गजल- जीतेन्द्र वर्मा खैरझिटिया
बिछे जाल देख के मोर उदास हावे मन हा।
बुरा हाल देख के मोर उदास हावे मन हा।।1
बढ़े हे गजब बदी हा, बहे खून के नदी हा।
छिले खाल देख के मोर उदास हावे मन हा।2
अभी आस अउ बचे हे, बुता खास अउ बचे हे।
खड़े काल देख के मोर उदास हावे मन हा।।3
गला आन मन धरत हे, सगा तक दगा करत हे।
चले चाल देख के मोर उदास हावे मन हा।।4
कती खोंधरा बनावँव, कते मेर जी जुड़ावँव।
कटे डाल देख के मोर उदास हावे मन हा।5
धरे हाथ मा जे पइसा, उही लेगे ढील भँइसा।
गले दाल देख के मोर उदास हावे मन हा।।6
कई खात हे मरत ले, ता कहूँ धरे धरत ले।
उना थाल देख के मोर उदास हावे मन हा।7
जे कहाय अन्न दाता, सबे मारे वोला चाँटा।
झुके भाल देख के मोर उदास हावे मन हा।8
नशा मा बुड़े जमाना, करे नाँचना नँचाना।
नवा साल देख के मोर उदास हावे मन हा।9
जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को, कोरबा(छग)
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