, मन मा सच्चा लगन अउ महिनत हा सफल बनाथे। इहाँ कोनो गुरु चेला के नाता नइ रइय फेर योग्यता ला सम्मान देके बेवसथा अपने आप हावय। सबो साधक मन ला आपस मा सिखे-सिखाए के मूलभूत नियम के पालन करते करत अपन अर्जित गियान ला इहाँ साझा करना होथे। "छंद के छ" हा सिखे अउ सिखाए के सिद्धांत मा काम करत हे। एक के चार, चार के सोला, सोला के चौंसठ.......अउ अइसने नवा साधक मन के संखिया सरलग बाढ़त जाही अउ छत्तीसगढ़ी रचना कोठी पोठाही। "छंद के छ" के ए उदिम हा बिन सुवारथ के,बिन मजूरी के चलत हावय। धन बाँटे मा घटथे फेर गियान अउ मया बाँटे मा बढ़थे। 
                एक बछर मा लगभग बीस छंदकार "छंद के छ" के माधियम ले तियार होगे हें जौन मन हा  पच्चीस ले तीस प्रकार के शुद्ध छंद रचना करत हें। अवइया दस-पंदरा बछर मा "छंद के छ" हा छत्तीसगढ़ी भाखा ला पोठ करे के सबले बड़े आँदोलन के रुप धर लेही। छंद लिखइया मन के संखिया जोरदरहा बाढ़ते जाही अउ छंद बद्ध रचना के पूरा आ जाही। जन मानस मा फेर एक बेर अपन भाखा के दोहा, चौपाई, कुण्डली, आल्हा के गुरतुर गीत अउ कविता पढ़े सुने ला मिलही। आज साहित के इस्तर हा गिरते जावत हे। खासकर के पद्य मा छंद के जघा बिन कोनो उद्देश्य के सोज्झे चुटकुलाबाजी, हँसी मजाक, ठट्ठा के हल्का-फुल्का गोठ होवत हे।
                "छंद के छ" कक्षा-एक, दू, तीन के साधक मन हा लिखने मा गति पकड़ लीन ता इँखर उपलब्धि ला साझा अउ आपसी चर्चा करे बर "छंद के छ-खुला मंच" नाँव से एक अलग ग्रुप बनाय गीस हे। छंद के छ" सबले खास बात हे छंद ला छंद के पारंपरिक स्वर मा प्रस्तुत करे बर सिखाए के उदिम करना। हर छंद के अपन अलग-अलग लय अउ धुन हे जेखर ले ओखर पहिचान हावय। इहाँ छंद लिखे-सिखे के संगे-संग छंद ला ओखर प्रचलित धुन मा सस्वर प्रस्तुतिकरन घलाव व्हाट्सएप के माधियम ले इहाँ सिखोय जाथे। होली तिहार के दिन ले हर शनिच्चर-इतवार के मोबाईल मा आनलाईन आँडियो ले छंद बद्ध कवि कोष्ठी  चलथे जेमा सुर के उतार चढ़ाव ला जानकार मन हा बहुते बढ़िया ढ़ंग ले बताथें। "छंद के छ" कवि गोष्ठी मंच मा प्रस्तुति ले साधक के प्रतिभा के चहुँमुखी विकास होथे। इहाँ साधक के हर प्रस्तुति के बड़ कड़ा समीक्छा होथे अउ मंच संचालन के जिमेदारी घलाव मिलथे। सरेस्ठ साहित नंदावत हावय ता अइसन बेरा मा छंद के फेर लहुट आना बड़ सुखदाई होवत हे।
                   "छंद के छ" एक परवार बरोबर बेवहार करत छत्तीसगढ़ी साहित सिरजन मा आज भागीदार बनत हावँय। आज "छंद के छ" परवार मा डेढ़-दू बछर मा छत्तीसगढ़ के दुरिहा-दुरिहा के छंद साधक मन आपस मा जुड़े हावँय। कोरबा, कवर्धा,  खरसिया, रायगढ़, सारंगढ़, जाँजगीर, मरवाही, मस्तुरी, राजनांदगांव, बलौदा बजार, भाटापारा, नवागढ़, मुँगेली, बेमेतरा, बिलासपुर, रायपुर, दुरुग, भेलाई अंचल के छोटे-बड़े गाँव-गवँई अउ शहर के नवा-नवा छंद साधक मन हा "छंद के छ" परवार के सदस्य के रुप मा एकमई हावँय। "छंद के छ" अउ निगम जी के बिन सुवारथ के कलेचुप छत्तीसगढ़ी छंद सिरजन उदिम ला देख छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग हा अपन आर्थिक सहयोग बर अपन हाथ बढ़ाइन। राज्य स्तरीय छंदमय कवि गोष्ठी भेलाई मा 9 जून 2017 के छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के आर्थिक सहयोग ले पहिली बेर खुल्ला जघा मा होइस। व्हाट्सएप मा आनलाईन कवि गोष्ठी मा सुर, लय सिखइया जम्मों छंद साधक मा भेलाई मा जुरिया के छंद-रस के बरखा करीन। छत्तीसगढ़ी छंद के नवा जनम ला देख के छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के पधारे माई पहुना अध्यक्ष अउ सचिव मन गदगद होगे अउ भविष्य मा तन,मन अउ धन ले अउ सहयोग दे के बात कहीन। एखर दुसर कड़ी बलौदा बजार जिला के हथबंद गाँव मा एक वरिष्ठ छंद साधक के माधियम ले राज्य स्तरीय छंदमय कवि-गोष्ठी 12 नवंबर 2017 समपन्न होइस। ए दू कार्यक्रम हा बहुते सफल रहीस। हथबंद के कार्यक्रम मा महूँ हा एक छंद साधक के रुप शामिल होके अपन छंद रचना के पाठ करे रहेंव। एखर ले "छंद के छ" परवार मा बड़ उछाह भरगे हे अउ अइसन कार्यक्रम अवइया समय मा दुसर-दुसर जघा मा आयोजित करे के योजना हावय। एमा सीखे हुए छंद के अपन मौलिक रचना के सस्वर पाठ छंदप्रेमी जनमानस के बीच मा प्रस्तुत करे के सौभाग्य पाके अपन आप ला भागमानी मानथें। इही कड़ी मा अवइया 13 मई 2018 के सिमगा गा "छंद के छ" के दूसरइया वर्षगाँठ मनाय बर जम्मों छंद साधक मन हा जुरियाँही।

