Friday, 1 August 2025

मनभावन कोरबा-रूपमाला छंद

 मनभावन कोरबा-रूपमाला छंद


कोइला हा कोरबा के आय करिया सोन।

नीर हा हसदेव के जिनगी हरे सिरतोन।।

हे कटाकट बन बगीचा जानवर अउ जीव।

अर्थबेवस्था हमर छत्तीसगढ़ के नीव।।


माँ भवानी सर्वमँगला के हरे वरदान।

कोसगाई मातु मड़वा देय धन अउ धान।।

टारथे चैतुरगढ़िन दुख आपदा डर रोग।

एल्युमिनियम संग बिजली के बड़े उद्योग।।


बाँध बांगो हा बँधाये हे गजब के ऊँच।

बेंदरा भलवा कहे पथ छोड़ दुरिहा घूँच।।

साँप हाथी संग मा औषधि हवे भरमार।

मन लुभाये ऊँच झरना अउ नदी के धार।।


वास वनवासी करें संस्कृति अपन पोटार।

हाथ मा धरके धनुष खोजे बहेड़ा चार।।

मीठ बोली कोरवा गूँजय गली बन खोर।

आय बेपारी घलो सुन कोरबा के शोर।।


आय मनखे कोरबा मा सुन  इहाँ के नाम।

देख के बन बाग झरना पाय सुख आराम।।

कारखाना झाड़ झरना कोइला के खान।

देश दुनिया मा चले बड़ कोरबा के नाम।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

रंग रंग के गहना गुठिया-लावणी छंद

 रंग रंग के गहना गुठिया-लावणी छंद


रंग रंग के गहना गुठिया, पहिरें बेटी माई मन।

खुले रूप सजधज बड़ भारी, सँहिरायें मनखें सबझन।।


सूँता सुर्रा सुँतिया सँकरी, साँटी सिंगी अउ हँसली।

चैन चुड़ी सोना चांदी के, आये असली अउ नकली।।

कड़ा कोतरी करण फूल फर, ककनी कटहर अउ करधन।

रंग रंग के गहना गुठिया, पहिरें बेटी माई मन।।


बिधू बुलाक बनुरिया बहुटा, बिछिया बाली अउ बारी।

बेनिफूल बघनक्खा बिछुवा, माला मुँदरी मलदारी।।

चुटकी चुरवा औरीदाना, पटा पाँख पटिया पैजन।

रंग रंग के गहना गुठिया, पहिरें बेटी माई मन।।


तोड़ा तरकी टिकली फुँदरी, रुपिया लगथे बड़ अच्छा।

पटा लवंग फूल नथ लुरकी, झुमका ऐंठी अउ लच्छा।।

ढार नांगमोरी नकबेसर, पैरी बाजे छन छन छन।

रंग रंग के गहना गुठिया, पहिरें बेटी माई मन।।


कटवा कौड़ी फुल्ली पँहुची, खूँटी खिनवा गहुँदाना।

हार हमेल किलिप हर्रइयाँ, माथामोती पिन नाना।।

सोना चाँदी मूंगा मोती, गहना गुठिया आये धन।

रंग रंग के गहना गुठिया, पहिरें बेटी माई मन।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

सरकारी दारू-सरसी छंद

 सरकारी दारू-सरसी छंद


गांव गांव मा दारू भट्ठी, खोलत हे सरकार।

मंद पियइया बाढ़त हावै, बाढ़त हावै रार।।


कोष भरे बर दारू बेंचय, शासन देखव आज।

नशा नाश ए कहि चिल्लावै, आय घलो नइ लाज।।

पीयैं बेंच भांज दरुहा मन, घर बन खेती खार।

गांव गांव में दारू भट्ठी, खोलत हे सरकार।।


दारू गांजा के चक्कर मा, होवत हवै बिगाड़।

मंद पियइया मनखें मन हा, लाहो लेवैं ठाड़।।

कहाँ सुधर पावत हे कोई, खावँय चाहे मार।

गांव गांव में दारू भट्ठी, खोलत हे सरकार।।


नशा करौ झन कहिके शासन, पीटत रहिथे ढोल।

मंद मिलत हावै सरकारी,  खुल जावत हे पोल।।

कथनी करनी मा अंतर हे, काय कहौं मुँह फार।

गांव गांव में दारू भट्ठी, खोलत हे सरकार।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को नगर कोरबा(छग)

बइरी पइरी(गीत)😥😥

 😥😥बइरी पइरी(गीत)😥😥


कइसे बजथस रे पइरी बता।

मोर  पिया  के,मोर पिया के,

अब  नइ मिले  पता......।।


पहिली सुन,छुनछुन तोर,

दँउड़त    आय     पिया।

अब   वोला    देखे   बर,

तरसत  हे  हाय   जिया।

ओतकेच   घुँघरू  हे,

ओतकेच के साज हे।

फेर काबर बइरी तोर,

बदले    आवाज   हे।

फरिहर  मोर मया ल,

झन तैं मता..........।।


का करहूँ राख अब,

पाँव    मा    तोला।

धनी मोर नइ दिखे,

संसो   होगे  मोला।

पहिरे पहिरे तोला,

अब पाँव लगे भारी।

पिया के बिन कते,

सिंगार  करे  नारी।

धनी  के   रहत  ले,

तोर मोर हे नता..।।


देख नइ  सकेस,

मोर सुख पइरी।

बँधे बँधे पाँव म,

होगेस तैं बइरी।

पिया  के  मन  ला,

काबर नइ भावस।

मया  के गीत अब,

काबर नइ गावस।

मैं  दुखयारी,

मोला झन सता--।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बालको(कोरबा)

मर लगगे फोटू विडियो-कुकुभ छंद

 मर लगगे फोटू विडियो-कुकुभ छंद


कई काम ला चुपेचाप रहि, मनखे ला करना चाही।

सबे चीज के फोटू विडियो, सदा मान थोरे पाही।।


सेवा सत सुख गुण गियान ला, देखाये बर नइ लागे।

तोपे ढाँके के उघरत हे, उघरे के हा तोपागे।।

हवै मनुष के आय जातरी, धारेच धार बोहाही।

कई काम ला चुपेचाप रहि, मनखे ला करना चाही।।


बर बिहाव छट्ठी बरही के, समझ आय विडियो फोटू।

मरनी हरनी जलत लाश ला, नइ छोड़त हावय मोटू।।

रील बनाये के चक्कर मा, नवा जमाना बोहाही।

कई काम ला चुपेचाप रहि, मनखे ला करना चाही।।


फोटू विडियो मा हे नत्ता, असल बइठगे हे भट्ठा।

मरगे हावय मान मनुष के, भक्ति भाव होगे ठट्ठा।।

आँखी मूँदे बर लागत हे, अउ का काली देखाही।

कई काम ला चुपेचाप रहि, मनखे ला करना चाही।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

आज के व्यवस्था ऊपर--कुंडलियाँ छंद

 आज के व्यवस्था ऊपर--कुंडलियाँ छंद


नेता मनके घर मिले, बोरा बोरा नोट।

कखरो डर उन ला नहीं, थरथर काँपय छोट।

थरथर काँपय छोट, चुकावैं पाई पाई।

बड़े खाय मिल बाँट, बने सब भाई भाई।

पइसा जेखर तीर, उही ए विश्व विजेता।

कुर्सी ला पोटार, खाय भारत ला नेता।


भारत भुइयाँ मा हमर, गजब मचे हे लूट।

मनखे आम पिसात हे, बड़का ला हे छूट।

बड़का ला हे छूट, करै रोजे मनमानी।

सुरसा कस मुह फार, खाय नित धन दोगानी।

धरम करम सत मान, बड़े मन हावैं बारत।

साथ देय सरकार, बढ़े आघू का भारत।


लंबा कर कानून के, धरे छोट के घेंच।

बात बड़े के होय ता, फँस जाये बड़ पेंच।

फँस जाये बड़ पेंच, करे का कोट कछेरी।

पद पइसा के तीर, लगावैं सबझन फेरी।

मूंदे आँखी कान, कलेचुप बनके खंबा।

देखे बस कानून, जीभ ला करके लंबा।


खीसा मा धनवान के, अफसर नेता नोट।

डरै आम जन देख के, वर्दी करिया कोट।।

वर्दी करिया कोट, सके छोटे मनखे ले।

गले कभू नइ दाल, बड़े मन उल्टा पेले।

नवें रथे दिनरात, छोट बन खम्भा पीसा।

अकड़ अमीर दिखाय, भरे हे कोठी खीसा।


फ्री के झोरे रेवड़ी, नेता अउ जन खास।।

आम आदमी  हे तभे, होवत हवे विकास।

होवत हवे विकास, फकत कुर्सी वाले के।

मर मोटा नइ पाय, आम जन ला सब छेंके।

कई किसम के टैक्स, देय पानी पी पी के।

मनखे आम कमाय, खाय नेता मन फ्री के।


करजा के दम मा बड़े, बड़े बने हे आज।

लोक लाज के डर नही, नइ हे सगा समाज।

नइ हे सगा समाज, कोन देखाये अँगरी।

रंभा रति नचवाय, मंद पी तीरे टँगड़ी।

इँखरे हे सरकार, भले मर जावैं परजा।

सकल सुरत पद देख, बैंक तक देवै करजा।


फर्जी फाइल ला धरे, होगे बड़े फरार।

रोक छोट के साइकिल, गरजै पहरेदार।

गरजै पहरेदार, दिखाके लउठी डंडा।

नाक तरी धनवान, लुटैं सब ला बन पंडा।

पद पा पूँजी जोर, करैं कारज मनमर्जी।

भागे तज के देश, बनाके फाइल फर्जी।


छोट मँझोलन के रहत, बचे हवै ईमान।

गिरथें उठथें रोज के, बड़े बड़े धनवान।

बड़े बड़े धनवान, चलैं पइसा के दम मा।

धर इज्जत ईमान, जिये छोटे मन कम मा।

जादा के ले चाह, नियत नइ देवैं डोलन।

चादर भीतर पाँव, रखैं नित छोट मँझोलन।


माया पइसा मा मिले, पइसा मा रस रास।

इज्जत देखे जाय नइ, पइसा हे यदि पास।

पइसा हे यदि पास, पास वो सब पेपर मा।

रखे जेन मा हाथ, पहुँच जाये वो घर मा।

पइसा मा धूल जाय, चरित अउ बिरबिट काया।

कोन पार पा पाय, जबर पइसा के माया।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

Monday, 28 July 2025

बरवै छंद- जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया" आ रे बादर(गीत)

 बरवै छंद- जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया" 


आ रे बादर(गीत)


धान पान रुख राई, सबे सुखाय।

ना पानी ना काँजी, सावन काय।


अगिन बरत हे भुइयाँ, हरगे चेत।

बूंद बूंद बर बिलखै, डोली खेत।

मरे मोर कस मछरी, मेंढक मोर।

सबके सुख चोराये, बादर चोर।

सुध बुध अब सब खोगे, मन अकुलाय।

ना पानी ना काँजी, सावन काय।।


निकल जही अइसन मा, मोरे जान।

जादा तैं तड़पा झन, हे भगवान।।

जल्दी आजा जल धर, बादर देव।

खेत किसानी के तैं, आवस नेव।।

भुइयाँ छाँड़य दर्रा, ताल अँटाय।

ना पानी ना काँजी, सावन काय।।


बेटी के बिहाव अउ, बेटा जान।

तोर तीर हे अटके, गउ ईमान।।

देखत रहिथौं तोला, बस दिन रात।

जिनगी मोर बचा दे, आ लघिनात।

बाँचे खोंचे भुइयाँ, झन बेंचाय।।

ना पानी ना काँजी, सावन काय।।


जाँगर टोर सकत हौं, तन जल ढार।

फेर तोर बिन हरदम, होथे हार।

रावण राज लगत हे, सावन मास।

दावन मा बेचाये, खुसी उजास।।

गड़े जिया मा काँटा, धीर खराय।

ना पानी ना काँजी, सावन काय।।


भाग भोंग के मोरे, झन तैं भाग।

करजा बोड़ी बढ़ही, झन दे दाग।

मैं हर साल कलपथौं, छाती पीट।

तैं चुप देखत रहिथस, बनके ढीट। 

बस बरखा बरसा दे, ले झन हाय।

ना पानी ना काँजी, सावन काय।।


जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

Wednesday, 23 July 2025

बरसा घरी तरिया-लावणी छंद

 बरसा घरी तरिया-लावणी छंद


पानी गरमी घरी रिहिस कम, अब टिपटिप ले होगे हे।

लात तान के जीव ताल के, पानी भीतर सोगे हे।।


छिनछिन बाढ़य घाट घठौदा, डूबत हावय पचरी जी।

झिमिर झिमिर जल धार झरत हे, नाचै मेढ़क मछरी जी।

गावत छोटे बड़े मेचका, कूदा मारे पानी मा।

हाथ गोड़ लहरावै कछुवा, बरखा के अगवानी मा।

सबे जीव खुश नाचय गावय, डर दुख संसो खोगे हे।

पानी गरमी घरी रिहिस कम, अब टिपटिप ले होगे हे।


ढेर मरत नइ हवै ढोंड़िहा, सरपट सरपट भागत हे।

लद्दी भीतर बाम्बी मोंगर, सूतत नइहे जागत हे।

बिहना ले मुँधियारी होगे, भइसा भैइसी बूड़े हे।

लइका कस चढ़ चढ़ कूदे बर, मेढ़क मछरी जूड़े हे।

डड़ई डुडुवा रोहू कतला, गरमी भर दुख भोगे हे।

पानी गरमी घरी रिहिस कम, अब टिपटिप ले होगे हे।


पाँखी माँगत हावै पखना, सरलग पानी देख बढ़त।

घूरौं झन कहि डर के मारे, हावय मंतर पार पढ़त।

बने हवै बर पाना डोंगा, सब ला पास बुलावत हे।

मनमाड़े खुश होके लहरा, संझा बिहना गावत हे।

लहू चढ़ाये बर लागत हे, धरे जोंक ला रोगे हे।

पानी गरमी घरी रिहिस कम, अब टिपटिप ले होगे हे।


हरियर हरियर पार दिखत हे, भरे लबालब तरिया हे।

ताल कभू नइ पूछे पाछे, कोन गोरिया करिया हे।

तिरिथ बरोबर तरिया लागे, तँउरे तर जावै चोला।

मुचुर मुचुर मुस्कावत हावै, नन्दी सँग शंकर भोला।

जीव जरी का कमल कोकमा, सबे मया मा मो गे हे।

पानी गरमी घरी रिहिस कम, अब टिपटिप ले होगे हे।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

