मधुशाला छंद-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
दारुभट्ठी
गाँव गली पथ शहर नगर मा, दिख जाथे दारू भट्ठी।
इहाँ बड़े छोटे नइ लागे, सब आथे दारू भट्ठी।
सब ला एक समान समझ के, कहै जेब कर लौ खाली,
अपन तिजोरी मा पइसा नित, खनकाथे दारू भट्ठी।।
भीड़ भाड़ रहिथे मनखे के, चहल पहल रहिथे भारी।
रदखद दिखथे चारो कोती, करे नही कोनो चारी।
कतको झन छुप छुपके लेवैं, कतको झन खुल्लम खुल्ला,
झगरा माते दिखे इही कर, दिखे इही कर बड़ यारी।।
कोनो कोनो गम कहि ढोंके, कोनो पीये मस्ती मा।
साहब बाबू कका बबा का, सब सवार ये कस्ती मा।
लड़भड़ाय पीये पाये ते, खुदे मूड़ माड़ी फोड़े,
कतको पड़े अचेत इही कर, कतको भूँके बस्ती मा।।
बिलायती कोनो पीये ता, कोनो देशी अउ ठर्रा।
रोक पियइया ला नइ पावै, गरमी पानी घन गर्रा।
अद्धी पाव जुगाड़ करे बर, कतको पाँव परत दिखथे,
नसा पान के कतको आदी, पीथें खीसा नित झर्रा।।
मालामाल आज अउ होगे, जेन रिहिस काली कँगला।
चिंता छोड़ पियइया पीये, बेंच भाँज घर बन बँगला।
रोज पियइया बाढ़त हावय, हाँसत हे दारू भट्ठी।
खाय हवै किरिया कतको मन, नइ छोड़े दारू सँग ला।।
पूल समुंदर में पी बाँधे, टार सके नइ जे ढेला।
चोर पुलिस सबझन के डेरा, भट्ठी मेर भरे मेला।
दारू छोड़व कहे सुबे ते, संझा दिखथे भट्ठी मा,
रोजगार तक देवै भट्ठी, हें दुकान पसरा ठेला।।
छट्ठी बरही सब मा दारू, नइ सुहाय मुनगा मखना।
पी के मोम लगे कतको मन, ता कतको लागय पखना।
तालमेल तक दिखे गजब के, दिखे गजब दोस्ती यारी,
एक लेय बिन बोले दारू, एक जुगाड़े झट चखना।।
कतको सज धज बड़े बने हे, खुद बर खुद हार बनाके।
सब दिन हीने हें गरीब ला, ऊँच नीच पार बनाके।
एक पियइया होय बेवड़ा, फेर एक के फेंसन हे,
भला बुरा भट्ठी ला बोले, बड़का मन बार बनाके।।
हरे आज के थोरे दारू, सुन शराब के गाना ला।
कतको बाढ़े किम्मत चाहे, कोन भुले मयखाना ला।
अनदेखा करके सब पीथें, नसा नास के हाना ला,
गोद लिये सरकार फिरत हे, भट्ठी भरे खजाना ला।।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को, कोरबा(छग)
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