Wednesday, 4 June 2025

काल कस तरिया (दोहा चौपाई)

 काल कस तरिया (दोहा चौपाई)


*तरिया के गत देख के, देथँव मुँह ला फार|*

*एक समय सबझन जिहाँ, लगर नहावै मार|*


*आज हाल बेहाल हे, लिख के काय बताँव।*

*जिवरा थरथर काँपथे, सुन तरिया के नाँव।*


कोन जनी काखर हे बद्दी। तरिया भीतर बड़ हे लद्दी।

सुते ढ़ोड़िहा लामा लामी। धँसे मोंगरी रुदवा बामी।।


तुलमुलाय बड़ मेंढक मछरी। काई मा रचगे हे पचरी।

घोंघा घोंघी जोक जमे हे। सुँतई भीतर जीव रमे हे।


कमल सिंघाड़ा जलकुंभी जड़। पानी उप्पर फइले हे बड़।

उरइ ओगला कुकरी काँदा। लामे हावै जइसे फाँदा।।


टूट गिरे हे बम्हरी डाला। पुरे मेकरा जेमा जाला।

सड़ सड़ मरगे थूहा फुड़हर। सांस आखरी लेय कई जर।


गाद ढेंस चीला हे भारी। नरम कई ता कुछ जस आरी।

जड़ उपजे हे कई किसम के। थकगे हावै पानी थमके।


घाट घठौंदा काँपत हावय। जघा केकड़ा नापत हावय।

तुलमुल तुलमुल करे तलबिया। उफले हे मंजन के डबिया।


भैंसा भैंसी तँउरे नइ अब। मनुष कमल बर दँउड़े नइ अब।

कोन पोखरा जरी निकाले। कोन फोकटे आफत पाले।।


किचकिच किचकिच करे केचुआ। पेट गपागप भरे केछुवा।

चले नाँव कस कीरा करिया। रदखद लागै अब्बड़ तरिया।


बतख कोकडा अउ बनकुकरी। दिखय काखरो नइ अब टुकड़ी।

चिरई चिरगुन डर मा काँपे। मनुष तको कोई नइ झाँके।


*दहरा हे लहरा नही, पानी हे जलरंग।*

*जड़ अउ जल के बीच मा, छिड़े हवै बड़ जंग।।*


*पानी के जस हाल हे, तस फँसगे हे पार।*

*कीरा काँटा काँद धर, पारत हे गोहार।।*


पार तको के हालत बद हे। काँटा काँद उगे रदखद हे।

खजुर केकड़ा चाँटा चाँटी। पार उपर पइधे हे खाँटी।।


बम्हरी बोइर अमली बिरवा। बेला मा ढँकगे हे निरवा।

हवै मोखला गुखरू काँटा। चारो कोती हे बन भाँटा।


सोये जागे आड़ा आड़ी। हवै बेसरम अब्बड़ भारी।

झुँझकुर छँइहा बर पीपर के। सुरुज देव तक भागे डरके।


हले हवा मा झूला बर के। फंदा जइसे सर सर सरके।

मटका पीपर मा झूलत हे। पासा जइसे फर ढूलत हे।


बिच्छी रेंगे डाढ़ा टाँगे। चाबे ते पानी नइ माँगे।।

घिरिया झींगुर उद बनबिल्ली। करे रात दिन चिल्लम चिल्ली।


बिखहर नागिन बिरवा नाँपे। देख नेवला थरथर काँपे।

हे दिंयार मन के घरघुँदिया। सरपट दौड़त हे छैबुँदिया।


घउदे हे बड़ निमवा बुचुवा। भिदभिद भिदभिद भागे मुसुवा।

फाँफा चिटरा मुड़ी हलाये। घर खुसरा घुघवा नरियाये।।


भूत प्रेत के लागे माड़ा। कुकुर कोलिहा चुँहके हाड़ा।

डर मा कतको मनुष मरे हे। कतको कइथे जीव परे हे।


देख जुड़ा जावै नस नाड़ी। पार उपर के झुँझकुर झाड़ी।

काल ताल मा डारे डेरा। नइ लगाय मनखे मन फेरा।


*मन्दिर तरिया पार के, हे खँडहर वीरान।*

*पानी बिन भोला घलो, होगे हे हलकान।*


*तरिया आना छोड़ दिस, जबले मनखे जात।*

*तबले खुशी मनात हे, जींव जंतु जर पात।।*


मनखे के नइ पाँव पड़त हे। जींव जंतु जर पेड़ बढ़त हे।

मछरी मेढक बड़ मोटावै। कछुवा पथरा तरी उँघावै।।