"छंद के छ के उद्देश्य:-
                         "छंद के छ " के सबले बड़े उद्देश्य अपन भाखा छत्तीसगढ़ी साहित ला पोठ करना हावय। "छंद के छ" के एक अउ उद्देश्य आज के समय मा बाढ़त तकनीक के सहारा ले छत्तीसगढ़ी साहित मा छंद रचना के बढ़ोना करना हे। अपन भाखा अपन बोली अउ अपन पुरखा के परमपरा के मान करत अपन साहित ला पोठ करे के परम उद्देश्य हे। "छंद के छ" मा  हाले के ए गियान फोकट मा बड़ असानी ले उपलब्ध कराए जात हे एखर सेती कतको साधक मन एला प्राथमिकता नइ दँय अउ जौन साधक एला प्राथमिकता देवत हें उँखर लेखनी ले कालजयी छंद रचना निकलत हे। प्राथमिकता देना नइ देना एतो साधक के मन उपर हे फेर "छंद के छ" बिन सुवारथ के छंद सिखोवत हे अउ सिखोत रहीच। छंद के प्रस्तुति मा आत्मा के सुख होथे काबर के छंद अपन आप ला सुख दे खातिर लिखे जाथे। जौन रचना दुसर मन ला आनंद दे बर लिखे जाथे वोमा ताली के गूँज जरुर हो सकथे फेर आत्मा के सुख नइ रहय।
           बियाकरन के गियान, रचना मा सारगर्भित गोठ, साहित के विधि-विधान के पालन सहीं ढ़ंग ले सिखाना। इहाँ सिरिफ दोहा, रोला , चौपाई, कुण्डली जइसे छंद के अभ्यास करवाना भर उद्देश्य नो हे। जब कोनो रचनाकार ला बियाकरन के गियान मिलथे ता वोहा अलवा-जलवा अउ अदकचरा कभू नइ लिख सकय, जब कभू लिखही ता साहित विधान के पालन करही, शुद्ध-निरदोस , सारगर्भित बात लिखही। एखर ले इँखर रचना मन हा कालजयी बनहीं। रातों-रात कोनो साहितकार नइ बन जाय, कई बछर के साधना कलेचुप करे ला परथे। जिनगी के अनुभव रचनाकार के रचना ला परिपक्व बनाथे तभे कहूँ जाके अइसन रचना मन एक साहितकार के पहिचान बनाथें अउ रचना के संगे-संग रचनाकार ला अमर बनाथे।
                             ए साल नवा बछर के शुभ मुहूर्त मा "छंद के छ" के कक्षा ~छै: हा शुरु होगे हे। अब छंद बद्ध रचना करइया साधक मन के संखिया सरलग बाढ़त जावत हे। हमर वरिष्ठ अउ सुजानिक साधक श्री चोवाराम "बादल" जी अठतालीस प्रकार के छंद रचना के किताब "छंद बिरवा" हम सब के बीच आगे हे। ए किताब के विधिवत विमोचन छठवाँ छत्तीसगढ़ राजभाषा प्रांतीय सम्मेलन बेमेतरा मा होइस हे। ए छंद परवार के एक अउ सुग्घर सुजानिक अउ गुनी छंदकार श्री रमेश सिंह चौहान जी दू बछर मा दू ठन छंदबद्ध रचना के किताब "दोहा के रंग" अउ "छंद चालीसा" हमर हाथ मा आये हे। ए प्रकार "छंद के छ" हा अपन छत्तीसगढ़ी साहित्य ला पोठ करे के प्रयास मा सफल होवत दिखत हे।
                 आवव थोरिक नवा छंद साधक मन के कुछ रचना मन ला देखव अउ ऊँखर सोच-समझ ला परखव। सबले पहिली  हमर आदर्श गुरु गियानी श्री अरुण कुमार निगम जी के छंद रचना:-
1~(शंकर छंद)
देख बिदेसी चाल-चलन ला, अँधमँधाये प्रान,
हमर देस के परम्परा के, कोन करही मान।
छोड़-छाँड़ के रिस्ता-नाता, जायँ दूसर देस,
सीधा-सादा पहिनावा तज, तुरत बदलयँ भेस।
2~(सोरठा छंद)
तरि नरि नाना गाँय, नान नान नोनी मन,
सबके मन हरसायँ, सुआ-गीत मा नाच के।
सुटुर-सुटुर दिन रेंग, जुगुर-जुगुर दियना जरिस,
आज जुआ के नेंग, जग्गू घर मा फड़ जमिस।

छंद साधक मन के रचना----------
1~शकुन्तला शर्मा- विष्णु पद छंद:-
    एक एक दिन हीरा जैसे, पल पल मा कटही,
    बात मान ले जीबे कैसे, जम छिन छिन बढ़ही।
    अभी समय हे तोर हाथ मा, सदाचार अपना,
    वोही धरसा जाही सुख मा, नो हय रे सपना।
     सुख दुख हर तो घाम-छाँव ए, नाचत गावत हे,
     नीत नेम हर कर्म दाँव ए, हर पल जावत हे।
     मनखे जनम बहुत दुर्लभ हे, सज्जन मन कहिथें,
     सोच रहे मा सबो सुलभ हे, सरल सहज रहिथें।

2~सूर्यकान्त गुप्ता- हरिगीतिका छंद:-
  चल छोड़ गा सब चोचला, बदली हमूँ अब सोच ला।
   हर जात के सुन बात ला, मनभेद के हर मोच ला।।
   बहिथे जिहाँ रग मा लहू, तुम भेद का कर पाय हौ।
   खेल-खेल के जनभावना, सुख राज के हथियाय हौ।।

3~रमेश सिंह चौहान- दोहा छंद (जनउला)
१-हाड़ा गोड़ा हे नहीं, अँगुरी बिन हे बाँह।
   पोटारय ओ देंह ला, जानव संगी काँह।।
२- कउवा कस करिया हवय, ढेरा आटे डोर।
   फुदक-फुदक के पीठ ला, खेलय कोरे कोर।।
३-पैरा पिकरी रुप के, कई-कई हे रंग।
  गरमी अउ बरसात मा, रहिथे मनखे संग।।
४-चारा चरय न खाय कुछु, पीथे भर ओ चूँस।
  करिया झाड़ी मा रहय, कोरी खइखा ठूँस।।

4~हेमलाल साहू-चौपैया छंद:-
   छोड़व मन माया, माटी काया, झन करहू अभिमाना।
   चारे दिन जिनगी, सबला संगी, एक जघा हे जाना।।
   संतोष रखै सुख, मिलै नहीं दुख, अपन करम के भागे।  
   मन कतको जागे, कतको भागे, काल सबो ले आगे।।
   तज जात पात ला, मान बात ला, आगू बढ़ जा भाई।
   सब संग जोर के, गाँव खोर के, रद्दा बने बनाई।।
   आवौ सब पढ़बो, आगू बढ़बो, जिनगी सफल बनाबो।
   सब गाँव म जाबो, अलख जगाबो, शिक्षा ला बगराबो।।

5~चोवाराम वर्मा "बादल"-बरवै छंद:-
     सुन लव संगी द्वापर, जुग के बात।
     अश्विन महिना पावन, पुन्नी रात।
     राधा संग कन्हैया, नाचै रास।
     दसों दिसा मा बगरे, रहय उजास।
     मुरली ला कान्हा जब, झूम बजाय,
     राधा गोपी ग्वाला, सब मोंकाय।
     झूमै डार कदम के, नाचै मोर,
     जमुना के हिरदे मा, उठै हिलोर।
     कृष्ण चंद्र के मुख ला, देख चकोर,
     मिलकी नइ मारय हो, भाव बिभोर।
     रुखुवा नाचैं धरके, मानुस रुप,
     अमृत झरै चंदा ले, आप सरूप।
     उही लगन शुभ पावन, तिथि हे आज।
     रात जाग पूजा के, करबो काज।

6~वसन्ती वर्मा-दुर्मिल सवैया छंद:-
बिहना उठके अब धान लुये बर जावत हे पकलू कमिया।
पटकू गमछा कुरता करिया पहिरे पनही धरके हसिया।।
धरसा तिर रेंगत जावत वोहर गावत गीत लगे बढ़िया।
टुकनी चरिहा धर काँवर मा पकलू पहुँचे बहरा सुतिया।।