Thursday, 17 July 2025

बरसात और महँगाई

 बरसात और महँगाई


प्रकृति समस्त जीवों की जीवनदायिनी है। यदि हम मनुष्य उसके नियमों का सम्मान करते हुए समरस जीवन व्यतीत करें और उसे हानि न पहुँचाएँ, तो निःसंदेह हमारा जीवन सुखमय, संतुलित और समृद्ध हो सकता है। किंतु हमारी अतृप्त लालसा, भौतिकता की दौड़ और स्वार्थपरक दृष्टिकोण के कारण हम निरंतर प्रकृति का दोहन कर रहे हैं। परिणामस्वरूप हमें विभिन्न त्रासदियों और आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है—कहीं विनाशकारी बाढ़, कहीं अकाल-सूखा, तो कहीं प्रचंड तूफान। ये सब प्रकृति में उत्पन्न असंतुलन के दुष्परिणाम हैं, और यही असंतुलन कई समस्याओं को जन्म देता है। उनमें से एक समस्या है महँगाई, जो बरसात ऋतु में अपेक्षाकृत बढ़ जाती है। यह महँगाई अधिकतर खाने-पीने की वस्तुओं से संबंधित होती है, क्योंकि बारिश के समय पानी के चलते साग-सब्जियों की फसलें नष्ट हो जाती हैं।


जब प्रकृति संतुलित रहती है, तो वह किसी भी प्राणी को जीवन-आवश्यक वस्तुओं की कमी नहीं होने देती। वर्षा ऋतु इसका उत्तम उदाहरण है। पहली फुहार के साथ ही धरती की गोद में सोए हुए बीज जागृत होकर अंकुरित होते हैं, और निरंतर जल-प्राप्ति से धीरे-धीरे फैलते व फलीभूत होते हैं। वर्षा में पेड़-पौधे खूब बढ़ते हैं, चहुँओर हरियाली नजर आती है। नदी, ताल, कुआँ, बावली अपने पूर्ण रूप में होते हैं। दादुर, मोर, पपीहा वर्षा में खूब गाते-नाचते हैं। कई लोग बरसात के दिनों में पानी से परेशान रहते हैं, वहीं कृषक वर्ग खेतों में काम करते हुए कर्मा, ददरिया की तान छेड़ते हैं। इस समय न केवल पशुओं के लिए चारागाह की सुविधा होती है, बल्कि मनुष्यों को भी बिना किसी श्रम के स्वमेव उगने वाली साग-भाजियाँ प्राप्त होती हैं।


छत्तीसगढ़ में ऐसे स्वतः उगने वाले पौधों और बेलों को लमेरा कहा जाता है, जो ग्रामीण जीवन की पोषण-आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। इनमें चरोटा, जरी, बर्रे, पोई, खोटनी जैसी भाजी के साथ-साथ पिहरी, करील और पुटू जैसे कंद-मूल भी शामिल हैं, जो स्वाद और पोषण दोनों में समृद्ध होते हैं। पेड़ों के कोमल पत्ते जैसे—इमली, बोहार, कोईलार—भी इस मौसम में लाभकारी साग के रूप में उपयोग में आते हैं। बरसात में खेकसी, करेला, कुंदरू खूब फैलते हैं और फलते हैं, जो स्थानीय भोजन व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा हैं।


किन्तु आज के समय में आधुनिकीकरण और विकास की दौड़ ने शहरों के साथ-साथ गाँवों की हरियाली और खाली स्थानों को भी निगल लिया है। कारखानों, सड़कों, पुलों और ऊँचे टावरों की प्रतिस्पर्धा में प्रकृति के पनपने के लिए भूमि का अभाव हो गया है। न खेत बच पा रहा है, न ही ब्यारा, बाड़ी। जब प्रकृति स्वयं ही अपने अस्तित्व को बचा पाने में असमर्थ हो जाती है, तो वह अन्य जीवों को भोजन देने की शक्ति भी खो देती है।


इस असंतुलन का दुष्परिणाम महँगाई, खाद्य संकट और पारिस्थितिक विषमता के रूप में सामने आता है। मनुष्य प्रकृति से दूर होता चला गया है, और बाजार-निर्भर बन गया है, जहाँ व्यापारी केवल लाभ की दृष्टि से कार्य करते हैं। वे जन-संकट का लाभ उठाकर साग-सब्जियों के दाम बढ़ा देते हैं। लेकिन जो प्रकृति के समीप रहते हैं, उन्हें ऐसी समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता; क्योंकि वे लमेरा और अन्य वनस्पतियों को सहज रूप से प्राप्त कर लेते हैं।


बरसात में जब नदी-नाले उफान पर होते हैं, तब मछलियाँ बड़ी मात्रा में दिखाई देती हैं, जो मांसाहारी लोगों के लिए भोजन का स्रोत बन जाती हैं। पहले की पीढ़ियाँ—जैसे दीदी, नानी आदि—साग-सब्जियों को सुखाकर वर्षा में उपयोग हेतु संग्रहित करती थीं। आज की पीढ़ी ने यह परंपरा लगभग छोड़ दी है, जिससे हमें पूर्णतः बाजार की महँगी वस्तुओं पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसे में वही प्राकृतिक उपहार—पिहरी, पुटू, करील—जो कभी सहज उपलब्ध थे, अब ऊँचे दामों में बिकते हैं। यह प्रकृति से दूरी और हमारी सुविधाभोगी मानसिकता का परिणाम है।


प्रकृति सदैव सिखाती है कि जब हम उसके नियमों का सम्मान करते हैं, तो वह हमारी हर आवश्यकता की पूर्ति करती है। लेकिन जब हम स्वार्थ और लालसा में डूब जाते हैं, तो वही प्रकृति अपना संतुलन बिगाड़ देती है। प्रकृति से जितने हम दूर होंगे, उतने ही ज्यादा दुख भी झेलेंगे। अतः हमें प्रकृति के साथ संतुलन बनाए रखते हुए चलना चाहिए। पेड़-पौधों को नहीं काटना चाहिए, बल्कि खेत, मैदान, बाग-बगिचा, बाड़ी-ब्यारा, ताल-नदी और बाँधों के संरक्षण में सक्रिय कार्य करना चाहिए। यदि हम प्रकृति को पोषित करेंगे, तो निःसंदेह वह भी हमें पोषित करेगी; किंतु यदि हम उसे नष्ट करेंगे, तो हमारा भी विनाश निश्चित होगा।


जीतेन्द्र वर्मा "खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

सावन-भादो के व्रत-त्योहार: छत्तीसगढ़ की कृषि संस्कृति, नारी शक्ति और स्वास्थ्य चेतना*

 *सावन-भादो के व्रत-त्योहार: छत्तीसगढ़ की कृषि संस्कृति, नारी शक्ति और स्वास्थ्य चेतना*


छत्तीसगढ़ की प्राचीन संस्कृति में कृषि परंपरा का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रहा है। यहाँ का प्रत्येक व्रत-त्योहार, संस्कृति-संस्कार और पारंपरिक परंपराएँ कहीं न कहीं कृषि से गहराई से जुड़ी होती हैं। धान की भरपूर उपज के कारण इस राज्य को *‘धान का कटोरा’* कहा जाता है, और यहाँ मनाए जाने वाले अधिकांश पर्व धान की बुवाई या कटाई से संबंधित होते हैं, जैसे—अक्ति, जुड़वास, सवनाही, इतवारी, सम्मारी, हरेली, पोला, नवाखाई, छेराछेरा और मेला मड़ाई। अन्य व्रत-त्योहार भी इसी कृषि चक्र से प्रेरित हैं, जो कृषक जीवन की लय और श्रम की गति को संतुलित करते हैं।


छत्तीसगढ़ की संस्कृति में व्रत और त्योहारों का स्थान केवल धार्मिक आस्था तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सामाजिक संरचना, स्वास्थ्य चेतना और कृषक जीवन की आवश्यकताओं से भी गहराई से जुड़ा हुआ है। एक रोचक तथ्य यह है कि वर्ष भर में मनाए जाने वाले अधिकांश प्रमुख त्योहार सावन और भादो मास में ही केंद्रित होते हैं। यह विचारणीय है कि इन्हीं दो महीनों में व्रत-त्योहारों की इतनी अधिकता क्यों होती है, जबकि इन्हें पूरे वर्ष में वितरित किया जा सकता था। इसका उत्तर छत्तीसगढ़ की कृषि संस्कृति, मौसमी परिस्थितियों और सामाजिक जीवन की संरचना में छिपा है।


इन महीनों के त्योहारों की एक विशेषता यह है कि इनमें व्रत आधारित पर्वों की संख्या अधिक होती है। *सावन सोमवारी, हरियाली, हरियाली तीज, पोला, कमरछठ, हलछष्ठी, नागपंचमी, ऋषि पंचमी, राखी, कृष्ण जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी* जैसे पर्व इसी समय मनाए जाते हैं। इन पर्वों में स्त्री-पुरुषों की समान भागीदारी रहती है, परंतु आयोजन और परंपरा का निर्वहन मुख्यतः महिलाओं द्वारा ही किया जाता है। कमरछठ, हलछष्ठी और तीज जैसे व्रत तो पूर्णतः महिलाओं द्वारा ही किए जाते हैं। यह न केवल धार्मिक आस्था का प्रदर्शन है, बल्कि महिलाओं के सामाजिक नेतृत्व, सामूहिक सहभागिता और स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता का भी प्रतीक है।


इन त्यौहारों के अलावा छत्तीसगढ़ में आदि काल से ही ग्राम-घर, खेती-किसानी की सुरक्षा और श्रमिकों को विश्राम देने के उद्देश्य से सप्ताह में एक दिन को पर्व के रूप में मनाने की परंपरा रही है। इसे विभिन्न गाँवों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है—जैसे इतवारी, बुधवारी, गुरुवारी आदि। इन पर्वों के दिन खेतों में कार्य नहीं किया जाता, जिससे कृषकों को मानसिक और शारीरिक विश्राम मिलता है। यह परंपरा सावन-भादो में विशेष रूप से प्रचलित है, जब खेतों में निंदाई-चलाई व रोपाई जैसे कार्य पूरे जोर पर होते हैं, और महिलाएँ कीचड़-भरे खेतों में दिनभर श्रम करती हैं। जिससे उनके हाथ व पैर पानी व कीचड़ के सम्पर्क में गलने लगते हैं। साथ ही लगातार बारिश में भी रहना होता है। ऐसे में यह पर्व उन्हें विश्राम और पुनर्नव ऊर्जा प्रदान करते हैं।


वर्षा ऋतु के चार महीने—सावन, भादो, आश्विन और कार्तिक—को चौमासा कहा जाता है। इस काल में वातावरण में अत्यधिक नमी, जलभराव, कीचड़ और जीवाणुओं की सक्रियता रहती है। परिणामस्वरूप पाचन क्षमता कमजोर हो जाती है और पेट, नाक, कान और गले से जुड़ी बीमारियाँ बढ़ जाती हैं। हमारे पूर्वजों ने इस वैज्ञानिक तथ्य को ध्यान में रखते हुए व्रत-उपवास की परंपरा को जन्म दिया। उपवास के माध्यम से शरीर को विश्राम मिलता है, आहार पर नियंत्रण से स्वास्थ्य सुरक्षित रहता है, और रोगों से बचाव संभव होता है। यह परंपरा न केवल शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभकारी है, बल्कि मानसिक संतुलन और आत्मसंयम का अभ्यास भी कराती है।


सावन-भादो के पर्व कृषक जीवन की आवश्यकता से भी जुड़े हैं। लगातार खेतों में काम करने से कृषकों का स्वास्थ्य प्रभावित हो सकता है। ऐसे में व्रत-त्योहार उन्हें मानसिक और शारीरिक विश्राम प्रदान करते हैं। साथ ही, यह पर्व कृषक वर्ग को कठिन श्रम से कुछ समय के लिए दूर कर सामाजिक और पारिवारिक जीवन से जुड़ने का अवसर भी देते हैं। यदि व्रत-त्योहारों की परंपरा न होती, तो कृषक वर्ग लगातार खेतों में कार्य करता रहता, जिससे उनका स्वास्थ्य और सामाजिक संतुलन बिगड़ सकता था।


इस प्रकार सावन और भादो मास में व्रत-त्योहारों की अधिकता केवल धार्मिक भावना से नहीं, बल्कि वैज्ञानिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आवश्यकता से जुड़ी हुई है। इन पर्वों के माध्यम से न केवल स्वास्थ्य की रक्षा होती है, बल्कि कृषक जीवन को संतुलन और विश्राम भी मिलता है। और इन सबमें महिलाओं की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण और नेतृत्वकारी होती है, जो छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक चेतना, नारी शक्ति और कृषि जीवन की जीवंतता को दर्शाती है।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

Monday, 14 July 2025

गरमी मा ताल नदी-सार छंद

 गरमी मा ताल नदी-सार छंद


देख घाम मा नदिया तरिया, सबके मन ललचाथे।

चटचट जरथे चारो कोती, जुड़ जल जिया लुभाथे।।


 पार पाय नइ नल अउ बोरिंग, नदिया अउ तरिया के।

भेदभाव नइ करे ताल नद, गुरिया अउ करिया के।।

का जवान लइका सियान सब, डुबकी मार नहाथे।

देख घाम मा नदिया तरिया, सबके मन ललचाथे।।


कोनो कूदे कानों तँउरे, कोनो डुबकी मारे।

तन के कतको रोग घलो हा, डुबकत तँउरत होरे।

बुड़े बुड़े पानी के भीतर, कतको बेर पहाथे।

देख घाम मा नदिया तरिया, सबके मन ललचाथे।


लहरा होथे गहरा होथे, डर रहिथे बड़ भारी।

 नइ जाने तँउरें बर तउने, मारे झन हुशियारी॥ 

जीव जंतु तक के ये डेरा, काम सबे के  आथे।

देख घाम मा नदिया तरिया, सबके मन ललचाथे।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

आगे का मानसून(गीत)

 आगे का मानसून(गीत)  


बुलके नइहें मई घलो हा, लागे नइहें जून।

रझरझ रझरझ बरसे पानी, आगे का मानसून।।


नवतप्पा मा चप्पा चप्पा, माते हावय गैरी।

टुहूँ देखाये कस लागत हे, ये बादर बन बैरी।।

कोई बतावव करहूँ बाँवत, खाके बासी नून।।

रझरझ रझरझ बरसे पानी, आगे का मानसून।।


होरी हरिया संसो मा हें, नाँगर धरै कि पेरा।

घर अउ खेत के काम बचे हे, काँपे आमा केरा।।

उमड़त घुमड़त देख बदरा ला, अँउटत हावय खून।

रझरझ रझरझ बरसे पानी, आगे का मानसून।।


साँप सुते नइ हावय मन भर, बतर किरी हे बौना।

कांदी कुल्थी नार लमेरा, जागे तुलसी दौना।।

हरियर होवत हवै धरा, पुरवा छेड़य धून।

रझरझ रझरझ बरसे पानी, आगे का मानसून।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