करे साँप हा सलमिल सलमिल। हांसे कमल बिहनिया ले खिल।

पेड़ पात घउदत हे भारी। पटय सबे के सब सँग तारी।


रंग रंग के फुलवा महके। चिरई चिरगुन चिंव चिंव चहके।

खड़े पेड़ सब मुड़ी नँवाके, गूँजै सरसर गीत हवा के।


तिरथ बरोबर राहय तरिया। नाहै जिहाँ गोरिया करिया।

बइला भैसा मनखे बूड़े। दया मया सब उप्पर घूरे।।


दार चुरे तरिया पानी मा। राहै शामिल जिनगानी मा।

करे सबो झन दतुन मुखारी। नाहै धोवै ओरी पारी।


घाम घरी दुबला हो जावै। बरसा पानी पी मोटावै।

लहरा गावै गुरतुर गाना। मछरी कस तँउरे बर पाना।


सुबे शाम डुबके लइका मन। तन सँग मन तक होवै पावन।

छोटे बड़े सबे झन नाहै। तरिया के सुख सब झन चाहै।


अब होगे घर मा बोरिंग नल। चौबिस घण्टा निकलत हे जल।

आगे हे अब नवा जमाना। नाहै घर मा दादा नाना।


हाँसय सब सुख सुविधा धरके। मनखे मन अब होगे घर के।

शहर लहुटगे गाँव जिहाँ के। हाल अइसने हवै तिहाँ के।।


*नेता मन जुरियाय हें, देख ताल के हाल।*

*तरिया ला सुघराय बर, फेकत हावै जाल।*


*जीव जंतु मरही गजब, कटही कतको पेड़।*

*हो जाही क्रांकीट के, घाट घठौदा मेड।।*


*सुंदरता जब बाढ़ही, मनखे करही राज।*

*जीव जंतु झूमत हवै,पेड़ पात सँग आज।*


जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

Monday, 2 June 2025

गीत-भाँखा छत्तीसगढ़ी मोर

 गीत-भाँखा छत्तीसगढ़ी मोर


ये भाँखा छत्तीसगढ़ी मोर।

बाँधे सब ला जइसे डोर।।

बोले बर मँय नइ छोड़ँव....


ये महतारी के ए बानी।

बहे बनके अमृत पानी।।

घर गाँव गली बन खोर।

सबे खूँट हावय एखर शोर।

बोले बर मँय नइ छोड़ँव....


समाथे अंतस मा जाके।

मिठाथे जइसे फर पाके।।

आलू बरी मुनगा के फोर।

डुबकी अउ इड़हड़ के झोर।

बोले बर मँय नइ छोड़ँव....


बोले मा लाज शरम काके।

बोलव सब छाती ठठाके।।

मन के अहं वहं ला टोर।

मया मीत बानी मा लौ घोर।

बोले बर कोई झन छोड़व....


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

दूअर्थी गीत- कुकुभ छंद

 दूअर्थी गीत- कुकुभ छंद


छत्तीसगढ़ मा बढ़त जात हे, दूअर्थी गीत गवइया।

कला गला के वो मन दुश्मन, संस्कृति संस्कार मतइया।।


मिंझरत हावय नाच गान मा, दुर्गुण हर बारा जाती।

अइसन अइसन गीत बनत हे, सुनके फट जाथे छाती।

मुड़ मा चढ़ कतको छपरी मन, नाचत हें ताता थइया।

छत्तीसगढ़ मा बढ़त जात हे, दूअर्थी गीत गवइया।


लाइक व्यूह कमेंट पाय बर, गिर जावत हें लद्दी मा।

अंत अती के हब ले होही, बड़ ताकत हे बद्दी मा।।

बने बने जे लिखही गाही, जस होही ओखर भइया।

छत्तीसगढ़ मा बढ़त जात हे, दूअर्थी गीत गवइया।।


करू कसा नइ टिके जगत मा, जानत हावय तभ्भो ले।

नाक कान अउ गर कटवाके, जहर जगत मा वो घोले।।

मान गिराये महतारी के, बुड़ जाये ओखर नइया।।

छत्तीसगढ़ मा बढ़त जात हे, दूअर्थी गीत गवइया।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

