Saturday, 23 November 2024

कुंडलियाँ छंद-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

 कुंडलियाँ छंद-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"


आलू राजा साग के, आज रूप देखाय।

किम्मत भारी हे बढ़े, हाड़ी ले दुरिहाय।।

हाड़ी ले दुरिहाय, हाथ नइ आवत हावै।

बिन आलू के संग, साग भाजी नइ भावै।

हे कालाबाजार, काय कर सकही कालू।

एक बहावै नीर, एक हाँसे धर आलू।।


होवत हावय सब जघा, आलू के बड़ बात।

का कहिबे छोटे बड़े, सबला हे रोवात।

सबला हे रोवात, सहारा जे सब दिन के।

आये आलू आज, सैकड़ा मा तक गिन के।

आलू के बिन साग, कई ठन रोवत हावय।

महँगा जम्मों चीज, दिनों दिन होवत हावय।


जादा के अउ चाह मा, बुरा करव ना काम।

होय बुरा के एक दिन, गजब बुरा अंजाम।

गजब बुरा अंजाम, भोगथे बुरा करइया।

का वैपारी सेठ, सबे मनखे अव भइया।

करव बने नित काम, राख के नेक इरादा।

बित्ता भर के पेट, काय कमती अउ जादा।


दाना पानी छीन के, झन लेवव जी हाय।

जीये खाये के जिनिस, सहज सदा मिल जाय।

सहज सदा मिल जाय, अन्न पानी सब झन ला।

मनखे झन कहिलाव, बरो के मनखेपन ला।

फैलाके अफवाह, जेन करथे मनमानी।

हजम कभू नइ होय, उसन ला दाना पानी।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

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