7~आशा देशमुख-किरीट सवैया छंद:-
रोय किसान धरे मुड़ ला अब नीर बिना सब खेत सुखावय।
का विधना अपराध करे हन ये दुख काबर हे नहि जावय।।
थोकिन मोर घलो सुनले बिनती महराज कहाँ सुख हावय।
जोड़य हाँथ नवावय माथ बता कइसे जग दु:ख सुनावय।।

8~दिलीप कुमार वर्मा- अमृत ध्वनि छंद:-
नरवा नदिया तीर मा, बर पीपर के छाँव।
बसे हवय गा नान कुन, सुग्घर लागे गाँव।
सुग्घर लागे, गाँव देख ले, आके संगी।
मया पिरीत के, छाँव सबो बर,.नइ हे तंगी।
नइ हे पक्का, इहाँ सबो घर, छांही  परवा।
हिलमिल सब झन, रहे तीर मा, नदिया नरवा।

9~कन्हैया साहू "अमित" - सरसी छन्द :-
   बिकट बरतिया बिदबिद बाजँय, चाल चलय बेढ़ंग।
   बिरबिट करिया भुरुवा सादा, कोनो हे छतरंग।।
   कोनो उघरा उखरा उज्जट, उदबिदहा उतलंग।
   उहँदा उरभट कुछु नइ घेपँय, उछला उपर उमंग।
   रोंठ पोठ सनपटवा पातर, कोनो चाकर लाम।।
   नकटा बुचुवा रटहा पकला, नेंग नेंगहा नाम।
   खरभुसरा खसुआहा खरतर, खसर-खसर खजुवाय।
   चिटहा चिथरा चिपरा छेछन, चुन्दी हा छरियाय।।
   जबर जोजवा जकला जकहा, जघा-जघा जुरियाय।
   जोग जोगनी जोगी जोंही, बने बराती जाय।।
   भुतहा भकला भँगी भँगेड़ी, भक्कम भइ भकवाय।
   भसरभोंग भलभलहा भइगे, भदभिदहा भदराय।।
   भकर भोकवा भिरहा भदहा, भूत भसड़हा भरमार।
   भीम भकुर्रा भैरव भोला, भंडारी भरतार।।
   मौज मगन मनमाने मानय, जौंहर उधम मचाय।
   चिथँय कोकमँय हुदरँय हुरमत, तनातनी तनियाय।।
   आसुतोस तैं औघड़दानी, अद्भूत तोर बिहाव।   अजर अमर अविनासी औघड़, अड़हा अमित हियाव।।

10~गजानंद पात्रे "सत्यबोध"-ताटंक छंद:-
नाम कमाले जग मा संगी, पल भर के जिनगानी हे।
छोड़ पिंजरा पंछी उड़ जाही, करम धरम चिनहारी हे।।
सुख के सब्बो संगी साथी, दुख मा भइया भागे हे।
सुख दुख मा जे आघू आथे, असली हितवा लागे हे।।
मुट्ठी बाँधे आना सबके, हाथ पसारे जाना हे।
जीयत भरके संगी साथी, मरे तहाँ बेगाना हे।।
काया माटी माटी मिलही, पथरा पड़ही छाती जी।
बइठ दुवारी छिन भर रोही, बुझही जिनगी बाती जी।।
भाखा बोली मीठा रखले, दया मया संगवारी जी।
सुमता के तैं फूल खिलाले, महका ले फुलवारी जी।।

11~अतनु जोगी-रुपमाला छंद:-
छंद गाथा गीत गाबो, राग पाही पाग।
रुपमाला जान जाबो, जाग जाही भाग।।
छंद रचना बाढ़ जाही, मोर अइसन गोठ।
देस जानै मान देवै, राजभाषा पोठ।।
छाँट साहित लेख लिखबो, पाठ बनही जेन।
माँग करहीं लोग लइका, जेन पाही तेन।।
रात कारी बीत जाही, आज लेखक जीत।
हाथ धरके संग चलबे, बाँट सबला प्रीत।।

12~सुखन जोगी-छप्पय छंद:-
चरिहा टुकनी साज, बाँस ला ले जी कच्चा,
सुनके बँसरी तान, होय खुस लइका बच्चा।
छट्ठी बरही होय, होय जी माटी काठी,
आथे सब मा काम, बाँस के बनथे लाठी।
बाँस म छँउनी छाव जी, बाँसे बल्ली गाड़ के,
सूपा झँउहा ले बना, येला तैंहा फाड़ के।।

13~जितेन्द्र वर्मा "खैरझिटिया"-जयकारी छंद(जनउला):-
जड़काला मा जे मन भाय। गरमी घरी अबड़ रोवाय।
बरसा भर जे फिरे लुकाय। जल्दी बता चीज का आय।।१
आघू मा बइठे रोवाय। नइ खाये जी तभो खवाय।
कान धरे अउ अबड़ घुमाय। काम होय अउ छोड़ भगाय।।१
घर भीतर हे सीटी मार। बइठे धरे भात अउ दार।
कोनो नइ ओला खिसियाय। हेर हेर के सब झन खाय।।३
हावय जेखर दू ठन गोड़। बइठे बबा पालथी मोड़।
गोड़ तिरइयाँ के हे चार। भागे जेहा खारे खार।।४

14~मनीराम साहू "मितान"-कुण्डलियाँ छंद:-
नोनी मारे कोंख के, करथच बाबू जाप।
कतको करले तैं जतन, नइ उतरय जी पाप।
नइ उतरय जी पाप, नरक तैं सोज्झे जाबे।
हो जाबे तैं नास, बहू नइ खोजे पाबे।
बिनती करय 'मितान', सफल कर मनखे जोनी।
बाँचय बन रखवार, मरय झन कोनो नोनी।

15~अजय 'अमृतांशु'-कुकुभ छंद:-
रक्तदान करके संगी हो, ककरो जिनगी ल बचावव,
दान हवय ये सबले बढ़के, बात सबो जघा बतावव।
रक्तदान ईश्वर के पूजा, बात सबो झन जी जानव,
येहू आय भक्ति के रद्दा, जेला तुमन पहिचानव।
पइसा मा नइ मिलय खून जब, बखत परे म चेत आथे,
अधर मा जिनगी लटके रहिथे, तभे बात ल समझ पाथे।
खून नइ बनय लेब म संगी, मोल ल येकर पहिचानव,
मनखे के शरीर मा बनथे, बात ला सिरतोन जानव।
येकर ले आथे कमजोरी, अइसन भरम ल झन पालव,
खून साफ करथे रक्तदान, ये बात मन म बइठालव।

16~मोहन लाल वर्मा-छप्पय छंद:-
सुक्खा परगे फेर, देख तो तरिया नदिया,
कइसन हाहाकार, मचे हे सरी दुनिया।
बिन पानी संसार, फेर गा चलही कइसे,
तड़पत रइही जीव, सबो गा मछरी जइसे।
होही पानी के बिना, सुन्ना ये संसार गा,
जानव एकर मोल ला, पानी जग आधार गा।

17~सुखदेवसिंह अहिलेश्वर-मत्तगयंद सवैया
सावन के महिना बड़ पावन, काँवरिया बन पुन्न कमाबो,
फोंक नदी म नहावत खोरत, मंदिर जाय के फूल चढ़ाबो।
काँवर मा जल बोह के आवत, जावत शंकर के गुन गाबो,
देत असीस सदा शिवशंकर, हाँथ लमावत माँगत आबो।