चौमास मा बिजुरी के डर-हरिगीतिका छंद

 चौमास मा बिजुरी के डर-हरिगीतिका छंद


पानी गिरे चौमास मा, बादर करे गड़गड़ गजब।

जिवरा डरे सुनके अजब, बिजुरी गिरे कड़कड़ गजब।


छाये घटा घनघोर अउ, टकराय घन आगास मा।

बिजुरी गिरे के डर रथे, चारो डहर चौमास मा।।


का जानवर अउ का मनुष, सब बर बिजुरिया काल हे।

घर बन घलो जाथे उजड़, बिजुरी बिकट जंजाल हे।।


गिरही कते कोती बिजुरिया, ये समझ मा आय ना।

फोकट मरे झन पेड़ पउधा ना मनुष गरु गाय ना।।


खींचे बिजुरिया ला अपन कोती सुचालक चीज हर।

रहिथे तड़ित चालक जिहाँ तौने सुरक्षित गाँव घर।।


यमराज बनके गिर जथे, अउ प्राण ला लेथे झटक।

पानी गिरत रहिथे गजब ता, बाग बन मा झन भटक।।


बादर गजब गर्जन करे तब, टेप टीवी बंद रख।

नित होश मा रहि काम कर, मुख मा कहानी छंद रख।।


बाहिर हवस ता बैठ उखड़ू, मूंद के मुँह कान ला।

रख जानकारी सावधानी अउ बचाले जान ला।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

हरेली हरियर हरियर

 हरेली हरियर हरियर 


दिखे खेत-खार हरियर।

 डोंगरी पहाड़ हरियर ।

 मन   होगे   बरपेली, हरियर -हरियर।

 आय हे हरेली, हरियर-हरियर।।


 खोंच लेना डारा , निमवा के डेरउठी म। 

चढ़ के देख एक घांव, गेड़ी के पंऊठी  म।

 बड़ मजा आही, मन ह हरसाही।

 नहा-खोर हुम दे दे, पानी फरिहर-फरिहर।।।। 

आय हे हरेला...........।


 हे थारी म चीला, जुरे हवय माई-पिला। 

धोके नांगर-जुड़ा। गेड़ी मचे टुरा। 

माड़े टँगिया-बसला आरी। 

चढ़े पान फूल-सुपारी। 

चढ़ा बंदन-चन्दन, फोड़ ठक-ठक नरियर।।।। 

आय हे हरेला...........। 


हे महुतुर तिहार के, संसो-फिकर ल टार के। 

मानव धरती दाई ल, डारा-पाना रुख-राई ल। 

थेभा मा किसानी के सरी चीज हर।।

 आय हे...........।    


    जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"       

   बाल्को(कोरबा)

गुरु-कुंडलियाँ

 गुरु-कुंडलियाँ


होवै गुरुवर के कृपा, बाढ़ै तब गुण ज्ञान।

चेला के चरचा चले, पावै यस जस मान।।

पावै यस जस मान,गुणी अउ ज्ञानी बनके।

पा गुरु के आशीष,चलै नित चेला तनके।।

देख जगत इतिहास, बिना गुरु ज्ञानी रोवै।

गुरु हे जेखर तीर, ओखरे यस जस होवै।।


दुरगुन ला दुरिहा करे, मार ज्ञान के तीर।

बड़े कहाए देव ले, गुरु ए गंगा नीर।।

गुरु ए गंगा नीर, शरण आये ला तारे।

अँधियारी दुरिहाय, ज्ञान के जोती बारे।।

बने ठिहा के नेंव, सबर दिन छेड़े सत धुन।

जे घट गुरु के वास, तिहाँ ले भागे दुरगुन।।


गुरु के गुण अउ ज्ञान ले, खुलै शिष्य के भाग।

जगा शिष्य ला नींद ले, धोय चरित के दाग।।

धोय चरित के दाग, हाथ चेला के धरके।

चेला होय सजोर, सहारा पा गुरुवर के।।

हाँकिस जीवन डोर, कृष्ण बल पार्थ पुरु के।

महिमा अपरंपार, जगत मा हावै गुरु के।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)




घर की नाली जाम है, और कोसी की बात कर रहे हो।

चाटुकारिता में जुबान है और सरफ़रोशी की बात कर रहे हो।

बाप ही कातिल है, जमाने का, यह जानते हो फिर भी,

दोषी में लिस्ट में पड़ोसी की बात कर रहे हो।।

बरसात और महँगाई

 बरसात और महँगाई


प्रकृति समस्त जीवों की जीवनदायिनी है। यदि हम सब मनुष्य उसके नियमों का सम्मान करते हुए समरस जीवन व्यतीत करे, और उसे हानि न पहुँचाये तो निःसंदेह हमारा जीवन सुखमय, संतुलित और समृद्ध हो सकता है। किंतु हमारी अतृप्त लालसा, भौतिकता की दौड़ और स्वार्थपरक दृष्टिकोण के कारण हम निरंतर प्रकृति का दोहन  कर रहे हैं। परिणामस्वरूप हमें विभिन्न त्रासदियों और आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है—कहीं विनाशकारी बाढ़, कहीं अकाल-सूखा, तो कहीं प्रचंड तूफान। ये सब प्रकृति में उत्पन्न असंतुलन के दुष्परिणाम हैं, और उही असंतुलन कई समस्याओं को जन्म देती है। उनमें से एक समस्या है,महँगाई। जो बरसात ऋतु में अपेक्षाकृत बढ़ जाती है, और यह महँगाई ज्यादातर खाने पीने के वस्तुओं से सम्बंधित रहती है। क्योकि बारिश के समय पानी के चलते साग सब्जियों के फसल नष्ट हो जाते हैं। 


            जब प्रकृति संतुलित रहती है, तो वह किसी भी प्राणी को जीवन-आवश्यक वस्तुओं की कमी नहीं होने देती। वर्षा ऋतु इसका उत्तम उदाहरण है। पहली वर्षा की फुहार के साथ ही धरती की गोद में सोए हुए बीज जागृत होकर अंकुरित होते हैं, और निरंतर जल-प्राप्ति से धीरे-धीरे फैलते व फलीभूत होते हैं। वर्षा ऋतु में पेड़ पौधे खूब बढ़ते है। चहुँओर हरियाली नजर आती है। नदी, ताल, कुआँ, बावली अपने पूर्ण रूप में होते है। दादुर, मोर, पपीहा वर्षा ऋतु में खूब गाते नाचते हैं। कई लोग बरसात के दिनों में पानी से परेशान रहते है, वहीं कृषक वर्ग खेतों में काम करते हुए कर्मा, ददरिया की तान छेड़ते है। इस समय न केवल पशुओं के लिए चारागाह की सुविधा होती है, बल्कि मनुष्यों को भी बिना किसी श्रम के स्वमेव उगने वाली साग-भाजियाँ प्राप्त होती हैं। छत्तीसगढ़ में ऐसे स्वतः उगने वाले पौधों और बेलों को "लमेरा" कहा जाता है—जो वर्षा ऋतु में ग्रामीण जीवन की पोषण-आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। इनमें चरोटा, जरी, बर्रे, पोई, खोटनी जैसी भाजी के साथ-साथ पिहरी, करील और पुटू जैसी कंद-मूल भी आती हैं, जो स्वाद और पोषण दोनों में समृद्ध होती हैं। साथ ही, पेड़ों के कोमल पत्ते जैसे इमली, बोहार, कोईलार आदि भी इस मौसम में लाभदायक साग के रूप में उपयोग किए जाते हैं।  बारिश के मौसम में खेकसी, करेला, कुंदरू भी खूब फैलते हैं, और फलते हैं। ये सब बरसात में साग भाजी के रूप में काम आते है। पर आज के समय में आधुनिकीकरण और विकास की दौड़ ने शहरों के साथ-साथ गांवों की भी हरियाली और खाली स्थानों को निगल लिया है। कारखाने, सड़कों, पुलों, ऊँचे टावरों की प्रतिस्पर्धा में ऐसी भूमि का अभाव हो गया है जहाँ प्रकृति स्वतंत्र रूप से पनप सके। न खेत बच पा रहा है, और न ही ब्यारा, बाड़ी। जब प्रकृति स्वयं ही अपने अस्तित्व को बचा पाने में असमर्थ हो, तो वह जीवन को भोजन देने की शक्ति भी खो देती है।


इस असंतुलन का दुष्परिणाम महंगाई, खाद्य संकट और पारिस्थितिक संकट के रूप में सामने आता है।मनुष्य प्रकृति से दूर होते हुए, बाजार-निर्भर हो गया है, जहाँ व्यापारी केवल लाभ के उद्देश्य से कार्य करते हैं। वे जन-संकट का लाभ उठाकर साग-सब्जियों के दाम बढ़ा देते हैं। लेकिन जो प्रकृति के समीप रहते हैं, उन्हें ऐसी समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता; क्योंकि वे लमेरा और अन्य साग-भाजियों को सहज रूप से प्राप्त कर लेते हैं।


              बरसात में जब नदी-नाले उफान पर होते हैं, तब मछलियाँ भी बृहद मात्रा में दिखाई देने लगती हैं, जो मांसाहारी लोगों के लिए भोजन का स्रोत बन जाती हैं। पहले की पीढ़ियाँ, जैसे दीदी-नानी आदि, साग-सब्जियों को सुखाकर वर्षा में उपयोग के लिए संग्रहित करती थीं। आज की पीढ़ी ने यह परंपरा लगभग छोड़ दी है, जिससे हमें पूर्णतः बाजार की महँगी वस्तुओं पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसे में वही प्राकृतिक उपहार—पिहरी, पुटू, करील—जो कभी सहज उपलब्ध थे, ऊँचे दामों में बिकते हैं। यह प्रकृति से दूरी और हमारी सुविधाभोगी मानसिकता का परिणाम है।


प्रकृति सदैव हमें सिखाती है कि जब हम उसके नियमों का सम्मान करते हैं, तो वह हमारी हर आवश्यकता की पूर्ति करती है। लेकिन जब हम स्वार्थ और लालसा में डूब जाते हैं, तो वही प्रकृति संतुलन बिगाड़ देती है। प्रकृति से जितने हम दूर होंगें ,उतने ही ज्यादा दुख भी झेलेंगें। इसलिए हमें प्रकृति के साथ संतुलन बनाए रखते हुए चलना चाहिए। पेड़ पौधों को नही काटना चाहिए, ज्यादा से ज्यादा खेत, मैदान, बाग-बगीचा,बाड़ी-ब्यारा, ताल नदी व बांधों आदि के संरक्षण में कार्य करना चाहिए। यदि हम प्रकृति को पोसेंगे तो निःसन्देह वह हमें पोसेंगी, और यदि हम नष्ट करेंगे टी हमारा भी विनाश सुनिश्चित है।


बरसात और महँगाई


प्रकृति समस्त जीवों की जीवनदायिनी है। यदि हम मनुष्य उसके नियमों का सम्मान करते हुए समरस जीवन व्यतीत करें और उसे हानि न पहुँचाएँ, तो निःसंदेह हमारा जीवन सुखमय, संतुलित और समृद्ध हो सकता है। किंतु हमारी अतृप्त लालसा, भौतिकता की दौड़ और स्वार्थपरक दृष्टिकोण के कारण हम निरंतर प्रकृति का दोहन कर रहे हैं। परिणामस्वरूप हमें विभिन्न त्रासदियों और आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है—कहीं विनाशकारी बाढ़, कहीं अकाल-सूखा, तो कहीं प्रचंड तूफान। ये सब प्रकृति में उत्पन्न असंतुलन के दुष्परिणाम हैं, और यही असंतुलन कई समस्याओं को जन्म देता है। उनमें से एक समस्या है महँगाई, जो बरसात ऋतु में अपेक्षाकृत बढ़ जाती है। यह महँगाई अधिकतर खाने-पीने की वस्तुओं से संबंधित होती है, क्योंकि बारिश के समय पानी के चलते साग-सब्जियों की फसलें नष्ट हो जाती हैं।


जब प्रकृति संतुलित रहती है, तो वह किसी भी प्राणी को जीवन-आवश्यक वस्तुओं की कमी नहीं होने देती। वर्षा ऋतु इसका उत्तम उदाहरण है। पहली फुहार के साथ ही धरती की गोद में सोए हुए बीज जागृत होकर अंकुरित होते हैं, और निरंतर जल-प्राप्ति से धीरे-धीरे फैलते व फलीभूत होते हैं। वर्षा में पेड़-पौधे खूब बढ़ते हैं, चहुँओर हरियाली नजर आती है। नदी, ताल, कुआँ, बावली अपने पूर्ण रूप में होते हैं। दादुर, मोर, पपीहा वर्षा में खूब गाते-नाचते हैं। कई लोग बरसात के दिनों में पानी से परेशान रहते हैं, वहीं कृषक वर्ग खेतों में काम करते हुए कर्मा, ददरिया की तान छेड़ते हैं। इस समय न केवल पशुओं के लिए चारागाह की सुविधा होती है, बल्कि मनुष्यों को भी बिना किसी श्रम के स्वमेव उगने वाली साग-भाजियाँ प्राप्त होती हैं।


छत्तीसगढ़ में ऐसे स्वतः उगने वाले पौधों और बेलों को लमेरा कहा जाता है, जो ग्रामीण जीवन की पोषण-आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। इनमें चरोटा, जरी, बर्रे, पोई, खोटनी जैसी भाजी के साथ-साथ पिहरी, करील और पुटू जैसे कंद-मूल भी शामिल हैं, जो स्वाद और पोषण दोनों में समृद्ध होते हैं। पेड़ों के कोमल पत्ते जैसे—इमली, बोहार, कोईलार—भी इस मौसम में लाभकारी साग के रूप में उपयोग में आते हैं। बरसात में खेकसी, करेला, कुंदरू खूब फैलते हैं और फलते हैं, जो स्थानीय भोजन व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा हैं।


किन्तु आज के समय में आधुनिकीकरण और विकास की दौड़ ने शहरों के साथ-साथ गाँवों की हरियाली और खाली स्थानों को भी निगल लिया है। कारखानों, सड़कों, पुलों और ऊँचे टावरों की प्रतिस्पर्धा में प्रकृति के पनपने के लिए भूमि का अभाव हो गया है। न खेत बच पा रहा है, न ही ब्यारा, बाड़ी। जब प्रकृति स्वयं ही अपने अस्तित्व को बचा पाने में असमर्थ हो जाती है, तो वह अन्य जीवों को भोजन देने की शक्ति भी खो देती है।


इस असंतुलन का दुष्परिणाम महँगाई, खाद्य संकट और पारिस्थितिक विषमता के रूप में सामने आता है। मनुष्य प्रकृति से दूर होता चला गया है, और बाजार-निर्भर बन गया है, जहाँ व्यापारी केवल लाभ की दृष्टि से कार्य करते हैं। वे जन-संकट का लाभ उठाकर साग-सब्जियों के दाम बढ़ा देते हैं। लेकिन जो प्रकृति के समीप रहते हैं, उन्हें ऐसी समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता; क्योंकि वे लमेरा और अन्य वनस्पतियों को सहज रूप से प्राप्त कर लेते हैं।


बरसात में जब नदी-नाले उफान पर होते हैं, तब मछलियाँ बड़ी मात्रा में दिखाई देती हैं, जो मांसाहारी लोगों के लिए भोजन का स्रोत बन जाती हैं। पहले की पीढ़ियाँ—जैसे दीदी, नानी आदि—साग-सब्जियों को सुखाकर वर्षा में उपयोग हेतु संग्रहित करती थीं। आज की पीढ़ी ने यह परंपरा लगभग छोड़ दी है, जिससे हमें पूर्णतः बाजार की महँगी वस्तुओं पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसे में वही प्राकृतिक उपहार—पिहरी, पुटू, करील—जो कभी सहज उपलब्ध थे, अब ऊँचे दामों में बिकते हैं। यह प्रकृति से दूरी और हमारी सुविधाभोगी मानसिकता का परिणाम है।