हरियर सोना-तेंदू पाना

 हरियर सोना-तेंदू पाना


भरे जेठ बैसाख मा, बन डिहि डोंगर घूम के

टोरे तेंदू पान ला, छत्तीसगढ़िया झूम के।।


हरियर सोना एखर नाम। आय बिड़ी बनाय के काम।।

छत्तीसगढ़ मा होत बिहान। टोरे बड़ झन तेंदू पान।।


लइका लोग जवान सियान। घरभर दै टोरे मा ध्यान।।

तोड़य गुरतुर गावत गीत। डर जर अउ आलस ला जीत।


छेड़ ददरिया कर्मा तान। संगी साथी फूल मितान।।

ओली बना कमर पट बाँध। कखरो झोला झूले खाँध।।


पान टोर के घर मा लाय। गिन पचास के जुरी बनाय।

ठाड़ घाम मा देय सुखाय। सूखे ता बेचे बर जाय।।


पान बेच के पाये दाम। इही आय गरमी के काम।।

ट्रक मा भरा जाय गोदाम। जमा होय जहँ पात तमाम।


रोजगार दै ये उपज, बन तीरन के गाँव ला।

बन नद खनिज बढ़ाय नित, दक्षिण कौशल नाँव ला।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छह)

नवतप्पा के घाम-सरसी छंद

 नवतप्पा के घाम-सरसी छंद


अल्थी कल्थी भूंजत हावै, नवतप्पा के घाम।

आकुल ब्याकुल जिनगी होगे, का बिहना का शाम।।


आग लगे हे घर के भीतर, बाहिर ला दे छोड़।

सोच समझ नइ पावत हे मन, उसलत नइहे गोंड़।।

चले झांझ झोला बड़ भारी, थमगे बूता काम।

अल्थी कल्थी भूंजत हावै, नवतप्पा के घाम।।


पक्का हावै ठिहा ठिकाना, पक्का गली दुवार।

सड़क साँप कस फुस्कारत हे, खाके अपने गार।।

तरिया नदिया नरवा पटगे, कटगे पेड़ तमाम।

अल्थी कल्थी भूंजत हावै, नवतप्पा के घाम।।


बदल डरे हन रूप प्रकृति के, कहिके हमन विकास।

आफत बाढ़त जावत हे अब, होय चैन सुख नास।।

पानी बिना बुझावत हावै, जीव जंतु के नाम।

अल्थी कल्थी भूंजत हावै, नवतप्पा के घाम।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

गरमी मा ताल नदी स्नान-सार छंद

 गरमी मा ताल नदी स्नान-सार छंद


देख घाम मा नदिया तरिया, सबके मन ललचाथे।

चटचट जरथे चारो कोती, जुड़ जल जिया लुभाथे।।


पार पाय नइ नल अउ बोरिंग, नदिया अउ तरिया के।

भेदभाव नइ करे ताल नद, गुरिया अउ करिया के।।

का जवान लइका सियान सब, डुबकी मार नहाथें।

देख घाम मा नदिया तरिया, सबके मन ललचाथे।।


कोनो कूदे कानों तँउरे, कोनो डुबकी मारे।

तन के कतको रोग रई हा, डुबकत तँउरत हारे।

बुड़े बुड़े पानी के भीतर, कतको बेर पहाथे।

देख घाम मा नदिया तरिया, सबके मन ललचाथे।


लहरा होथे गहरा होथे, डर तक रहिथे भारी।

नइ जाने तँउरें बर तउने, मारे झन हुशियारी॥ 

जीव जंतु तक के ये डेरा, काम सबे के आथे।

देख घाम मा नदिया तरिया, सबके मन ललचाथे।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)