18~ज्ञानुदास मानिकपुरी-सार छंद:-
धन दौलत अउ माल खजाना, छोड़ एक दिन जाना।
कंचन काया माटी होही, काबर जी इतराना।।
ये दुनिया ला जानौ संगी, दू दिन अपन ठिकाना।
सब संग रहौ मिलजुल संगी, रिस्ता नता निभाना।।
बैर कपट ला दुश्मन जानौ, गीत मया के गाना।
मुट्ठी बाँधे आय जगत मा, हाथ पसारे जाना।।
सुग्घर मनखे तन ला पाके, जिनगी सफल बनाना।
गुरतुर बोल मया के, हिरदे अपन बसाना।।
दया-मया अउ करम-धरम हा, सबले बड़े खजाना।
सत्य प्रेम के पाठ पढ़ौ अउ, सबला हवै पढ़ाना।।

19~दुर्गाशंकर ईजारदार-मत्तगयंद सवैया:-
पाकर के सुन मानुस के तन काबर तैं कति सोचत लाला,
नाम कमा सुन रे मन मूरख काबर काम करे अति काला।
राम जपे नइ तैं हर काबर डार रखे हस रे मुँह ताला,
जावत तोर हिसाब करे यम देखत दौड़त मारत भाला।

20~रश्मि रामेश्वर गुप्ता-कुण्डलिया छंद:-
पानी बड़ अनमोल हे, जतन करव भरपूर।
चिटकन पानी राखिहौ,मन मा घलव जरूर।
मन में घलव जरूर, राखिलौ अमरित पानी।
का के गरब गुमान, अबड़ छोटे जिनगानी।
चिंता सबके एक, बहुत होगे मनमानी।
हरदम रखव सकल, बहे झन फोकट पानी।

21~हेमन्त मानिकपुरी-दोहा छंद
अइलाये तन मा जगे, मनहर प्रीत अनंत।
सूट  बूट  पहिरे  बने, आगे ऋतु बसंत।।
डारा मन उलहोत हे, हरियर  हरियर  पान।
बुढ़वा बुढ़वा  रूख मन,होवत हवे जवान।।
मउहा के  खुश्बू  धरे , अपने  ओली  झार।
पगली  पुरवइया चले,लड़भड़ लड़भर खार।।
जंगल जंगल सुरमई, जंगल जंगल प्रीत।
आमा मउरे डार मा,कोइली गावय गीत।।
लाली  साफा  बाँध के, परसा ठाढ़े  पार।
कटही सेमरा देख तो,फूले हवय अपार।।
सर सर सर सर उड़त हे,जइसे उड़य गरेर।
रस चुहके बर  आय  हें, टेसू फूल मछेर।।
आनी बानी फूल खिले,महर महर ममहाय।
जैसे धरती मा सरग , चारो  मुड़ा  अमाय।।

22~संतोष फरिकार- सरसी छंद
धान लुवे के बाद देख ले,सुन्ना होगे खेत।
ओन्हारी बोये बर कखरो,नइहे एको चेत।
गाय गरू सब छेल्ला घूमय,संसो करे किसान।
हात हूत दिन रात करत मा,लटपट होइस धान।
लाख लाखड़ी चना गहूँ बिन,सुन्ना खेती खार।
अरसी सरसो कायउपजही,सोचय बइठे हार।
ढ़ील्ला हवे गाँव मा एसो, राउत कहाँ लगाय।
मिलके सब किसान हा जम्मो, गरवा अपन चराय।

22~मोहन कुमार निषाद-सार छंद
देवव बेटी ला दुलार जी , बन्द करव ये हत्या ।
जीयन दव अब बेटी ला गा , राखव मनमा सत्या ।
बेटी होही आज तभे जी ,  बहू अपन बर पाबे ।
बेटा कस जी मान देय ले , जग मा नाम कमाबे ।
करव भेद झन जी दूनो मा , एक बरोबर जानव ।
बेटी लक्ष्मी रूप आय जी , बहू घलो ला मानव ।
छोड़व लालच के रद्धा जी , झन दहेज ला लेहव ।
बन्द होय गा अइसन कुप्रथा , शिक्षा अइसे देहव ।
मारव झन कोनो बेटी ला , जगमा गा तब आही ।
हासत खेलत घर अँगना मा , जिनगी अपन बिताही ।
होवय बंद भ्रूण के हत्या , परन सबे जी ठानव ।
बेटी बिन जिनगी हे सुन्ना , बेटा के सम मानव ।।

23~ बलराम चंद्राकर-लावणी छंद
नान नान नोनी बाबू हम, खेलन बड़ बाँटी भौंरा।
धूर्रा माटी नइ चिनहन जी, जुरियावन चौंरा चौंरा।।
धान मिसावय ब्यारा ब्यारा,दउड़ दउड़ बइठन बेलन।
चइघन खरही पैंरावट मा, उलन उलन अब्बड़ खेलन ।।
खेलन डंडा अउ पचरंगा, पेड़ पेड़ लटकन झूलन।
रेस टीप मा दाँव चुकावन,झटकन कोनो ला छूलन।।
खेल कबड्डी मा छोलावय, कभू कोहनी अउ माड़ी।
सीला बीने बर जावन जी , चघ के हम बइला गाड़ी।।
तॅइर तॅइर तरिया मा संगी, सोर मचावन हम अड़बड़।
पानी मतलावत हे कहिके, होय बिकट कड़बड़ कड़बड़।।
पच जावय सब खेल खेल मा, जब पावन जी तब खावन।
सुरता अब्भो हे ननपन के, जइसे हम लइका हावन। ।

24~जगदीश "हीरा" साहू- सरसी छंद
मनखे अच ता मनखे कस रह, झन उलझा तँय काम।
अपन जनम ला सफल बनाले, लेवत गा प्रभु नाम।।
कहना मान मोर गा भाई, हरी नाम हे सार।
माया के चक्कर मा झन फँस, सबकुछ हे बेकार।।
जिनगी दूभर हो जाही गा, भटकत सुबहों शाम।
 जिनगी भर पछताबे तैहा, नइ गाबे प्रभु नाम।।
पाप करे ले नरक भोगबे, खाबे यम के मार।
खौलत पानी मा ओमन जी, तोला दिही उतार।।
तड़पत रहिबे दुख मा भाई, सुरता आही बात।
भटकत रहिबे जनम जनम तँय, आनी बानी खात।।

25~कौशल साहू "फरहदिया"-कुण्डलियाँ छंद
मोची पाँव कटार के, पनही खूब बनाय।
करिया पालिस पोत के, रगड़ रगड़ चमकाय।।
रगड़ रगड़ चमकाय, पाँव के रक्षा करही।
बिन पनही के गोड़, भोंभरा बिक्कट जरही ।।
लेवय सब ले दाम, सकेलय खोंची खोंची ।
पालय घर परिवार, हुनर मा निसदिन मोची।।

