....रऊनिया म...
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हाथ-पॉव म का किबे?
जाड़ हमागे हे जिया म|
कतरो बेरा पहा जथे,
बइठे-बइठे रऊनिया म|
अगोरा हे चाहा के,
बिहनिया ले उठ के|
टुकुर-टुकुर देखे लइका,
खटिया म सुत के|
फेंक-फेंक के फरिया ल,
गोड़ ल मढ़ात हे|
किनकिनात भुइयाँ,
चाबे ल कुदात हे|
चुल्हा तीर म,
बइठे हे बहिनी जकड़ी|
अऊ हुरसे ऊपर हुरसत हे,
चुल्हा म लकड़ी |
बखरी के बिहनिया ले,
नइ हिटे हे सँकरी |
बबा लादे हे कमरा,
डोकरी दाई ओढ़े हे कथरी|
अंगरा-अंगेठा भूर्री चाही,
कइसे जाड़ भगाही दिया म....?
कतरो बेरा पहा जथे,
बइठे-बइठे रऊनिया म ..........|
छेरी-बोकरा;बईला-भंईस्सा,
कुड़कुड़ा गेहे जाड़ म|
जमकरहा सीत परे हे कॉदी म,
मुंदरहा नइ हे कोनो खेत-खार म|
ऊगिस घाम ,तिपिस चाम |
कमइया मनके,बाजिस काम|
धान गंजाय कोठार म,
गहूं -चना गेहे जाम |
बिहनिया के बेरा,
कोन टेंड़े टेंड़ा|
ताते-तात खवइया ल,
नइ भात हवे केरा|
सियान बइठे लइका धरे,
दाई धरे मुखारी ल,
चॉंऊर निमारत बहू बइठे,
रॉध-गढ़ के हाड़ी ल |
तापत बइठे घाम टुरा,
किताब धरे भिंया म.........|
कतरो बेरा पहा जथे,
बईठे-बईठे रऊनिया म.......|
घंटा भर नंहवइया,
छिन म नहा डरिस |
तापत-तापत घाम ल ,
दिन ल पहा डरिस |
किनकिनाय दॉत,
कुड़कुड़ाय जॉंगर|
तभो ले कमइया के,
नइ छुटे नांगर |
जइसने बाढ़े जाड़,
तइसने बाढ़े बुता |
अतलंगहा टुरा मन तापे बर,
बार देहे चरिहा सूपा |
आनि -बानि के साग-भाजी,
तात-तात चूरे हे |
गिल्ली,भंवरा-बॉटी खेले बर,
लईका मन जुरे हे |
जमकरहा जाड़ म ,
बड़ मया बाढ़े हे गिंया म....|
कतरो बेरा पहा जथे,
बइठे-बइठे रऊनिया म......|
रचनाकाल-2004
📝 जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"📝
बाल्को( कोरबा )
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पागा कलगी 26 बर
परयास"आसो के जाड़ "विषय म
आसो के जाड़
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जाड़ म जमगे, माँस-हाड़।
आसो बिकट बाढ़े हे जाड़।
आंवर-भाँवर मनखे जुरे हे,
गली - खोर म भुर्री बार।
लादे उपर लादत हे,
सेटर कमरा कथरी।
तभो ले कपकपा गे,
हाड़ -मांस- अतड़ी।
जाड़ म घलो,जिया जरगे।
मुँहूं ले निकले धूंगिया।
तात पानी पियई झलकई,
चाहा तीर लोरे सूँघिया।
जाड़ जड़े तमाचा; हनियाके।
रतिहा- संझा अउ बिहनिया के।
दाँत किटकिटाय,गोड़-हाथ कापे,
कोन खड़े जाड़ म, तनियाके?
बिहना धुँधरा म,
सुरुज अरझ गे।
गुंगवा के रंग म ,
चोरो-खूंट रचगे।
दुरिहा के मनखे,
चिन्हाय नही।
छंइहा जाड़ म ,
सुहाय नही।
जाड़ ल जीते बर,
मनखे करथे उपाय।
साल चद्दर के तरी म,
लुकाय ऊपर लुकाय।
फेर ठिठुर के मर जथे,
कतको आने परानी।
जे न जाड़ म कथरी मांगे,
न घाम म ;मांगे पानी।
जब बनेच जाड़ बढ़थे।
सुरुज थोरिक चढ़ते।
त बइठे-बइठे रऊनिया म,
गजब मया बढ़थे।
बाढ़े हे बनेच,
आसो के जाड़।
लेवत हे मजा,
अंगरा-अंगेठा बार।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बालको(कोरबा)
9981441795
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