प्रकृति सदैव सिखाती है कि जब हम उसके नियमों का सम्मान करते हैं, तो वह हमारी हर आवश्यकता की पूर्ति करती है। लेकिन जब हम स्वार्थ और लालसा में डूब जाते हैं, तो वही प्रकृति अपना संतुलन बिगाड़ देती है। प्रकृति से जितने हम दूर होंगे, उतने ही ज्यादा दुख भी झेलेंगे। अतः हमें प्रकृति के साथ संतुलन बनाए रखते हुए चलना चाहिए। पेड़-पौधों को नहीं काटना चाहिए, बल्कि खेत, मैदान, बाग-बगिचा, बाड़ी-ब्यारा, ताल-नदी और बाँधों के संरक्षण में सक्रिय कार्य करना चाहिए। यदि हम प्रकृति को पोषित करेंगे, तो निःसंदेह वह भी हमें पोषित करेगी; किंतु यदि हम उसे नष्ट करेंगे, तो हमारा भी विनाश निश्चित होगा।


जीतेन्द्र वर्मा "खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

लोकगीत-सरसी छंद गीत

 लोकगीत-सरसी छंद गीत


लोकगीत आये हम सबके, अंतस के आवाज।

सुआ ददरिया कर्मा पंथी, करे जिया मा राज।।


बोह भोजली बेटी माई, लहर तुरंगा गाँय।

थपड़ी पिट पिट सुआ नाचके, सबके जिया लुभाँय।।

बर बिहाव अउ पंथी जस के, मनभावन अंदाज।

लोकगीत आये हम सबके, अंतस के आवाज।।


दरद भुलाके छेड़ ददरिया, बूता करें किसान।

नाचें कर्मा ताल मा झुमके, लइका संग सियान।।

सवनाही साल्हो अउ डंडा, जतरा धनकुल साज।

लोकगीत आये हम सबके, अंतस के आवाज।।


बाँस पंडवानी दोहा मा, कथा कथन भरमार।

ढोलामारू लोरिक चंदा, फागुन फाग बहार।।

नगमत गौरा खेल गीत मा, झूमें सरी समाज।

लोकगीत आये हम सबके, अंतस के आवाज।।


सोहर लोरी भजन भर्थरी, बाँटे भरभर प्रीत।

जनम बिहाव परब अउ ऋतु के, अबड़ अकन हे गीत।।

गायें गाना छत्तीसगढ़िया, करत अपन सब काज।

लोकगीत आये हम सबके, अंतस के आवाज।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

Wednesday, 4 June 2025

काल कस तरिया (दोहा चौपाई)

 काल कस तरिया (दोहा चौपाई)


*तरिया के गत देख के, देथँव मुँह ला फार|*

*एक समय सबझन जिहाँ, लगर नहावै मार|*


*आज हाल बेहाल हे, लिख के काय बताँव।*

*जिवरा थरथर काँपथे, सुन तरिया के नाँव।*


कोन जनी काखर हे बद्दी। तरिया भीतर बड़ हे लद्दी।

सुते ढ़ोड़िहा लामा लामी। धँसे मोंगरी रुदवा बामी।।


तुलमुलाय बड़ मेंढक मछरी। काई मा रचगे हे पचरी।

घोंघा घोंघी जोक जमे हे। सुँतई भीतर जीव रमे हे।


कमल सिंघाड़ा जलकुंभी जड़। पानी उप्पर फइले हे बड़।

उरइ ओगला कुकरी काँदा। लामे हावै जइसे फाँदा।।


टूट गिरे हे बम्हरी डाला। पुरे मेकरा जेमा जाला।

सड़ सड़ मरगे थूहा फुड़हर। सांस आखरी लेय कई जर।


गाद ढेंस चीला हे भारी। नरम कई ता कुछ जस आरी।

जड़ उपजे हे कई किसम के। थकगे हावै पानी थमके।


घाट घठौंदा काँपत हावय। जघा केकड़ा नापत हावय।

तुलमुल तुलमुल करे तलबिया। उफले हे मंजन के डबिया।


भैंसा भैंसी तँउरे नइ अब। मनुष कमल बर दँउड़े नइ अब।

कोन पोखरा जरी निकाले। कोन फोकटे आफत पाले।।


किचकिच किचकिच करे केचुआ। पेट गपागप भरे केछुवा।

चले नाँव कस कीरा करिया। रदखद लागै अब्बड़ तरिया।


बतख कोकडा अउ बनकुकरी। दिखय काखरो नइ अब टुकड़ी।

चिरई चिरगुन डर मा काँपे। मनुष तको कोई नइ झाँके।


*दहरा हे लहरा नही, पानी हे जलरंग।*

*जड़ अउ जल के बीच मा, छिड़े हवै बड़ जंग।।*


*पानी के जस हाल हे, तस फँसगे हे पार।*

*कीरा काँटा काँद धर, पारत हे गोहार।।*


पार तको के हालत बद हे। काँटा काँद उगे रदखद हे।

खजुर केकड़ा चाँटा चाँटी। पार उपर पइधे हे खाँटी।।


बम्हरी बोइर अमली बिरवा। बेला मा ढँकगे हे निरवा।

हवै मोखला गुखरू काँटा। चारो कोती हे बन भाँटा।


सोये जागे आड़ा आड़ी। हवै बेसरम अब्बड़ भारी।

झुँझकुर छँइहा बर पीपर के। सुरुज देव तक भागे डरके।


हले हवा मा झूला बर के। फंदा जइसे सर सर सरके।

मटका पीपर मा झूलत हे। पासा जइसे फर ढूलत हे।


बिच्छी रेंगे डाढ़ा टाँगे। चाबे ते पानी नइ माँगे।।

घिरिया झींगुर उद बनबिल्ली। करे रात दिन चिल्लम चिल्ली।


बिखहर नागिन बिरवा नाँपे। देख नेवला थरथर काँपे।

हे दिंयार मन के घरघुँदिया। सरपट दौड़त हे छैबुँदिया।


घउदे हे बड़ निमवा बुचुवा। भिदभिद भिदभिद भागे मुसुवा।

फाँफा चिटरा मुड़ी हलाये। घर खुसरा घुघवा नरियाये।।


भूत प्रेत के लागे माड़ा। कुकुर कोलिहा चुँहके हाड़ा।

डर मा कतको मनुष मरे हे। कतको कइथे जीव परे हे।


देख जुड़ा जावै नस नाड़ी। पार उपर के झुँझकुर झाड़ी।

काल ताल मा डारे डेरा। नइ लगाय मनखे मन फेरा।


*मन्दिर तरिया पार के, हे खँडहर वीरान।*

*पानी बिन भोला घलो, होगे हे हलकान।*


*तरिया आना छोड़ दिस, जबले मनखे जात।*

*तबले खुशी मनात हे, जींव जंतु जर पात।।*


मनखे के नइ पाँव पड़त हे। जींव जंतु जर पेड़ बढ़त हे।

मछरी मेढक बड़ मोटावै। कछुवा पथरा तरी उँघावै।।


करे साँप हा सलमिल सलमिल। हांसे कमल बिहनिया ले खिल।

पेड़ पात घउदत हे भारी। पटय सबे के सब सँग तारी।


रंग रंग के फुलवा महके। चिरई चिरगुन चिंव चिंव चहके।

खड़े पेड़ सब मुड़ी नँवाके, गूँजै सरसर गीत हवा के।


तिरथ बरोबर राहय तरिया। नाहै जिहाँ गोरिया करिया।

बइला भैसा मनखे बूड़े। दया मया सब उप्पर घूरे।।


दार चुरे तरिया पानी मा। राहै शामिल जिनगानी मा।

करे सबो झन दतुन मुखारी। नाहै धोवै ओरी पारी।


घाम घरी दुबला हो जावै। बरसा पानी पी मोटावै।

लहरा गावै गुरतुर गाना। मछरी कस तँउरे बर पाना।


सुबे शाम डुबके लइका मन। तन सँग मन तक होवै पावन।

छोटे बड़े सबे झन नाहै। तरिया के सुख सब झन चाहै।


अब होगे घर मा बोरिंग नल। चौबिस घण्टा निकलत हे जल।

आगे हे अब नवा जमाना। नाहै घर मा दादा नाना।


हाँसय सब सुख सुविधा धरके। मनखे मन अब होगे घर के।

शहर लहुटगे गाँव जिहाँ के। हाल अइसने हवै तिहाँ के।।


*नेता मन जुरियाय हें, देख ताल के हाल।*

*तरिया ला सुघराय बर, फेकत हावै जाल।*


*जीव जंतु मरही गजब, कटही कतको पेड़।*

*हो जाही क्रांकीट के, घाट घठौदा मेड।।*


*सुंदरता जब बाढ़ही, मनखे करही राज।*

*जीव जंतु झूमत हवै,पेड़ पात सँग आज।*


जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

Monday, 2 June 2025

गीत-भाँखा छत्तीसगढ़ी मोर

 गीत-भाँखा छत्तीसगढ़ी मोर


ये भाँखा छत्तीसगढ़ी मोर।

बाँधे सब ला जइसे डोर।।

बोले बर मँय नइ छोड़ँव....


ये महतारी के ए बानी।

बहे बनके अमृत पानी।।

घर गाँव गली बन खोर।

सबे खूँट हावय एखर शोर।

बोले बर मँय नइ छोड़ँव....


समाथे अंतस मा जाके।

मिठाथे जइसे फर पाके।।

आलू बरी मुनगा के फोर।

डुबकी अउ इड़हड़ के झोर।

बोले बर मँय नइ छोड़ँव....


बोले मा लाज शरम काके।

बोलव सब छाती ठठाके।।

मन के अहं वहं ला टोर।

मया मीत बानी मा लौ घोर।

बोले बर कोई झन छोड़व....


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

दूअर्थी गीत- कुकुभ छंद

 दूअर्थी गीत- कुकुभ छंद


छत्तीसगढ़ मा बढ़त जात हे, दूअर्थी गीत गवइया।

कला गला के वो मन दुश्मन, संस्कृति संस्कार मतइया।।


मिंझरत हावय नाच गान मा, दुर्गुण हर बारा जाती।

अइसन अइसन गीत बनत हे, सुनके फट जाथे छाती।

मुड़ मा चढ़ कतको छपरी मन, नाचत हें ताता थइया।

छत्तीसगढ़ मा बढ़त जात हे, दूअर्थी गीत गवइया।


लाइक व्यूह कमेंट पाय बर, गिर जावत हें लद्दी मा।

अंत अती के हब ले होही, बड़ ताकत हे बद्दी मा।।

बने बने जे लिखही गाही, जस होही ओखर भइया।

छत्तीसगढ़ मा बढ़त जात हे, दूअर्थी गीत गवइया।।


करू कसा नइ टिके जगत मा, जानत हावय तभ्भो ले।

नाक कान अउ गर कटवाके, जहर जगत मा वो घोले।।

मान गिराये महतारी के, बुड़ जाये ओखर नइया।।

छत्तीसगढ़ मा बढ़त जात हे, दूअर्थी गीत गवइया।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

हरियर सोना-तेंदू पाना

 हरियर सोना-तेंदू पाना


भरे जेठ बैसाख मा, बन डिहि डोंगर घूम के

टोरे तेंदू पान ला, छत्तीसगढ़िया झूम के।।


हरियर सोना एखर नाम। आय बिड़ी बनाय के काम।।

छत्तीसगढ़ मा होत बिहान। टोरे बड़ झन तेंदू पान।।


लइका लोग जवान सियान। घरभर दै टोरे मा ध्यान।।

तोड़य गुरतुर गावत गीत। डर जर अउ आलस ला जीत।


छेड़ ददरिया कर्मा तान। संगी साथी फूल मितान।।

ओली बना कमर पट बाँध। कखरो झोला झूले खाँध।।


पान टोर के घर मा लाय। गिन पचास के जुरी बनाय।

ठाड़ घाम मा देय सुखाय। सूखे ता बेचे बर जाय।।


पान बेच के पाये दाम। इही आय गरमी के काम।।

ट्रक मा भरा जाय गोदाम। जमा होय जहँ पात तमाम।


रोजगार दै ये उपज, बन तीरन के गाँव ला।

बन नद खनिज बढ़ाय नित, दक्षिण कौशल नाँव ला।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छह)

नवतप्पा के घाम-सरसी छंद

 नवतप्पा के घाम-सरसी छंद


अल्थी कल्थी भूंजत हावै, नवतप्पा के घाम।

आकुल ब्याकुल जिनगी होगे, का बिहना का शाम।।


आग लगे हे घर के भीतर, बाहिर ला दे छोड़।

सोच समझ नइ पावत हे मन, उसलत नइहे गोंड़।।

चले झांझ झोला बड़ भारी, थमगे बूता काम।

अल्थी कल्थी भूंजत हावै, नवतप्पा के घाम।।


पक्का हावै ठिहा ठिकाना, पक्का गली दुवार।

सड़क साँप कस फुस्कारत हे, खाके अपने गार।।

तरिया नदिया नरवा पटगे, कटगे पेड़ तमाम।

अल्थी कल्थी भूंजत हावै, नवतप्पा के घाम।।


बदल डरे हन रूप प्रकृति के, कहिके हमन विकास।

आफत बाढ़त जावत हे अब, होय चैन सुख नास।।

पानी बिना बुझावत हावै, जीव जंतु के नाम।

अल्थी कल्थी भूंजत हावै, नवतप्पा के घाम।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

गरमी मा ताल नदी स्नान-सार छंद

 गरमी मा ताल नदी स्नान-सार छंद


देख घाम मा नदिया तरिया, सबके मन ललचाथे।

चटचट जरथे चारो कोती, जुड़ जल जिया लुभाथे।।


पार पाय नइ नल अउ बोरिंग, नदिया अउ तरिया के।

भेदभाव नइ करे ताल नद, गुरिया अउ करिया के।।

का जवान लइका सियान सब, डुबकी मार नहाथें।

देख घाम मा नदिया तरिया, सबके मन ललचाथे।।


कोनो कूदे कानों तँउरे, कोनो डुबकी मारे।

तन के कतको रोग रई हा, डुबकत तँउरत हारे।

बुड़े बुड़े पानी के भीतर, कतको बेर पहाथे।

देख घाम मा नदिया तरिया, सबके मन ललचाथे।


लहरा होथे गहरा होथे, डर तक रहिथे भारी।

नइ जाने तँउरें बर तउने, मारे झन हुशियारी॥ 

जीव जंतु तक के ये डेरा, काम सबे के आथे।

देख घाम मा नदिया तरिया, सबके मन ललचाथे।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

Wednesday, 14 May 2025

गीत-भाँखा छत्तीसगढ़ी मोर

 गीत-भाँखा छत्तीसगढ़ी मोर


ये भाँखा छत्तीसगढ़ी मोर।

बाँधे सब ला जइसे डोर।।

बोले बर मँय नइ छोवँव....