26~पोखन जायसवाल-दोहा छंद
लउहा लउहा रेंग के ; जावव हाट बजार ।
किसिम किसिम के चीज मा ;लावव छाँट निमार ।
लेके लान बजार ले ; किसिम किसिम के चीज ।
बारी बखरी बर बिसा ; साग पान के बीज ।
सुन के भाव बजार के ; सबके चेत भुलाय ।
किलो किलो लेवय जिहाँ ; पाव पाव घर आय ।
सुन्ना परत बजार ले ; सबझन दिखय उदास।
देखत असो अकाल ला ; टूटत हे सबके आस ।

27~बोधनराम निषाद- अमृत ध्वनि छंध
पढ़ बेटी तँय मोर ओ,अव्वल बाजी मार।
बेटा ले तँय कम नहीं,जिनगी अपन सुधार।
जिनगी अपन-सुधार बना ले, बनबे  रानी।
दाम   कमाबे, नाम  कमाबे, आनी-बानी।।
दाई -बाबू, भाई- बहिनी, दुनिया  ला  गढ़।
नवा जमाना,आए  हावय, बेटी  तँय पढ़।।

28~ राजेश कुमार निषाद- कुकुभ छंद
चलना संगी आज हमन गा,सिरपुर के मेला जाबो।
मन भर घुमबो मेला संगी,होवत संझा घर आबो।।
नदिया के गा तीर भराथे,बड़ सुघ्घर होथे मेला।
कोनो खोले हावय होटल,कोनो गा गुपचुप ठेला।।
खाबो संगी हमन मिठाई,सुघ्घर झुलबो गा झूला।
फेर अइसन दिन कब आही,देबे झन गा तैं भूला।।
मेला होथे माँघ महीना,मनखे मन हा सब आथे।
घूम घाम के लइका मन बर, खई खजाना गा लाथे।।

29~आशा आजाद- दोहा छंद
दाई अपने कोख मा,मोला झन तयँ मार।
सरी जगत ला देखहूँ ,लेके मयँ अवतार।।
भ्रूण नाश ला झन करवँ,एहा अब्बड़ पाप।
जिनगी  ला  मोरे  बचा,नोहय  बेटी  श्राप।।
तोरे हावव अंश मयँ, नारी के अवतार।
मोला  सुग्घर दे जनम,मोर हवयँ गोहार।।
तोर कोख के हवँ कली,झन कर तयँ अपमान।
ये  जग  मा  होवय  अबड़,मोरो  ऊँचा  शान।।
बइठे हाववँ कोख मा,करत हावव गोहार।
मोला  नव  संसार  दे,मोर  हवयँ  जोहार।

30~नीलम जायसवाल-कुण्डलियाँ छंद:-
वीणापाणी दे मया, कर मोरो उद्धार।
मोला तँय हा ज्ञान दे, अतका कर उपकार।।
अतका कर उपकार, मोर तँय अवगुण हर ले।
दे विद्या के दान, अपन तँय सेवक कर ले।।
ओखर जग मा नाम, बसे तँय जेखर वाणी।
दाई आशा मोर, तहीं हस वीणापाणी।।

31~ज्योति गभेल-दोहा छंद:-
बाती बोलय तेल के, देख सदा ये होय।
तिल-तिल करके हम जलें,अंजोर तभे होय।।
गुरतुर बोलव बोल जी, करलव बढ़िया काम।
दान धरम करके बने, पावव हरि के धाम।।
ज्ञान सुमत के जानिए, बिपती दूर भगाय।
अँगुरी एक टिके नही, मुठा पाँच बन जाय।।
आमा फरगे पेड़ मा, लदगे डारा पान।
हरियर-हरियर फर दिखे, कोयल करथे गान।।

32~पुरुषोत्तम ठेठवार- अमृत ध्वनि छंद
खाये फोकट घूम के, मानुष तन ला पाय।
काम धाम ला छोड़ के,  बइठ बइठ के खाय।
बइठ बइठ के, खाय अकारथ, पेट निकारे।
खोर गली मा, तँय छुछवाये, बात बघारे।
काम धाम ले, भागे दुरिहा, नजर बचाये।
किंजर किंजर के, आन कमाई, फोकट खाये।

                          "छंद के छ" के नवा साधक जौन मन निर्दोष छंद रचना करत हें, इँखर रचना एके जघा इंटरनेट मा पढ़े जा सकथे। 15 अगस्त 2017 ले "छंद खजाना" के नाँव ले एकठन ब्लॉग मा सकेले के उदिम करे गे हावय। छत्तीसगढ़ी भाखा के छंद बद्ध रचना अब गुगल मा www.chhandkhajana.blogspot.in के ठौर मा बड़ असानी ले मिलथे। "छंद के छ" के एकठन अउ सबले खास बात हे इहाँ देवनागरी लिपि के जम्मों 52 अक्षर ला उपयोग करे मा जोर दिए जाथे। बहुते कम समय मा जनकवि "दलित" जी के सपना ला सकार मा "छंद के छ" परिवार बड़भारी सफलता अर्जित करत हवँय। छत्तीसगढ़ी छंद गंगोत्री ले छंदधार फूट परे हे अब एला छंद गंगा बने मा जादा बेरा नइ लागय।

                समुद्र मंथन ले अमरित निकले रहीस, ए बात ला हमन पढ़े अउ सुने हन। अमर होय मनखे ला आज ले हम अपन आँखी मा नइ देखे हन। होवत होही अमरित फेर विगियान के ए जुग मा प्रमाण के संग अमरित हा देखे मा नइ आय हे। तुलसी, सूर, कबीर, मीरा, जायसी, सेनापति, रसखान, केशव, घनानंद एमन अमरित नइ पीये रहीन तभो आज अमर हें। सत-साहित ला अमरित जानव अउ इही ला सार मानव। मनखे ला अनमोल जनम मा एमानुस तन मिले हे। बड़ भागमानी हें जेमन ला उपरवाला परमातमा हा कविता लिखे के गुन देहे। आवव अब कुछु अइसन सिखन-लिखन के समाज बर थाती बनय, पढ़इया ला नवा सोच मिलय, हमर लिखे कविता हा जुग-जुग ले अमर रहय,प्रासंगिक रहय। समाज ला नवा दिशा दिखावय। इही "छंद के छ" के सार उद्देश्य हरय।

(साभार:- छंद के छ/ विमर्श के निकष पर छत्तीसगढ़ी)

**************************************
*कन्हैया साहू "अमित"*
शिक्षक~ भाटापारा (छ.ग.)
9753322055/9200252055
**************************************

Monday 12 March 2018

अरविंद सवैया

######अरविंद सवैया######

                 1(का करही सरकार)
झगरा अउ झंझट फोकट के करबे तब का करही सरकार।
खुद आगि लगा बड़ बम्मर तैं बरबे तब का करही सरकार।
मनखे तन पा नित मीत मया चरबे तब का करही सरकार।
बिन चाँउर के बिरथा जँतली दरबे तब का करही सरकार।

                2(जाड़ पूस के)
मुँह ले निकले गुँगवा धुँगिया  बड़ लागय जाड़ त कापय चाम।
लइका मन संग सियान सबो जुरियाय खड़े अउ तापय घाम।
जमके जब जी जुड़ जाड़ जनाय सुहाय नहीं मन ला तब काम।
ठुठरे मनखे सँग गाय गरू बिहना रतिहा सब पूस के नाम।

