Tuesday 28 July 2020

बरवै छंद- जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बरवै छंद- जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया" 

आ रे बादर(गीत)

धान पान रुख राई, सबे सुखाय।
ना पानी ना काँजी, सावन काय।

अगिन बरत हे भुइयाँ, हरगे चेत।
बूंद बूंद बर बिलखै, डोली खेत।
मरे मोर कस मछरी, मेंढक मोर।
सबके सुख चोराये, बादर चोर।
सुध बुध अब सब खोगे, मन अकुलाय।
ना पानी ना काँजी, सावन काय।।

निकल जही अइसन मा, मोरे जान।
जादा तैं तड़पा झन, हे भगवान।।
जल्दी आजा जल धर, बादर देव।
खेत किसानी के तैं, आवस नेव।।
भुइयाँ छाँड़य दर्रा, ताल अँटाय।
ना पानी ना काँजी, सावन काय।।

बेटी के बिहाव अउ, बेटा प्रान।
तोर तीर हे अटके, गउ ईमान।।
देखत रहिथौं तोला, बस दिन रात।
जिनगी मोर बचा दे, आ लघिनात।
बाँचे खोंचे भुइयाँ, झन बेंचाय।।
ना पानी ना काँजी, सावन काय।।

जाँगर टोर सकत हौं, तन जल ढार।
फेर तोर बिन हरदम, होथे हार।
रावण राज लगत हे, सावन मास।
दावन मा बेचाये, खुसी उजास।।
गड़े जिया मा काँटा, धीर खराय।
ना पानी ना काँजी, सावन काय।।

भाग भोंग के मोरे, झन तैं भाग।
करजा बोड़ी बढ़ही, झन दे दाग।
मैं हर साल कलपथौं, छाती पीट।
तैं चुप देखत रहिथस, बनके ढीट। 
बस बरसा बरसा दे, ले झन हाय।
ना पानी ना काँजी, सावन काय।।

जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को, कोरबा(छग)

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