ये महतारी के ए बानी।

बहे बनके अमृत पानी।।

घर गाँव गली बन खोर।

सबे खूँट हावय एखर शोर।

बोले बर मँय नइ छोवँव....


समाथे अंतस मा जाके।

मिठाथे जइसे फर पाके।।

आलू बरी मुनगा के फोर।

डुबकी अउ इड़हड़ के झोर।

बोले बर मँय नइ छोवँव....


बोले मा लाज शरम काके।

बोलव सब छाती ठठाके।।

मन के अहं वहं ला टोर।

मया मीत बानी मा लौ घोर।

बोले बर कोई झन छोवव....


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)


Monday, 28 April 2025

नृत्य/नाच:- तब अउ अब

 "अतंर्राष्ट्रीय डांस डे" के अवसर म


नृत्य/नाच:- तब अउ अब


                     बर बिहाव, छट्ठी बरही, पार्टी सार्टी, भागवत, रमायण कस चाहे कुछु भी जुराव या मंगल के कार्यक्रम होय आज बिना नाच(नृत्य) के नइ होत हे। नृत्य जे युगों युगों ले चलत आवत हे, ता आज भला कइसे रुक जही। बल्कि आज तो दुनिया के लगभग 80-85% मनखें नाचत गावत दिखथें। एक जमाना रिहिस जब नचइया गिनती के राहय। सुनब मा आथे कि स्वर्ग लोक मा रम्भा, मेनका, उर्वशी, तिलोत्तमा कस गन्धर्व कन्या मन नाच करें। अउ उही मन ला पृथ्वी लोक मा घलो राजा अउ राक्षस मन अपन शक्ति के दम मा नचावै। खैर वो समय ला छोड़व। जब 1912 मा दादा साहब फाल्के फिलिम बनाए के सोचिस ता वो बेरा मा, उन मन चारो मुड़ा नृत्यांगना अउ फिलिम बर हीरोइन खोजिस, फेर उन ला निरासा हाथ लगिस, आखिर मा पुरुष कलाकार मन ही स्त्री पात्र के रोल करिन। एक दौर रिहिस जब नचई ला बने नइ समझे जावत रिहिस। अउ जे नाचे गावै तेला समाज मा घलो बने मान सम्मान नइ मिलत रिहिस। नोनी मन के शादी बिहाव मा घलो नचई गवई अड़ंगा डाल देवत रिहिस। फेर धीरे धीरे समाज स्वीकारत गिस अउ आज के स्थिति ला तो सब देखतेच हन।

                 लगभग 200 ईसापूर्व मा भरत मुनि नाट्य शास्त्र के रचना करे रिहिन, जिहाँ रंगमंच, नृत्य अउ संगीत के वर्णन मिलथे।  ऋग्वेद के श्लोक मन मा घलो नृत्य के वर्णन हे। प्राचीन वैदिक धर्म ग्रंथ मन मा देवी देवता मन ला घलो नृत्य करे के चित्रण करे गय हे। भगवान शंकर ला तो साक्षात नटराज घलो कहे जाथे।नृत्य करत नटराज के मूर्ति सहज दिखथे। महाभारत मा वर्णन हे, कि अर्जुन हा इंद्रलोक मा नृत्य अउ संगीत के शिक्षा लिए रिहिन। त्रेता युग मा भगवान कृष्ण अउ गोपी मन के द्वारा प्रस्तुत रास नृत्य के वर्णन मिलथे। नृत्यकला 64 कला मा अपन एक महत्वपूर्ण स्थान रखथे। एक मात्र भगवान कृष्ण ला सम्पूर्ण 64 कला मा पारंगत बताए गय हे।

                  वैदिक काल मा नृत्य, देवी देवता मनके आराधना अउ पूजा पाठ करत बेरा करे जावत रिहिस, फेर धीरे धीरे समय अनुसार जम्मों मंगल काज, ताहन फेर मनखें मन के मनोरंजन बर होय लगिस। मोहनजोदड़ो के खुदाई मा प्राप्त तांबा के मूर्ति मन के भाव भंगिमा ला देखे ले नृत्य के पुष्टि होथे। प्राचीन काल में नृत्य के एकमात्र उद्देश्य रिहिस- धार्मिक अउ आधात्मिक उद्देश्य के पूर्ति बर देवी देवता मन के नाच नाच आराधना अउ पूजा। जे शास्त्रीय नियम अउ लय ताल मा बँधाये रहय। भक्तिकाल में रामलीला अउ अउ कृष्णलीला कस कतको दैविक कथा ला नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत करे के वर्णन मिलथे। समय बीतत राजा महाराज अउ मुगलकाल मा नृत्य राजदरबार मा मनोरंजन अउ सभा सदन के मन बहलाये बर होय लगिस। आज घलो विभिन्न अवसर मा नृत्य देखे बर मिलथे।

                  अलग अलग देश, राज अउ क्षेत्र के अलग अलग नृत्य देखब मा मिलथे। पहली भारतीय नृत्य कला के सिर्फ दुई रूप रिहिस शास्त्रीय नृत्य अउ लोक नृत्य। शास्त्रीय नृत्य मा भरतनाट्यम, कत्थक, कत्थक्कली, कुचिपुड़ी, ओड़िसी, मणिपुरी, मोहनीअट्टम,सत्रिया जइसन नृत्य शामिल हे, ता लोक नृत्य मा  भांगड़ा, गरबा, गिद्दा, चौ, लावणी, कर्मा, घूमर कस  नृत्य मन के नाम आथे। बॉलीवुड नृत्य मा ये दुनो के सम्मिश्रण ले विशेष शैली मा नृत्य होय लगिस। एखर आलावा समय के साथ साथ वैश्विक प्रभाव पड़त गिस, अउ  पश्चिमी नृत्य घर करत गिस। ब्रेक डांस,  हिपहॉप, स्विंग, कांट्रा कस कतको नृत्य देखे बर मिले लगिस। समकालीन नृत्य घलो भारतीय नृत्य मा झट झट समाहित होगे। जेमा बैले, जैज अउ आधुनिक नृत्य कस अउ कतको प्रकार नाच शामिल हे।

                   भाव(अभिव्यक्ति), राग(संगीत) अउ ताल(लय) ये तीनों के मधुर समन्वय बिन नृत्य नइ होय। सबे प्रकार के नृत्य के अलग अलग शैली होथे, जेमा भाव, राग अउ लय होबेच करथे। प्राचीन कालीन नृत्य मा चेहरा के भाव अउ हस्तमुद्रा प्रमुख रहय, फेर आज शरीर के अन्य अंग भी शामिल दिखथे।  धार्मिक, आध्यात्मिक ले चालू होके नृत्य मनोंरंजन के साथ साथ आज आकर्षण, ग्लैमर अउ व्यवसायिक होवत जावत हे। आधुनिकता के चकाचौंध मा नृत्य फूहड़ता कोती भागत हे। जे नाच ला देखत आध्यात्मिक अउ मानसिक सुख मिलत रिहिस, उहाँ आज काम वासना जाग्रत होवत हे। आज शारीरिक खुलापन, अउ बेढंग शारीरिक मुद्रा नृत्य के पारम्परिकता ला भंग करत हे। जे चिंतनीय हे। पहली नाच देखे बर मनखें तरस जावत रिहिस, कई कोस के दूरी लांघे के बाद नृत्य के आनंद मिले, उंहे आज सोशलमीडिया के दौर मा, घर बैठे रंग रंग के नाच देखे बर मिल जावत हे। नचइया अतका के देखइया घलो कमती हो जावत हे। नाचे मा छोटे, बड़े, बुढ़वा,  जवान सबे लगे हें, अउ एखर श्रेय जाथे इस्टाग्राम अउ रील ला। रील के चक्कर मा नृत्य के छाती मा खील गोभावत हे। मन ला मोहित करइया अउ परम् शांति प्रदान करइया नृत्य आज उत्तेजक, फूहड़ अउ मन ला अशांत करइया हो गय हे। अइसे भी नही कि सबे नाच मा अश्लिता हे। आज भी विशेष पोशाक अउ शैली के कतको नृत्य जस के तस प्रभावी हे, चाहे कत्थक होय, कुचीपुड़ी होय,ओड़िसी होय या कोनो लोक नृत्य, फेर आधुनिकता के छाप अब नृत्य के शैली, हाव भाव अउ भाव भंगिमा मा आघात करत हे।

                   गुण ज्ञान अउ कला कखरो भी होय यदि मनोभाव सकारात्मक हे, ता वो गुण, ज्ञान अउ कला ला देखत सुनत मन मा आनंद अउ सुख के संचार होबेच करथे, अउ यदि कहीं मनोभाव नकारात्मक हे, ता डाह घलो उपजत दिखथें। यदि वो डाह प्रतियोगिता ला जनम देवत हे, ता तो बने बात हे, फेर यदि टांग खिचई के उदिम होय लगथे, ता वो बड़ घातक हे। आजो कई  कलाकार नृत्य कला के ज्ञान पाय बर बड़ महिनत करत हे, कतको जघा सीखत पढ़त हें। कई ठन नृत्य अउ संगीत के विद्यालय अउ कोचिंग खुलगे हे, जिहाँ नृत्य सीखे के सरलग उदिम होवत हे। कला, साधना के नाम आय, अउ साधना साधे ले सधते। कला ला तपस्या घलो कहे जाथे, जेखर बर ईमानदारी, लगन अउ महिनत के जरूरत पड़थे। फेर आज कला मात्र देख देखावा अउ ग्लैमर के चीज बनत हे, चाहे नचई होय या फेर गवई। जे नही ते देखासीखी बेढंग कनिहा हलावत हे। सोसल मीडिया मा चढ़े डांस अउ अभिव्यक्ति के नशा देखत लाज लगथे। रील बनई के चक्कर मा बहू बेटी मन में मर्यादा अउ डांस के दायरा ला लांघत हें।

                   महतारी कतको भूख मरत रहै, भुखाय लइका के पेट भरत देख, परम् शांति अउ सुख के अनुभव करथे, अउ अपन भूख ला भूला जाथे। घर मा कोनो एक के तरक्की या नाम होय ले, न सिर्फ घर, बल्कि पूरा गाँव गर्व करथे। कहे के मतलब मनखें दूसर के सुख अउ दुख ले आत्मीय भाव ले जुड़े रथे, अउ सुख दुख के अनुभव करथे। वइसने गीत संगीत सुने अउ नाच देखे मा परम् सुख मिलथे। एक गवइया या एक नचइया हजारों करोड़ो के मन ला मोहित कर लेथे। फेर आज मनखें नचइया के संग खुदे नाचत दिखथें या बिन नाचे नइ रही सकत हे। बस कुछु नाचे के बहाना चाही ताहन घर भर कनिहा मटकाए बर धर लेथे। आज वो अनुभव के चीज ला खुदे करे ला धर लेहे। पहली नाचे ते समाज मा असहज महसूस करे, फेर आज जे नइ नाचे तेखर मरना हो जावत हे। इशारा मा नाचना या कठपुतली बनना मुहावरा ला तो सबे जानते हन। येला स्वीकारना बने बात नइ रहय। अइसन करना मतलब अपन आप ला झुका देना या स्वाभिमान ला बेच देना होय। शोले फिलिम मा गब्बर के आघू मा बसंती नाचे बर तैयार नइ रिहिस। बड़े मिया छोटे मिया फिलिम मा अमिताभ अउ गोविदा गुंडा के आघू नाचे बर अनाकानी करथे। कहानी, क्वीन, साहब बीबी और गुलाम, मदर इंडिया, राजी अइसन कतको फिलिम अउ हकीकत दृश्य हे, जिहाँ हीरो हीरोइन अउ मनखें मन गुंडा या कखरो आन के आघू मा नाचे बर या अपन स्वाभिमान बेचे बर मना करथें। फेर आज कोनो भी मनखें कही भी नाच देवत हे, वाह रे जमाना। शादी मा पहली नचइया लगाय जाय, अउ घर भर के मनखें सगा सोदर संग आनंद उठावय। आज घरे के मन सगा सोदर सुद्धा जे बेर पाय ते बेर रही रही के नाचत हें। भागवत, रमायण मा बेढंग ठुमका लगावत मनखें भला का वो पावन ग्रंथ के मरम ला पा पाही? पंडा, पंडित मन घलो नाच ला प्राथमिकता देवत हें। अपने अपन सब मिलजुल के नाचत कूदत हें, अइसन मा जोक्कड़, परी, नचइया अउ गवइया मन के पेट भरना मुश्किल हो जावत हे। नाचत हे ते तो ठीक हे, फेर कुछ भी नाचत हे, ते चिंतनीय हे। रील अउ नेम फेम अउ चंद पइसा के चक्कर मा मनखें मन गिरत जावत हे। छोटे बड़े के लिहाज नइहे। इस्टाग्राम अउ रील के चक्कर मा नचइया मनके बाढ़ आ गय हे। कोनो भी चीज होय, मर्यादा मा ही शोभा पाथे। जिहाँ मरियादा नइ रहय उहाँ इज्जत मान सम्मान के जघा नइ रहय। लाज रूपी चिड़िया आज विलुप्तप्राय होवत जावत हे। बेटी, बहू के फूहड़ नृत्य ला देख के, बाप,भाई अउ पति ऊपर का बीतत होही तेला उही मन जाने? फेर पूरा समाज तो मजा ले ले के देखत हें, यहू बात सही हें। व्यूह,लाइक अउ सब्सक्राब पाय बर आँय बाँय नाच आज निश्चित ही चिंतनीय विषय हे। पर्दा के चीज आज उघरत हे अउ उघरे के चीज तोपावत हे। कोन जन जमाना आघू बेरा मा नृत्य जइसन पाक कला ला अउ कतका गिराही? बहरहाल अंतरराष्ट्रीय नृत्य दिवस के आप जम्मों ला सादर बधाई।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)


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अंतरराष्ट्रीय डांस डे म


"""""फकत नचइयाँ बाढ़गे""""


गवइया बजइया कमती होगे,

बढ़िया जिनिस तरी मा माढ़गे।

गांव लगत हे ना शहर लगत हे,

फकत नचइयाँ बाढ़गे-----------।


परी जोक्कड़ मन देख के दंग हें।

नचइया मन मा चढ़े जबर रंग हे।

बिन बाजा के घलो हाथ पांव हलात हें।

आ आ कहिके एला ओला बलात हें।।

नाचते नाचत जाड़,घाम अउ आसाढ़ गे।

गांव लगत हे------------------------।।


टूरा टूरी भउजी भैया ना बहू लगत हे।

एक जघा झूमत सब महू लगत हे।।

चुंहकत हें लाज शरम के फसल ला।

ढेंगा देखावत हे जुन्ना कल ला।।

नाचे संझा बिहना, रति रंभा ला पछाढ़गे।

गांव लगत हे------------------------।।


आज पर के नाच देख, कहाँ मजा आत हे।

नचनइया बनके नाचत हे, तभे मजा पात हे।।

मरनी भर ला छोड़, ताहन सब मा फकत नचई,

सोसल मीडिया मा तो, सबके आ गय हे रई।।

बरतिया कस धक्का मारे, झगड़ा लड़ई ठाढ़गे।

गांव लगत हे-------------------------------।।


जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

Saturday, 26 April 2025

मनहरण घनाक्षरी

 मनहरण घनाक्षरी


अगास अमर झन,पताल टमड़ झन।

भुइयाँ मा रच बस,बने बने काम कर।।

बैर रिस द्वेष पाल,बन कखरो न काल।

मानुष काया ला तँय,झन बदनाम कर।।

कर झन तीन पाँच,जल थल हवा नाप।

हुशियारी ल दिखात,झन ताम झाम कर।।

ज्ञान गुण धरे रही, पैसा कौड़ी परे रही।

समे बलवान हवै,बेरा ल सलाम कर।।


धन सरी पड़े हवै,गाड़ी घोड़ा खड़े हवै।

ज्ञानी गुणी सबे ल जी,समय नचात हे।।

चढ़त हे सादा रंग, बदलत हवै ढंग।

पश्चिम के लहर ह,दुरिहा फेकात हे।।

हरहर कटकट, सब ला लेहे झटक।

जिनगी ल थाम देहे,कोरोना डरात हे।।

पेट के अगिन बुझे,अउ कुछु नइ सुझे।

घर बन किसानी के,महत्ता बतात हे।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया

बाल्को,कोरबा

Friday, 25 April 2025

गंगा अमली-रोला छंद

 गंगा अमली-रोला छंद


गंगा अमली नाम, सुनत जिवरा ललचाये।

फर गर्मी के आय, खाय तउने गुण गाये।।

होथे बड़का पेड़, खेत बन बाग डहर मा।

काँटा काँटा देख, जिया हर काँपे डर मा।1


खाये मा बढ़ जाय, रोग प्रतिरोधक क्षमता।

होय विटामिन खूब, खाय घुम जोगी रमता।।

कोलेस्ट्राल घटाय, त्वचा के चमक बढ़ाये।

राखै शांत दिमाग, काम कैंसर मा आये।।2


हिरदय रोग भगाय, आयरन तन ला देवै।

कब्ज दस्त अउ गैस, पेट के झट हर लेवै।।

गुण जाने ते खाय, तोड़ नइ ते ले ले के।

डँगनी मा अमराय, हाथ आये ले दे के।।3


काँटा हा चेताय, ढंग जिनगी जीये के।

सहज नही मिल पाय, चीज खाये पीये के।।

धरना पड़थे धीर, हाथ आथे तब फर जर।

काँटा काँटा बीच, बीतथे नित जिनगी हर।।4


घुमघुम घामे घाम, पेड़ एको नइ छोड़ें।

धरके डँगनी हाथ, लोग लइकन मन तोड़ें।।

खायें बाँट बिराज, बचा के घर तक लाये।

ददा बबा चिल्लाय, तहू मन चुप हो जाये।।5


खई खजानी आज, मिलत हे कई किसम के।

अब के लइका लोग, देख बारी बन चमके।।

होगे सब सुखियार, कोन फर तोड़े जाये।

घर मा खेलें खेल, चिप्स अउ बिस्कुट खाये।6


बेल आम अमरूद, तोड़ खुद जउने खाये।

जाने महिनत मोल, हाँस के समय बिताये।।

लइका पन मा ज्ञान, जउन मन हा पा जाथे।

बेर बिकट जब आय, धीर धर समय बिताथे।।7


जीतेन्द्र वर्मा"खैझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)


अन्य नाम- जंगली जलेबी, विलायती इमली

Friday, 18 April 2025

विश्व गौरैय्या दिवस विशेष- दोहा गीत

 विश्व गौरैय्या दिवस विशेष- दोहा गीत


गौरैय्या चिरई हरौं, फुदकत रहिथौं खोर।

चींव चींव चहकत रथौं, नाँव लेत मैं तोर।।


मोर पेट भर जाय बस, दाना  देबे  छीत।

पानी रखबे घाम मा, जिनगी जाहूँ जीत।।

गोटीं मोला मारके, देथस काबर खेद।

भले पड़े या झन पड़े, जी हो जाथे छेद।।

हावय तोरे हाथ मा, ये जिनगी हा मोर।

चींव चींव चहकत रथौं, नाँव लेत मैं तोर।।


दू दाना के आस मा, आथँव बिना बुलाय।

कभू पेट जाथे अघा, कभू रथँव बिन खाय।

जंगल झाड़ी भाय नइ, नइ भाये वीरान।

मनुष देख फुदकत रथँव, मैं पंछी अंजान।।

पानी पुरवा पेड़ मा, बिख जादा झन घोर।।

चींव चींव चहकत रथौं, नाँव लेत मैं तोर।।


बाढ़त हावय ताप हा, बाढ़त हे संताप।

छिन भर मा मर जात हौं, मैंहा अपने आप।

सबदिन मैं फुदकत रहौं, इही हवै बस आस।

गाना गाहूँ तोर बर, छोड़ भूख अउ प्यास।

कुनबा देख सिरात हे, आरो ले ले मोर।।

चींव चींव चहकत रथौं, नाँव लेत मैं तोर।।


जीतेंद्र वर्मा"खैझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)


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कुंडलियाँ छंद-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"


गौरइया


परछी अँगना मा फुदक, मन ला लेवै जीत।

वो गौरइया नइ दिखे, नइ सुनाय अब गीत।।

नइ सुनाय अब गीत, सिरावत हे गौरइया।

मारे पानी घाम, मनुष तक हे हुदरैया।

छागे छत सीमेंट, जिया मा गड़गे बरछी।

उजड़त हे बन बाग, कहाँ हे परवा परछी।।


काँदी पैरा जोड़ के, झाला अपन बनाय।

ठिहा ठौर के तीर मा, गौरइया इतराय।।

गौरइया इतराय, चुगे उड़ उड़ के दाना।

छत छानी मा बैठ, सुनावै गुरतुर गाना।

आही गाही गीत, रखव जल भरके नाँदी।

गौरइया के जात, खोजथे पैरा काँदी।।


दाना पानी छीन के, हावय मनुष मतंग।

बाढ़त स्वारथ देख के, गौरइया हे दंग।।

गौरइया हे दंग, तंग जिनगी ला पाके।

गाके काय सुनाय, मौत के मुँह मा जाके।

छिन छिन सुख अउ चैन, झरे जस पाके पाना।

कहाँ खुशी सुख पाय, कोन ला माँगे दाना।


जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)


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दाना पानी चिरई बर
चहके चिरई डार मा,देख उलाये चोंच।
दाना पानी डार दे,मनखे थोरिक सोंच।
मनखे थोरिक सोंच,घाम हा गजब जनाये।
जल बिन कतको जीव,तड़प के गा मर जाये।
घाम सहे नइ जाय,बिकट भुँइया हा दहके।
पानी रखबे ढार,द्वार मा चिरई चहके


खैरझिटिया

गीत-चिरई बर पानी

 गीत-चिरई बर पानी


चिरई बर मढ़ाबों चल, नाँदी मा पानी।

गरमी के बेरा आगे, तड़पे जीव परानी।।


जरत हवय चटचट भुइँया, हवा तात तात हे।

मनखे बर हे कूलर पंखा, जीव जंतु लरघात हे।।

रुख राई के जघा बनगे, हमर छत छानी।

चिरई बर मढ़ाबों चल, नाँदी मा पानी।।


बिहना आथे चिंवचिंव गाथे, रोथे मँझनी बेरा।

प्यास मा मर खप जाथे, संझा जाय का डेरा।।

काल बनगे जीव जंतु बर, हमर मनमानी।

चिरई बर मढ़ाबों चल, नाँदी मा पानी।।


दू बूँद पानी माँगे, दू बीजा दाना।

पेड़ पात बीच रहिथे, बनाके ठिकाना।।

चिरई बिन कहानी कइसे, कही दादी नानी।

चिरई बर मढ़ाबों चल, नाँदी मा पानी।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

जेठ महीना- सार छंद

 जेठ महीना- सार छंद


जेठ महीना जुलुम ढात हे, जरै चटाचट धरती।

धनबोहर मा फूल फुले हे, टपकै आमा गरती।।


लाली फुलवा गुलमोहर के, गावत हावै गाना।

नवा पहिर के हरियर लुगरा, बिरवा मारे ताना।।

छल बल धर गरमाये मनखे, निकलै बेरा ढरती।

जेठ महीना जुलुम ढात हे, जरै चटाचट धरती।।


निमुवा अमवा बर पीपर हा, जुड़ जुड़ छँइहा बाँटै।

तरिया नदिया कुँवा सुखावै, हवा बँवंडर आँटै।।

होय फूल फर कतको झरती, ता कतको के फरती।

जेठ महीना जुलुम ढात हे, जरै चटाचट धरती।


जीव जंतु सब लहकै भारी, पानी तीरन लोरे।

भाजी पाला अब्बड़ निकलै, मोहे बासी बोरे।।

पेड़ प्रकृति हा जिनगी आये, सुख दुख देय सँघरती।

जेठ महीना जुलुम ढात हे, जरै चटाचट धरती।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

मजबूर मैं मजदूर

 बासी दिवस अउ मजदूर दिवस के सादर बधाई


बासी खावै रोज के, दँदर दँदर ते रोय।

फोटू खिंचवा एक दिन, खरतरिहा हे होय।।


गीत--बासी बासी बासी के हल्ला


साग दार कमती पड़ जाथे, पुरे न राशन राशि।

तब खाथौं मैं चटनी सँग मा, नून डार के बासी।।


काम बूता बर होत बिहनया, पड़थे जल्दी जाना।

जुड़े जुड़ मा काम सिधोथँव, खाके बासी खाना।

बिन गुण जाने पेट भरे बर, खाथँव बारा मासी।

साग दार कमती पड़ जाथे, पुरे न राशन राशि।

तब खाथौं मैं चटनी सँग मा, नून डार के बासी।।


बड़ही कहिके बँचे भात ला, बोर देथौं मैं रतिहा।

सीथा खाथौं चारेच कौंरा, पेट भर पीथौं पसिया।

पर के हाड़ी के गंध सुंघ के, लगथे गजब ललासी।

साग दार कमती पड़ जाथे, पुरे न राशन राशि।

तब खाथौं मैं चटनी सँग मा, नून डार के बासी।।


छोट कुड़ेड़ा के बासी तक, घर भर ला पुर जाथे।

सीथा अउ पसिया हा मिलके, भूख पियास दुरिहाथे।

महल अटारी बाँध बाँधथँव, करथौं बाँवत बियासी।

साग दार कमती पड़ जाथे, पुरे न राशन राशि।

तब खाथौं मैं चटनी सँग मा, नून डार के बासी।।


बासी खावत उमर गुजरगे, होगे जर्जर काया।

नाँगर पुरतिन जाँगर मिलथे, राम मिले ना माया।

बासी खवइया बासी होगे, हो गे जग मा हाँसी।

साग दार कमती पड़ जाथे, पुरे न राशन राशि।

तब खाथौं मैं चटनी सँग मा, नून डार के बासी।।


मोर दरद देखिस नइ कोनो, देख डरिस बासी ला।

महल भीतरी बासी खाइस, बूता जोंग दासी ला।

भूख बैरी ला बासी चढ़ाथौं, मान के मथुरा काँसी।

साग दार कमती पड़ जाथे, पुरे न राशन राशि।

तब खाथौं मैं चटनी सँग मा, नून डार के बासी।।


जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)


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रोला छंद


मजबूर मैं मजदूर


करहूँ का धन जोड़, मोर तो धन जाँगर ए।

रापा गैंती संग, मोर साथी नाँगर ए।

मोर गढ़े मीनार, देख लौ अमरे बादर।

मोर धरे ए नेंव, पूछ लौ जाके घर घर।


भुँइया ला मैं कोड़, ओगराथौं नित पानी।

जाँगर रोजे पेर, धरा ला करथौं धानी।

बाँधे हवौं समुंद, कुँआ नदिया अउ नाला।

बूता ले दिन रात, हाथ मा उबके छाला।


घाम जाड़ आषाढ़, कभू नइ सुरतावौं मैं।

करथौं अड़बड़ काम, तभो फल नइ पावौं मैं।

हावय तन मा जान, छोड़ दौं महिनत कइसे।

धरम करम ए काम, पूजथौं देवी जइसे।


चिरहा ओन्हा ओढ़, ढाँकथौं करिया तन ला।

कभू जागही भाग, मनावत रहिथौं मन ला।

रिहिस कटोरा हाथ, देख वोमा सोना हे।

भूख मरौं दिन रात, भाग मोरे रोना हे।


आँखी सागर मोर, पछीना यमुना गंगा।

झरथे झरझर रोज, तभे रहिथौं मैं चंगा।

मोर पार परिवार, तिरिथ जइसन सुख देथे।

फेर जमाना कार, अबड़ मोला दुख देथे।


थोर थोर मा रोष, करैं मालिक मुंसी मन।

काटत रहिथौं रोज, दरद दुख डर मा जीवन।

मिहीं बढ़ाथौं भीड़, मिहीं चपकाथौं पग मा।

अपने घर ला बार, उजाला करथौं जग मा।


पाले बर परिवार, नाँचथौं बने बेंदरा।

मोला दे अलगाय, बदन के फटे चेंदरा।

कहौं मनुष ला काय, हवा पानी नइ छोड़े।

ताप बाढ़ भूकंप, हौसला निसदिन तोड़े।।


सच मा हौं मजबूर, रोज महिनत कर करके।

बिगड़े हे तकदीर, ठिकाना नइहे घर के।

थोरिक सुख आ जाय, विधाता मोरो आँगन।

महूँ पेट भर खाँव, रहौं झन सबदिन लाँघन।।


मोर मिटाथे भूख, रात के बोरे बासी।

करत रथौं नित काम, जाँव नइ मथुरा कासी।

देखावा ले दूर, बिताथौं जिनगी सादा।

चीज चाहथौं थोर,  मेहनत करथौं जादा।


आँधी कहुँती आय, उड़ावै घर हा मोरे।

छीने सुख अउ चैन, बढ़े डर जर हा मोरे।

बइठ कभू नइ खाँव, काम मैं मांगौं सबदिन।

करके बूता काम, घलो काँटौं दिन गिनगिन।


जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

बालको(कोरबा)

9981441795

मजदूर दिवस अमर रहे,,,,


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गीतिका छंद-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"