               3(तुरकीन)
टुकनी सिर मा मुँह पान दबा बड़ हाँक लगाय हवे तुरकीन।
कतको रँग के बढ़िया बढ़िया ग चुड़ी धर आय हवे तुरकीन।
बहिनी मन तीर म लोर खड़े सबके मन भाय हवे तुरकीन।
पिवँरी ललहूँ सतरंग चुड़ी सबला पहिराय हवे तुरकीन।1

कतको रँग के टुकनी म चुड़ी धरके किँदरे सब गाँव गली म।
पहिचान हवे बहिनी मन संग हवे बड़ ओखर नाँव गली म।
चँवरा म कभू पसरा ह सजे त कभू बर पीपर छाँव गली म।
जब बार तिहार ह तीर रहे तब होवय चाँव ग चाँव गली म।2

             4(मजदूर)
पतला चिरहा कुरथा पहिरे कुहकी बड़ पारत हे मजदूर।
बड़ जाड़ जुलूम करे तब ले तन के जल गारत हे मजदूर।
धर जाँगर ला हथियार बरोबर जाड़ ल मारत हे मजदूर।
जड़काल लजा गुण गावत हे अपने तन बारत हे मजदूर।1

जब सूरज देव बरे बन आग तभो ग खड़े करिया तन चाम।
कतको तप ले कुछु होय नही चलथे बड़ ओखर गा नित काम।
पर जावय हाथ म लोर घलो मिलथे बड़ मुश्किल मा नित दाम।
नँदिया कस धार बहे तन ले कइसे लगही मजदूर ल घाम।2

बिजली चमके गरजे बरसे ग तभो बड़ आगर काम ह होय।
बरसात घरी भर भींगत भींगत रोज सुबे अउ साम ह होय।
बपुरा मजदूर खटे दिन रात तभो जग मा नइ नाम ह होय।
सब काम बुता सिर ओखर हे ग तभो कमती बड़ दाम ह होय।3


             5(बर बिहाव)
लइका मन ला जब देख सियान करे ग विचार त होय बिहाव।
मँगनी झँगनी गठजोर चले जुड़ जावय तार त होय बिहाव।
मड़वा ह गड़े अउ तेल चढ़े झुमथे परिवार त होय बिहाव।
जब प्रीत बढ़े ग गड़ाय मया पहिरावय हार त होय बिहाव।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)

महाभुजंग प्रयात सवैया

महाभुजंग प्रयात सवैया

                  1(अर्जी-विनती)
निसेनी चढ़ा दे मया मीत के दाइ अर्जी करौं हाथ ला जोड़ के वो।
बने  मोर  बैरी  जमाना  ह माता गिराथे उठाथे जिया तोड़ के वो।
जघा पाँव मा दे रहौं मैं सदा मोह माया सबे चीज ला छोड़ के वो।
रहे तोर आशीश माता पियावौं पियासे ल पानी कुँवा कोड़ के वो।

                         2(भाजी)
मिले हाट बाजार भाजी बने ना हवौं टोर के लाय मैं खार ले गा।
निमारे बने काँद दूबी सबे  ला  चिभोरे हवौं मैं  नदी  धार ले गा।
बनाके रखे  हौं  कढ़ाई  म भाजी चनौरी चरोटा चना दार ले गा।
नहा खोर आ बैठ तैं पालथी मोड़ कौरा उठा भूख ला मार ले गा।

                    3(मुवाजा)
गली खोर खेती ठिहा मोर चुक्ता नपाके कका कोन दीही मुवाजा।
मुहाँटी  बने  रोड  गाड़ी  घरे  मा झपागे कका कोन दीही मुवाजा।
धुँवा  कारखाना  ह  बाँटे जियाँ  जाँ खपागे कका कोन दीही मुवाजा।
लिलागे खुशी भाग मा दुक्ख पोथी छपागे  कका कोन दीही मुवाजा।

                     4(बेटी के रिस्ता)
ठिहा ना ठिकाना जिहाँ हे न दाना उँहा फोकटे हे ग बेटी बिहाना।
हवे  फालतू  जे  सगा  के  घराना  उँहा फोकटे हे ग बेटी बिहाना।
जिहाँ काखरो हे न आना न जाना उँहा फोकटे हे ग बेटी बिहाना।
जिहाँ ना नहानी जिहाँ ना पखाना उँहा फोकटे हे ग बेटी बिहाना।

                    5(दुष्ट मनखे)
लगाये  मया  मीत  मा जेन आगी भला का रथे ओखरो लागमानी।
गिराथे ठिकाना ल जे काखरो भी रथे ओखरो तीर का छाँव छानी।
सुखाये नहीं का गला ओखरो रोज जेहा मताथे फरी देख पानी।
करे जे बिगाड़ा गरू फोकटे ओखरो होय छाती दुई ठोक चानी।

                   6(जमाना)
जिया भीतरी मा हमाये हवे गोठ जुन्ना नवा गा कहाये जमाना।
सजाये सँवारे करे गा दिखावा मया छोड़ माया बहाये जमाना।
करे  जेन चोरी चकारी दलाली सदा ओखरे ले लहाये जमाना।
खुले आम रक्सा ह घूमे गली खोर मा थोरको ना सहाये जमाना।

                        7(दाई)
पहाती  पहाती  उठे  दाइ  रोजे  करे काम बूता बहारे  बटोरे।
मिठाये सबो ला बनाये कलेवा मिठाई भरे कोपरी खूब झोरे।
लगाये फिरे छोट बाबू ल छाती सुनाये ग लोरी मया गीत घोरे।
करौं  बंदना  आरती  रोज  पाँवे  परौं तैं सहारा बने मात मोरे।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)

मकर सक्रांति

मकर सक्रांति(सार छंद)
सूरज जब धनु राशि छोड़ के,मकर राशि मा जाथे।
भारत  भर  के मनखे मन हा,तब  सक्रांति  मनाथे।

दिशा उत्तरायण  सूरज के,ये दिन ले हो जाथे।
कथा कई ठन हे ये दिन के,वेद पुराण सुनाथे।
सुरुज  देवता  सुत  शनि  ले,मिले  इही  दिन जाये।
मकर राशि के स्वामी शनि हा,अब्बड़ खुशी मनाये।
कइथे ये दिन भीष्म पितामह,तन ला अपन तियागे।
इही  बेर  मा  असुरन  मनके, जम्मो  दाँत  खियागे।
जीत देवता मनके होइस,असुरन नाँव बुझागे।
बार बेर सब बढ़िया होगे,दुख के घड़ी भगागे।
सागर मा जा मिले रिहिस हे,ये दिन गंगा मैया।
तार अपन पुरखा भागीरथ,परे रिहिस हे पैया।
गंगा  सागर  मा  तेखर  बर ,मेला  घलो  भराथे।
भारत भर के मनखे मन हा,तब सक्रांति मनाथे।

उत्तर मा उतरायण खिचड़ी,दक्षिण पोंगल माने।
कहे  लोहड़ी   पश्चिम  वाले,पूरब   बीहू   जाने।
बने घरो घर तिल के लाड़ू,खिचड़ी खीर कलेवा।
तिल  अउ  गुड़ के दान करे ले,पाये सुघ्घर मेवा।
मड़ई  मेला  घलो   भराये,नाचा   कूदा    होवै।
मन मा जागे मया प्रीत हा,दुरगुन मन के सोवै।
बिहना बिहना नहा खोर के,सुरुज देव ला ध्यावै।
बंदन  चंदन  अर्पण करके,भाग  अपन सँहिरावै।
रंग  रंग  के  धर  पतंग  ला,मन भर सबो उड़ाये।
पूजा पाठ भजन कीर्तन हा,मन ला सबके भाये।
जोरा  करथे  जाड़ जाय के,मंद  पवन  मुस्काथे।
भारत भर के मनखे मन हा,तब सक्रांति मनाथे।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)