हे गजब मजबूर ये,मजदूर मन हर आज रे।

पेट बर दाना नहीं,गिरगे मुड़ी मा गाज रे।।

रोज रहि रहि के जले,पर के लगाये आग मा।

देख लौ इतिहास इंखर,सुख कहाँ हे भाग मा।।


खोद के पाताल ला,पानी निकालिस जौन हा।

प्यास मा छाती ठठावत,आज तड़पे तौन हा।

चार आना पाय बर, जाँगर खपावय रोज के।

सुख अपन बर ला सकिस नइ,आज तक वो खोज के।


खुद बढ़े कइसे भला,अउ का बढ़े परिवार हा।

सुख बहा ले जाय छिन मा,दुःख के बौछार हा।

नेंव मा पथरा दबे,तेखर कहाँ होथे जिकर।

सब मगन अपनेच मा हे,का करे कोनो फिकर।


नइ चले ये जग सहीं,महिनत बिना मजदूर के।

जाड़ बरसा हा डराये, घाम देखे घूर के।

हाथ फोड़ा चाम चेम्मर,पीठ उबके लोर हे।

आज तो मजदूर के,बूता रहत बस शोर हे।।


ताज के मीनार के,मंदिर महल घर बाँध के।

जे बनैया तौन हा,कुछु खा सके नइ राँध के।

भाग फुटहा हे तभो,भागे कभू नइ काम ले।

भाग परके हे बने,मजदूर मनके नाम ले।।


दू बिता के पेट बर,दिन भर पछीना गारथे।

काम करथे रात दिन,तभ्भो कहाँ वो हारथे।

जान के बाजी लगा के,पालथे परिवार ला।

पर ठिहा उजियार करथे,छोड़ के घर द्वार ला।


आस आफत मा जरे,रेती असन सुख धन झरे।

साँस रहिथे धन बने बस,तन तिजोरी मा भरे।

काठ कस होगे हवै अब,देंह हाड़ा माँस के।

जर जखम ला धाँस के,जिनगी जिये नित हाँस के।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)


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आल्हा छन्द - जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया


गरमी घरी मजदूर किसान


सिर मा ललहूँ पागा बाँधे,करे  काम मजदूर किसान।

हाथ मले बैसाख जेठ हा,कोन रतन के ओखर जान।


जरे घाम आगी कस तबले,करे काम नइ माने हार।

भले  पछीना  तरतर चूँहय,तन ले बनके गंगा धार।


करिया काया कठवा कस हे,खपे खूब जी कहाँ खियाय।

धन  धन  हे  वो महतारी ला,जेन  कमइया  पूत  बियाय।


धूका  गर्रा  डर  के  भागे , का  आगी  पानी  का  घाम।

जब्बर छाती रहै जोश मा,कवच करण कस हावै चाम।


का मँझनी का बिहना रतिहा,एके सुर मा बाजय काम।

नेंव   तरी   के  पथरा  जइसे, माँगे  मान  न माँगे नाम।


धरे  कुदारी  रापा  गैतीं, चले  काम  बर  सीना तान।

गढ़े महल पुल नँदिया नरवा,खेती कर उपजाये धान।


हाथ  परे  हे  फोरा  भारी,तन  मा  उबके हावय लोर।

जाँगर कभू खियाय नही जी,मारे कोनो कतको जोर।


देव  दनुज  जेखर  ले  हारे,हारे  धरती  अउ  आकास।

कमर कँसे हे करम करे बर,महिनत हावै ओखर आस।


उड़े बँरोड़ा जरे भोंभरा,भागे तब मनखे सुखियार।

तौन  बेर  मा  छाती  ताने,करे काम बूता बनिहार।


माटी  महतारी  के खातिर,खड़े पूत मजदूर किसान।

महल अटारी दुनिया दारी,सबे चीज मा फूँकय जान।


मरे रूख राई अइलाके,मरे घाम मा कतको जान।

तभो  करे माटी के सेवा,माटी  ला  महतारी मान।


जगत चले जाँगर ले जेखर,जले सेठ अउ साहूकार।

बनके  बइरी  चले पैतरा,मानिस नहीं तभो वो हार।


धरती मा जीवन जबतक हे,तबतक चलही ओखर नाँव।

अइसन  कमियाँ  बेटा  मनके, परे  खैरझिटिया हा पाँव।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को(कोरबा)

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जयकारी छन्द- बासी


जरे घाम मा चटचट चाम, लगे थकासी रूकय काम।


खेवन खेवन गला सुखाय, बदन पछीना मा थर्राय।


चले हवा जब ताते तात, भाय नही मन ला जब भात।


चक्कर घेरी बेरी आय, तन के ताप घलो बढ़ जाय।


घाम झाँझ मा पेट पिराय, चैन चिटिक तन मन नइ पाय।


तब खा बासी दुनो जुवार, खाके दुरिहा जर बोखार।


बासी खाके बन जा वीर, खेत जोत अउ लकड़ी चीर।


हकन हकन के खंती कोड़, धार नदी नरवा के मोड़।


गार पछीना बिहना साँझ, सोन उगलही धरती बाँझ।


सड़क महल घर बाँध बना, ताकत तन के अपन जना।


खुद के अउ दुनिया के काम, अपन बाँह मा ले चल थाम।


करके बूता पाबे मान, बन जाबे भुइयाँ के शान।


सुनके बासी मूँदय कान, उहू खात हे लान अथान।


खावै बासी पेज गरीब, कहे तहू मन आय करीब।


खावत हें सब थारी चाँट, लइका लोग सबे सँग बाँट।


बासी कहिके हाँसे जौन, हाँस हाँस के खावै तौन।


बासी चटनी के गुण जान, खाय अमीर गरीब किसान।


पिज़्ज़ा बर्गर चउमिन छोड़, खावै सबझन माड़ी मोड़।


बदलत हे ये जुग हा फेर, लहुटत हे बासी के बेर।


बड़े लगे ना छोटे आज, बासी खाये नइहे लाज।


बासी बासी के हे शोर, खावै नून मही सब घोर।


भाजी चटनी आम अथान, कच्चा मिरी गोंदली चान।


बरी बिजौरी कड़ही साग, मिले संग मा जागे भाग।


बासी खाके पसिया ढोंक, जर कमजोरी के लू फोंक।


करे हकन के बूता काम, खा बासी मजदूर किसान।


गर्मी सर्दी अउ आसाढ़, एको दिन नइ होवै आड़।।


जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"


बाल्को,कोरबा(छग)

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शोभन छंद


चान चानी गोंदली के, नून संग अथान।


जुड़ हवै बासी झडक ले, भाग जाय थकान।


बड़ मिठाथे मन हिताथे, खाय तौन बताय।


झाँझ झोला नइ धरे गा, जर बुखार भगाय।


जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"


बाल्को,कोरबा(छग)


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दुर्मिल सवैया-मजदूर


मजदूर रथे मजबूर तभो दुख दर्द जिया के उभारय ना।

पर के अँगना उजियार करे खुद के घर दीपक बारय ना।

चटनी अउ नून म भूख मिटावय जाँगर के जर झारय ना।

सिधवा कमियाँ तनिया तनिया नित काज करे छिन हारय ना।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

छत्तीसगगढ़ी कविता मा गरमी के मौसम"

 "छत्तीसगगढ़ी कविता मा गरमी के मौसम"


                    धरती सूरज के सरलग चक्कर लगाथे, जेखर ले ऋतु परिवर्तन समय समय मा होवत रहिथे। ऋतु मुख्य रूप ले तीन प्रकार के होथे- वर्षा, शीत अउ गरमी। बरसा के रिमझिम फुहार अउ शीत के कनकनवात जाड़, मन ला भाबेच करथे, फेर गरमी के घाम,  हाय!राम; कोनो ल चिटिको बने नइ लगे, काबर कि चटाचट जरत भुइयाँ, ताते तात चलत झाँझ झोला, धुर्रा धरके दंदोरत बँरोड़ा, दहकत घर-बन, अँउटत नदिया तरिया के पानी, लाहकत जीव जंतु, सरलग सुखावत टोंटा, दरिया बरोबर बहत पछीना, घाम मा करियावत चाम, अइलावत पेड़ पात, सब के चैन सुख ल छीन लेथे। गर्मी मा चाम का जंगल के जंगल तको भभकत दिखथे, जे बड़ दुखदाई लगथे। पर जइसे बरसा, जाड़ जरूरी हे वइसने गरमी तको जरूरी हे, अउ गर्मी हे कहिके, काम बूता छोड़के, घरेच मा तको नइ बइठे जा सके। अइसन मा चाहे कोनो होय अपन अपन हिसाब ले जोरा जांगी करत, ये बेर ला काटे के कोशिस करथें। कोनो पेड़ पात के छाँव मा मन ला मड़ा लेथे, ता कोनो ठौर ठिहा भीतर एसी फ्रीज कूलर पंखा के बीच गरमी ला भगाये के उदिम करथें। कोनो कोनो ला तो छाँव-गाँव तको नसीब नइ होय, अइसन मा घाम मा तपना उंखर मजबूरी हो जथे। सजा के संग गर्मी मा बर बिहाव,परब तिहार अउ गर्मी छुट्टी के मजा घलो रथे। ठंडा ठंडा बरफ गोला, आमा के पना, बेल के सरबत, ककड़ी, खीरा कलिंदर, करसा के जुड़ पानी, जघा जघा खुले पियाउ घर, जुड़ छाँव गरमी मा बड़ राहत देथे। ये समय चिरई चिरगुन अउ कतको छोटे बड़े जीव जानवर मन पानी खोजत दिखथे। नाना प्रकार के दृश्य गर्मी मा देखे बर मिलथे, कवि मन के कलम ले कुछु भी चीज नइ छूटे हे, अइसन मा भला गरमी के मौसम के दृश्य कइसे छूट सकथे। गरमी के का का रूप के चित्रण कवि मन करे हे, आवन ओखरे कुछ बानगी देखन-------


                     *पानी जिनगानी आय, फेर जेठ बैसाख घरी सुरुज देवता सपर सपर पानी ल पीयइच बूता करथे, ये कारण कुँवा, बावली, तरिया, नदिया के पानी सूखा जथे, भुइयाँ के जल स्तर गिरे ले  कुँवा ,नल,बोरिंग दाँत ल निपोर देथे, ते पाय के गर्मी म चारो कोती  पानी के बिकराल समस्या हो जथे, उही सब ल शब्द देवत रघुवीर अग्रवाल पथिक  जी मन लिखथें----*

तरिया नरवा निचट सुखाय

कुँआ काकरो काम न आय

पानी बर दस कोस जवई

नल बोरिंग मा देख लड़ई।

चारों खूँट अड़बड़ करलई

जेठ अउर बइसाख अवई।


                  *भरे गर्मी मा किसान मन लकड़ी फाटा अउ खातू माटी लाय लेजे के काम करथें, इती मदरसा के छुट्टी हो जथे। पियासे बर करसा के जुड़ पानी अमृत बरोबर लगथे। तेखरे सेती पानी पियई बड़ पुण्य के काम होथे, इही सब बात ल सँघेरत दानेश्वर शर्मा  जी मन लिखथें------*

गाड़ा रेंगिस धरसा म, छुट्टी सबो मदरसा म

कोनो पियास मरँय, अमरित भर दव करसा म

डोकरी दाई कुँवा पार म, हर-हर गंगा कहिके नहाय

गरमी के दिन ह कइसे पहाय, मँझनिया कुहरय, संझौती भाय।।


                    *गर्मी मा तन ले तरतर सरलग पछीना झरथे, अइसन मा जादा पानी मनखे मन ला पीना पड़थे, पानी के कमी होय ले सेहत बिगड़ जाथे, इही बात ल श्यामलाल चतुर्वेदी जी मन  अपन कविता मा लिखथें-----*

तर तर गर्रउहा पानी कस, पलपल निकलय पसीना।

ओव्हर हालिंग होवत हे, परथे पानी पीना।।


                *जेठ बैसाख आगी अँगरा बरोबर बरसत घाम मा, जब सुखियार अउ बड़का आदमी मन घर मा खुसरे रथे, ता भले चाम जर भूँजा जाय फेर अकरस नांगर जोतत किसान अपन खेत म डंटे दिखथे। बनिहार, मजदूर किसान बर का जेठ अउ का आसाड़, बारो महीना बरदानी बरोबर अपन बूता काम म लगे रथे, चाहे चाम जरे या घूरे, इही ल देखत जनकवि लक्ष्मण मस्तुरिया  जी लिखथें---*

आगी अँगरा बरोबर घाम बरसत हे

जेठ बैसाख तपे भारी घाम।

अकरस के नाँगर तपो डारे चाम।।


                         *जेठ बैसाख के महीना मा सुरुज के ताप बड़ बाढ़े रथे, मनखे संग छोटे बड़े सबे जीव जंतु तको ये बेरा मा लाहके बर धर लेथे।जुड़ छाँव अउ जुड़ पानी बर सबे ललावत दिखथे, तभे तो उधोराम झखमार जी मन लिखथें--------*

सरी मँझनिया झाँझ सुरेरे, डारे सुरुज के रिस ल।

गाय गरू तब छैंहा खोजे, भंइसा खोजे चिखला।

कोल्हिया कुकुर हँफरत भागे, जीभ निकाले यहा लाम।

हाय राम ! जेठ के ठड़ियाय घाम….


                    *जेठ महीना मा घर बन, गली खोर सबे कोती आगी लगे हे तइसे जनाथे, चारों मुड़ा रगरगावत घाम अइसे लगथे, जइसे ये महीना ह कोनो टोना जादू कर दे हे, मनखे तनखे सबके हालत पस्त दिखथे, इही बात ल दादुलाल जोशी "फरहद" जी मन लिखत कहिथें-----*

जेठ टोनहा रंग सोनहा, टोके कोनहा

गली म भुर्री बारे हे, चारों खूँट उजियारे हे।


                       *गर्मी मा जहाँ लगभग सबे परेशान रइथे, उहाँ पढ़इया लिखइया लइका मन गर्मी के छुट्टी पाके बड़ खुश रइथे, काबर की पढ़ाई लिखाई के झंझट नइ रहय अउ इती उती गाँव घूमे बर घलो मिलथे, संगे संग रंग रंग खेल अउ खाजी। इही सब ला अपन कलम मा उकेरत अरुण कुमार निगम जी मन लिखथें----*

 गरमी के छुट्टी मन भाथे। लइका मन ला नँगत सुहाथे।।

नइये पढ़े लिखे के झंझट। नइये गुरुजी मन के खटखट।।

मिलथे ममा गाँव जाए बर। फुरसत खेले बर खाए बर।।

डुबकी मारव जा के तरिया। या तउरे बर जावव नदिया।।

कैरी तोड़ ममा घर लावव। नुनछुर्रा के मजा उड़ावव।।

अमली तोड़व खावव लाटा। गरमी ला कर दव जी टाटा।।


                    *जीवलेवा गर्मी मा जीव जंतु तो हलाकान रहिबे करथे, संगे संग पेड़ पात, तरिया नरवा, धरती आगास संग बिजना,पंखा,एसी फ्रीज सब मुँह ला फार देथे। सुक्खा तरिया, नदिया अउ दर्रा हने भुइयाँ, मुँह फार के पानी माँगत हे तैसे लगथे। अइसन सब दृश्य डॉ पीसी लाल यादव जी के ये कविता मा सहज दिखत हे----*

उकुल-बुकुल होगे जी परान,

घर - बाहिर म कुहर के मारे।

पटका - बिजना सबो धपोरे,

डोकरा-डोकरी मुँह ल फारे।।

दरगरा हनत धरती के तन,

पानी बर सब मुँह फारत हे।।

दाऊ बरोबर जेठ के सुरुज,

ऊसर-पुसर के दबकारत हे।


                  *बिकराल बाढ़े गर्मी  के दशा दिशा ल अनुभव करत अउ ओखर जीव जंतु, मनखे, पेड़ पौधा मा का असर पड़त हे, ते सब के संसो करत, काली का होही कहिके गुनत, चोवाराम वर्मा "बादल" जी मन लिखथें----*