अपन देश(शक्ति छंद)

अपन देस(शक्ति छंद)

पुजारी  बनौं मैं अपन देस के।
अहं जात भाँखा सबे लेस के।
करौं बंदना नित करौं आरती।
बसे मोर मन मा सदा भारती।

पसर मा धरे फूल अउ हार मा।
दरस बर खड़े मैं हवौं द्वार मा।
बँधाये  मया मीत डोरी  रहे।
सबो खूँट बगरे अँजोरी रहे।

बसे बस मया हा जिया भीतरी।
रहौं  तेल  बनके  दिया भीतरी।
इहाँ हे सबे झन अलग भेस के।
तभो  हे  घरो घर बिना बेंस के।
------------------------------------|

चुनर ला करौं रंग धानी सहीं।
सजाके बनावौं ग रानी सहीं।
किसानी करौं अउ सियानी करौं।
अपन  देस  ला  मैं गियानी करौं।

वतन बर मरौं अउ वतन ला गढ़ौ।
करत  मात  सेवा  सदा  मैं  बढ़ौ।
फिकर नइ करौं अपन क्लेस के।
वतन बर बनौं घोड़वा रेस के---।
-------------------------------------।

जीतेन्द्र वर्मा "खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)
--------------------------------------।

ऋतु बसंत (रोला)

रितु बसंत(रोला छंद)

गावय  गीत बसंत,हवा मा नाचे डारा।
फगुवा राग सुनाय,मगन हे पारा पारा।
करे  पपीहा  शोर,कोयली  कुहकी पारे।
रितु बसंत जब आय,मया के दीया बारे।

बखरी  बारी   ओढ़,खड़े  हे  लुगरा  हरियर।
नँदिया नरवा नीर,दिखत हे फरियर फरियर।
बिहना जाड़ जनाय,बियापे मँझनी बेरा।
अमली बोइर  जाम,तीर लइका के डेरा।

रंग  रंग  के साग,कढ़ाई  मा ममहाये।
दार भात हे तात,बने उपरहा खवाये।
धनिया  मिरी पताल,नून बासी मिल जाये।
खावय अँगरी चाँट,जिया जाँ घलो अघाये।

हाँस हाँस के खेल,लोग लइका सब खेले।
मटर  चिरौंजी  चार,टोर  के मनभर झेले।
आमा  बिरवा   डार, बाँध  के  झूला  झूलय।
किसम किसम के फूल,बाग बारी मा फूलय।

धनिया चना मसूर,देख के मन भर जावय।
खन खन करे रहेर,हवा सँग नाचय गावय।
हवे  उतेरा  खार, लाखड़ी  सरसो अरसी।
घाम घरी बर देख,बने कुम्हरा घर करसी।

मुसुर मुसुर मुस्काय,लाल परसा हा फुलके।
सेम्हर हाथ हलाय,मगन हो मन भर झुलके।
पीयँर पीयँर  पात,झरे पुरवा जब आये।
तन मन बड़ हर्षाय,गीत पंछी जब गाये।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)

सर्वगामी सवैया

सर्वगामी सवैया

1,(भोला भण्डारी)
माथा म चंदा जटा जूट गंगा गला मा अरोये हवे साँप माला।
नीला  रचे  कंठ  नैना भये तीन नंदी सवारी धरे हाथ भाला।
काया लगे काल छाया सहीं बाघ छाला सजे रूप लागे निराला।
लोटा म पानी रुतो के रिझाले चढ़ा पान पाती ग जाके शिवाला।

2,(गाड़ी सड़क के)
लामे हवे रोड चारों मुड़ा मा लिलागे गली खोर खेती ग बाड़ी।
कोनो अकेल्ला त कोनो चढ़े चार मारे ग सेखी धरे देख गाड़ी।
आगी लगे  हे  मरे  जी  कुदावै  गिरे  हाथ टूटे  फुटे मूड़ माड़ी।
भोगे सजा देख कोनो के कोई कभू तो जुड़ागे जिया हाथ नाड़ी।

3,(ताजा भोजन)
तातेच खाना मिठाये सुहाये बिमारी ल बासी ग खाना ह लाने।
ताजा रहे साग भाजी घलो हा पियौ तात पानी ग रोजेच छाने।
धोवौ बने हाथ खाये के  बेरा म कौरा कभू  पेट जादा न ताने।
खाये  ग  कौरा  पचाये  बने  तेन गा आदमी रोग राई न जाने।

4,(बेटी बिहाव म पानी)
आये बराती खड़े हे मुहाटी म पानी दमोरे करौं का विधाता।
राँधे गढ़े भात बासी म पानी पनौती मिहीं हा हरौं का विधाता।
एकेक कौड़ी ल रोजेच जोड़ेव आगी लगा मैं बरौं का विधाता।
सोज्झे गिरे गाज छाती म मोरे तभो फेर आशा धरौं का विधाता।

5,(होली के रंग,डोली मा)
होरा चना के खवाहूँ ग आबे घुमाहूँ सबो खेत डोली ल तोला।
हे  कुंदरा  मेड़  मा बैठ लेबे सुनाहूँ ग पंछी के बोली ल तोला।
टेसू फुले खूब लाली गुलाली दिखाहूँ ग भौंरा के टोली ल तोला।
पूर्वा  बसंती  घलो फाग  गाये खवाहूँ  बने भांग गोली ल तोला।

6,(बने बूता बने बेरा म)
माटी के काया म माया मिलाये ग बूता बने संग साने नही गा।
बूता बड़े हे हवे नाम छोटे दिही काम हा साथ आने नही गा।
टारे बिधाता के लेखा भला कोन होनी बिना होय माने नही गा।
बेरा रहे काम बूता सिराले अमीरी गरीबी ल जाने नही गा।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)

आल्हा छंद

लड़ाई मैना के(आल्हा)

बड़े बाहरा उगती बेरा,हो जावै सूरज  सँग लाल।
अँधियारी रतिहा घपटे तब,डेरा डारे बइठे काल।

घरर घरर बड़ चले बँरोड़ा,डारा पाना धूल उड़ाय।
दल के दल मा रेंगय चाँटी,चाबे  त  लहू आ जाय।

घुघवा  घू  घू  करे  रात  भर,सुनके  जिवरा जावै काँप।
झुँझकुर झाड़ी कचरा काड़ी,इती उती बड़ घूमय साँप।

बनबिलवा नरियावत भागै,करै कोलिहा हाँवे हाँव।
मनखे  मनके आरो नइहे,नइहे तीर तखार म गाँव।

डाढ़ा टाँग टेड़गी रेंगय,घिरिया डर डर मुड़ी हलाय।
ऊद भेकवा भागे पल्ला,भूँ भूँ के रट कुकुर लगाय।

खुसरा रहि रहि पाँख हलावै,गिधवा देखै आँखी टेंड़।
जुन्ना  हावय  बोइर  बम्भरी,मउहा कउहा पीपर पेड़।

आसमान  मा  डारा पाना,जड़ हा धँसे हवे पाताल।
पानी बरसे रझरझ रझरझ,भीगें ना कतको डंगाल।

उही  डाल  मा  मैना  बइठे,गावै   मया  प्रीत   के  गीत।
हवै खोंधरा जुग जोड़ी के,कुछ दिन जावै सुख मा बीत।

दू ठन पिलवा सुघ्घर होगे, मया ददा दाई के पाय।
चारा चरे ददा अउ दाई,छोड़ खोंधरा दुरिहा जाय।

सुख  मा  बीतै  जिनगी  सुघ्घर , आये नहीं काल ला रास।
अब्बड़ बिखहर बिरबिट करिया,नाँग साँप हा पहुँचे पास।

जाने  नहीं  उड़े  बर पिलवा,पारै  डर  मा बड़ गोहार।
इती उती बस सपटन लागे,मारे बिकट साँप फुस्कार।

उही  बेर  मा  मादा मैना ,अपन खोंधरा तीरन आय।
देख हाल ला लइका मनके,छाती दू फाँकी हो जाय।

तरवा  मा  रिस  चढ़गे ओखर,आँखी  होगे लाले लाल।
मोर जियत ले का कर सकबे,कहिके गरजे बइठे डाल।

पाँख हले ता चले बँड़ोड़ा,चमके बड़ बिजुरी कस नैन।
माते   लड़ई   दूनो  के   बड़,आसमान   ले  बरसे  रैन।

चाकू छूरी बरछी भाला,खागे नख के आघू मात।
बड़े बाहरा के सब प्राणी,देखे झगड़ा बाँधे हाथ।

पड़े  चोंच  के  मार साँप  ला,तरतर तरतर लहू बहाय।
लइका मन ला महतारी हा,झन रोवौ कहि धीर बँधाय।

उड़ा उड़ा के चोंच गड़ाये,फँस फँस नख मा माँस चिथाय।
टपके   लहू  पेड़   उप्पर  ले, जीव तरी  के  घलो  अघाय।

मादा   मैना   के  आघू  मा, बिखहर   डोमीं   माने  हार।
पहिली बेरा अइसन होइस,खाय रिहिस कतको वो गार।

जान  बचाके  भागे  बइरी,मैना  रण  मा  बढ़ चढ़ धाय।
पिलवा मन ला गला लगाके,फेर खुसी दिन रात पहाय।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)

हरिगीतिका छंद

सत उपदेश (हरिगीतिका छंद)

किरपा करे कोनो नही,बिन काम होवै नाम ना।
बूता  घलो  होवै  बने,गिनहा मिले जी दाम ना।
चोरी  धरे  धन  नइ पुरे,चाँउर  पुरे  ना दार जी।
महिनत म लक्ष्मी हा बसे,देखौ पछीना गार जी।


संगी  रखव  दरपन  सहीं,जेहर दिखावय दाग ला।
गुणगान कर धन झन लुटै,धूकै हवा झन आग ला।
बैरी  बनावौ  मत  कभू,राखौ  मया नित खाप के।
रद्दा बने चुन के चलौ,अड़चन ल पहिली भाँप के।

सम्मान दौ सम्मान लौ,सब फल मिले इहि लोक मा।
आना  लगे  जाना लगे,जादा  रहव   झन  शोक मा।
सतकाम बर आघू बढ़व,संसो फिकर  ला छोड़ के।
आँखी उघारे नित रहव, कतको खिंचइया गोड़ के।

बानी   बनाके  राखथे ,नित  मीठ  बोलव  बोल गा।
अपने खुशी मा हो बिधुन,ठोंकव न जादा ढोल गा।
चारी   करे   चुगली   करे ,आये   नही  कुछु  हाथ  मा।
सत आस धर सपना ल गढ़,तब ताज सजही माथ मा।

पइसा रखे  कौड़ी  रखे,सँग  मा रखे नइ ग्यान गा।
रण बर चले धर फोकटे,तलवार ला तज म्यान गा।
चाटी  हवे   माछी  हवे , हाथी  हवे  संसार  मा।
मनखे असन बनके रहव,घूँचव न पाछू हार मा।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)

Saturday 13 January 2018

मड़ई(दोहा गीत)

मड़ई मेला(दोहा गीत)

मोर  गाँव  दैहान   मा,मड़ई  गजब भराय।
दुरिहा दुरिहा के घलो,मनखे मन जुरियाय।

कोनो सँइकिल मा चढ़े,कोनो खाँसर फाँद।
कोनो  रेंगत  आत   हे,झोला   झूले  खाँद।
मड़ई मा मन हा मिले,बढ़े मया अउ मीत।
जतके हल्ला होय जी,लगे  ओतके  गीत।
सब्बो रद्दा बाट मा,लाली कुधरिल छाय।
मोर गाँव दैहान  मा,मड़ई  गजब भराय।

किलबिल किलबिल हे करत,गली खोर घर बाट।
मड़ई   मनखे    बर    बने,दया   मया   के   घाट।
संगी  साथी  किंजरे,धरके देखव हाथ।
पाछू  मा  लइका चले,दाई  बाबू साथ।
मामी मामा मौसिया,पहिली ले हे आय।
मोर गाँव  दैहान मा,मड़ई गजब भराय।

ओरी   ओरी   बैठ  के,पसरा  सबो   लगाय।
सस्ता मा झट लेव जी,कहिके बड़ चिल्लाय।
नान  नान  रस्ता  हवे,सइमो  सइमो होय।
नान्हे लइका जिद करे,चपकाये बड़ रोय।
खई खजानी खाय बर,लइका रेंध लगाय।
मोर  गाँव  दैहान  मा,मड़ई  गजब भराय।

चना चाँट गरमे गरम,गरम जलेबी लेव।
बड़ा  समोसा  चाय हे,खोवा पेड़ा सेव।
भजिया बड़ ममहात हे,बेंचावय कुसियार।
घूमय तीज तिहार कस,होके सबो तियार।
फुग्गा मोटर कार हा,लइका ला रोवाय।
मोर गाँव दैहान  मा,मड़ई गजब भराय।

बहिनी मन सकलाय हे,टिकली फुँदरी तीर।
सोना  चाँदी  देख  के, धरे  जिया  ना  धीर।
जघा जघा बेंचात हे, ताजा ताजा साग।
बेंचइया चिल्लात हे,मन भावत हे  राग।
खेल मदारी ढेलुवा,सबके मन ला भाय।
मोर गाँव दैहान  मा,मड़ई गजब भराय।

चँउकी  बेलन बाहरी,कुकरी मछरी गार।
साज सजावट फूल हे,बइला के बाजार।
लगा  हाथ  मा   मेंहदी,दबा  बंगला   पान।
ठंडा सरबत अउ बरफ,कपड़ा लगे दुकान।
कई किसम के फोटु हे, देखत बेर पहाय।
मोर  गाँव दैहान  मा,मड़ई  गजब भराय।

जिया भरे झोला भरे,मड़ई मनभर घूम।
संगी साथी सब मिले,मचे रथे बड़ धूम।
दिखे कभू दू चार ठन,दुरगुन एको छोर।
मउहा पी कोनो लड़े,कतरे पाकिट चोर।
मजा उही हा मारही,मड़ई जेहर आय।
मोर गाँव दैहान मा,मड़ई गजब भराय।

जीतेन्द्र वर्मा "खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)