तात भारी झाँझ झोला, देंह हा जरिजाय।

जीभ चटकय मुँह सुखावय,प्यास बड़ तड़फाय।

का असो अब मार डरही,काल बन बइसाख।

लेसही आगी लगाके, कर दिही का राख।


                 *शहरीकरण के चकाचौन्ध म अंधरा बने मनखे स्वारथ खातिर पेड़, प्रकृति के बाराहाल कर देहे, जघा जघा कांक्रीट बिछे दिखथे, रुख राई, छाँव,नदी नाला सबके गत बिगड़ गे हे, इही सब बात ल सँघेरत, चिंतन करत आशा देशमुख जी कहिथें----*

नदिया पटय जंगल कटय, कतका प्रदूषण बाढ़गे।

पथरा बिछत हे खेत मा, मिहनत तरी कुन माढ़गे।।

तरसे बटोही मन घलो, मिलही कहाँ जी छाँव अब।

शहरीकरण के लोभ मा ,करथें नकल सब गाँव अब।।


                   *खाई खजानी, फर जर कस साग भाजी घलो ऋतु के हिसाब ले सुहाथे। गरमी मा भाजी,कड़ही के का कहना,तभे तो राजेश चौहान जी के कविता के माध्यम ले डोकरा बबा डोकरी दाई ल कइथे-----*

बबा ल देख मसलहा नइ भावे, अमटहा खाय बर जीभ लमावै

तभे बूढ़ी दाई डुबकी हे राँधे, जीव लेवा लागत हे जेठ के झाँझे।


                   *घाम मा जुड़ जिनिस गजब सुहाथे चाहे वो खाय पिये के जिनिस होय या फेर घूमे फिरे के जघा। अउ वो जघा कहूँ नैनीताल जइसे बर्फिला होय ता का कहना। अइसने जघा मा घूमे बर जिद करत लइका अपन महतारी ला, बलदाऊ राम साहू जी के कविता के माध्यम ले काहत हे-----*

गरमी मा होगेन बेहाल, आँखी हर होगे हे लाल।

पापा ला तैं कहिदे मम्मी, एसो जाबो नैनीताल।।


                      *बैसाख जेठ महीना मा जब सुरुज के तेज कहर ढाथे, ता परब तिहार के लहर सुकुन तको देथे, कतको अकन दिवस गर्मी मा मनाए जाथे, उही ल गिनावत गजानन्द पात्रे जी कहिथे-----*

नाम पड़े बैसाख, विशाखा शुभ नक्षत्रा।

सिक्ख धर्म नव वर्ष, बताये नानक पत्रा।।

जन्मदिवस सिद्धार्थ, धर्म जन बौद्ध मनाये।

भीम राव साहेब, जन्मदिन पावन आये।।

गुरु जी बालकदास के, दिवस शहादत त्रास के।

अमरदास गुरु जन्म भी, बेटा जे घासीदास के।।

परब पड़े एकादशी, उपवास रखे निर्जला।

पूजा गंगा दशहरा, पड़े सावित्री व्रत घला।।


               *वइसे तो हमर राज मा बासी बारो महीना खवइया मन खाथें, तभो गरमी मा बासी,गोंदली अउ चटनी के अलगे मजा हे, उहू मा खीरा ककड़ी, जरी, बरी मिल जाये ता का कहना, तभे तो सुनील शर्मा नील जी लिखथे----*

खावव संगी रोजदिन, बोरे बासी आप |

देवय बढ़िया ताजगी, मेटय तन के ताप ||

मेटय तन के ताप, संग मा साग जरी के |

भाथे अड़बड़ स्वाद, गोंदली चना तरी के ||

खीरा चटनी संग, मजा ला खूब उडा़वव |

पीजा दोसा छोड़, आज ले बासी खावव ||

              

                  *सुरुज के तेज, जीव जंतु अउ मनखे मन ला तरसाथे ता रुख राई ले मिलइया किसम किसम के फर, जर जिवरा ला ललचाथे। गरमी के फल फूल बरत आगी बरोबर घाम मा मनखे मन ल ठंढक अउ ताकत देथे, चाहे वो खीरा ,ककड़ी,कलिंदर, कांदा, कुसा, आमा, अमली,जामुन, बेल,कैत, चार ,तेंदू कुछु भी होय,अइसने सुवाद के एक गीत मोरो कलम ले लिखाये हे-----*

किसम किसम के फर बड़ निकले, घाम घरी घर बन मा।

रंग रूप अउ स्वाद देख सुन, लड्डू फूटय मन मा।।

पिकरी गंगाअमली आमा, कैत बेल फर डूमर।

जोत्था जोत्था छींद देख के, तन मन जाथें झूमर।।

झुलत कोकवानी अमली हा, डारे खलल लगन मा।

किसम किसम के फर बड़ निकले, घाम घरी घर बन मा।


           *"कहे जाथे कि जहां न पहुँचे रवि उहाँ पहुँचे कवि" अउ सिरतों घलो ए, अइसन मा सबें कवि मन के कविता के गर्मी विशेष  बानगी, एक आलेख मा दे पाना सम्भव नइहे। गर्मी के घाम, काम-बूता,फर- फूल, कांदा- कुशा, खेल- खाजी, घूमई-फिरई, पेड़-प्रकृति,आगी-पानी, जीव-जंतु, कुँवा-तरिया, नदिया- नरवा, डहर-बाट, खेत-खार, धरसा-करसा,पंखा-कूलर,परब-तिहार, ये सब के आलावा अउ कतकोन विषय मा कवि मन कलम चलाए हें। जेमा के कुछ उदाहरण ला सँघेरे के प्रयास करे हँव। आशा हे कि ये आलेख मा सँघरे जम्मों कवि मन के पूरा कविता ल पढ़े के उदिम पाठक मन करही।  ता लेवव, कवि मन के कविता के संग "गर्मी के मजा", फेर पानी बचाए अउ पियासे जीव जंतु मन ला पानी पियाय के पबरित काम ला करते चलव।  पेड़ प्रकृति ही पर्यावरण के आधार आय ओखर क्षरण ऋतु के अनियमितता( कम या फेर अधिकता) के कारण बनथे, ये सब ले बचे बर जागरूक होके सब ला पर्यावरण संरक्षण कोती ध्यान देना चाही, तभे समय मा, बरोबर सब ऋतु आही अउ मन ला भाही।*

जय जोहार


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

विश्व गौरैय्या दिवस विशेष- दोहा गीत

 विश्व गौरैय्या दिवस विशेष- दोहा गीत


गौरैय्या चिरई हरौं, फुदकत रहिथौं खोर।

चींव चींव चहकत रथौं, नाँव लेत मैं तोर।।


मोर पेट भर जाय बस, दाना  देबे  छीत।

पानी रखबे घाम मा, जिनगी जाहूँ जीत।।

गोटीं मोला मारके, देथस काबर खेद।

भले पड़े या झन पड़े, जी हो जाथे छेद।।

हावय तोरे हाथ मा, ये जिनगी हा मोर।

चींव चींव चहकत रथौं, नाँव लेत मैं तोर।।


दू दाना के आस मा, आथँव बिना बुलाय।

कभू पेट जाथे अघा, कभू रथँव बिन खाय।

जंगल झाड़ी भाय नइ, नइ भाये वीरान।

मनुष देख फुदकत रथँव, मैं पंछी अंजान।।

पानी पुरवा पेड़ मा, बिख जादा झन घोर।।

चींव चींव चहकत रथौं, नाँव लेत मैं तोर।।


बाढ़त हावय ताप हा, बाढ़त हे संताप।

छिन भर मा मर जात हौं, मैंहा अपने आप।

सबदिन मैं फुदकत रहौं, इही हवै बस आस।

गाना गाहूँ तोर बर, छोड़ भूख अउ प्यास।

कुनबा देख सिरात हे, आरो ले ले मोर।।

चींव चींव चहकत रथौं, नाँव लेत मैं तोर।।


जीतेंद्र वर्मा"खैझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)


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कुंडलियाँ छंद-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"


गौरइया


परछी अँगना मा फुदक, मन ला लेवै जीत।

वो गौरइया नइ दिखे, नइ सुनाय अब गीत।।

नइ सुनाय अब गीत, सिरावत हे गौरइया।

मारे पानी घाम, मनुष तक हे हुदरैया।

छागे छत सीमेंट, जिया मा गड़गे बरछी।

उजड़त हे बन बाग, कहाँ हे परवा परछी।।


काँदी पैरा जोड़ के, झाला अपन बनाय।

ठिहा ठौर के तीर मा, गौरइया इतराय।।

गौरइया इतराय, चुगे उड़ उड़ के दाना।

छत छानी मा बैठ, सुनावै गुरतुर गाना।

आही गाही गीत, रखव जल भरके नाँदी।

गौरइया के जात, खोजथे पैरा काँदी।।


दाना पानी छीन के, हावय मनुष मतंग।

बाढ़त स्वारथ देख के, गौरइया हे दंग।।

गौरइया हे दंग, तंग जिनगी ला पाके।

गाके काय सुनाय, मौत के मुँह मा जाके।

छिन छिन सुख अउ चैन, झरे जस पाके पाना।

कहाँ खुशी सुख पाय, कोन ला माँगे दाना।


जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

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कुंडलियाँ


चिरई बइठे हाथ मा,कइसे चूमय गाल।

मनखे मनहा आज तो,बनगे हावै काल।

बनगे हावै काल, हवा पानी ला चुँहके।

मरे पखेड़ू भूख,छिंनय चारा ला मुँह के।

जंगल झाड़ी काट, करत हे मनके तिरई।

काखर कर बतियाय,अपन पीरा ला चिरई।


खैरझिटिया

सुंदरी सवैया-करसी

 सुंदरी सवैया-करसी


घर खोर गली बन बाग बियापय ब्याकुल घाम घरी जिनगानी।

जल धार झरे तन आग बरे जिनगी ह फँदाय लगे जस घानी।

गरमी हबरे करसी रब ले अब लेव बिसाय रही जुड़ पानी।

जुड़ नीर पियास बुझाय तभे हिरदे ह हितावव होवय धानी।


खैरझिटिया

बेल-गीतिका छंद

 बेल-गीतिका छंद


बेल खाये तेन जाने स्वाद कइसन लागथे।

संक्रमण कतको किसम के बेल खाये भागथे।।

पीत अउ कफ बढ़ जथे तेला करे कंट्रोल ये।

लू लगे मा काम आथे फर हरे अनमोल ये।।


काम के होथे सबे बर बेल के फर पात हा।

दस्त मा आराम देथे स्वस्थ रहिथे आँत हा।।

पेट किडनी अउ लिवर के रोग ला दुरिहाय ये।

छानथे तन के लहू ला ताकती बढ़हाय ये।।


पात खाली पेट खा नित तन बदन बढिया बना।

गैस स्कर्वी अनपचक बर बेल के पी ले पना।।

जेठ अउ बैसाख मा फर घाम पाके पाकथे।

बेल पाना के गजब के माँग सावन मा रथे।।


घर हरे चिटरा चिरइ बर झाड़ झुँझकुर बेल के।

पी पना तन मन बना हे स्वाद गुरतुर बेल के।।

थायरॉइड कब्ज रोगी बेल ले दुरिहा रहे।

जब गड़े काँटा सुजी कस सब ददा दाई कहे।।


आज हें अंजान लइका बेल बन के गुण पढ़ा।

शिव शिवा कहि कर सुमरनी पात भोले ला चढ़ा।।

घर डिही बन डोंगरी तरिया कुआँ के पार मा।

बेल के बिरवा लगा कोठार बारी खार मा।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

विश्व आदिवासी दिवस की ढेरों बधाइयाँ

 विश्व आदिवासी दिवस की ढेरों बधाइयाँ


मैं रहवया जंगल के- आल्हा छन्द


झरथे झरना झरझर झरझर, पुरवाही मा नाचय पात।

हवै कटाकट डिही डोंगरी, कटथे जिंहा मोर दिन रात।


डारा पाना काँदा कूसा, हरे मोर मेवा मिष्ठान।

जंगल झाड़ी ठिहा ठिकाना, लगथे मोला सरग समान।


कोसा लासा मधुरस चाही, नइ चाही मोला धन सोन।

तेंदू मउहा चार चिरौंजी, संगी मोर साल सइगोन।


मोर बाट ला रोक सके नइ, झरना झिरिया नदी पहाड़।

सुरुज लुकाथे बन नव जाथे, खड़े रथौं सब दिन मैं ठाड़।


घर के बाहिर हाथी घूमय, बघवा भलवा बड़ गुर्राय।

चोंच उलाये चील सोचथे, लगे काखरो मोला हाय।


छोट मोट दुख मा घबराके, जाय मोर नइ जिवरा काँप।

रोज भेंट होथे बघवा ले, कभू संग सुत जाथे साँप।।


काल देख के भागे दुरिहा, मोर हाथ के तीर कमान।

झुँझकुर झाड़ी ऊँच पहाड़ी, रथे रात दिन एक समान।


रेंग सके नइ कोनो मनखे, उहाँ घलो मैं देथौं भाग।

आलस अउ जर डर जर जाथे, हवै मोर भीतर बड़ आग।


बदन गठीला तन हे करिया, चढ़ जाथौं मैं झट ले झाड़।

सोन उपजाथौं महिनत करके, पथरा के छाती ला फाड़।


घपटे हे अँधियारी घर मा, सुरुज घलो नइ आवय तीर।

देख मोर अइसन जिनगी ला, थरथर काँपे कतको वीर।


शहर नगर के शोर शराबा, नइ जानौं मोटर अउ कार।

माटी ले जुड़ जिनगी जीथौं, जल जंगल के बन रखवार।


आँधी पानी बघवा भलवा, देख डरौं नइ बिखहर साँप।

मोर जिया हा तभे काँपथे, जब होथे जंगल के नाँप।


पथरा कस ठाहिल हे छाती, पुरवा पानी कस हे चाल।

मोर उजाड़ों झन घर बन ला, झन फेकव जंगल मा जाल।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

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विश्व आदिवासी दिवस के आप सब ला सादर बधाई


जंगल म बाँस के


जंगल  म  बाँस  के,

कइसे रहँव हाँस के।

खेवन खेवन खाँध खींचथे,

चीखथे सुवाद माँस के।

------------------------।


सुरसा कस  बाढ़े।

अँकड़ू बन वो ठाढ़े।

डहर बाट ल लील देहे,

थोरको मन नइ माढ़े।

कच्चा म काँटा खूँटी,

सुक्खा म डर फाँस के।

--------------------------।


माते हे बड़ गइरी।

झूमै मच्छर बइरी।

घाम घलो घुसे नही,

कहाँ बाजे पइरी।

कइसे फूकँव बँसुरी,

जर धर साँस के---।


झुँझकुर झाड़ी डार जर,

काम के न फूल फर।

सताये साँप बिच्छी के डर,

इँहा मोला आठो पहर।

बिछे हवे काँदी कचरा,

बिजराय फूल काँस के।

--------------------------।


शेर भालू संग होय झड़प।

कोन सुने मोर तड़प।

आषाढ़ लगे नरक।

जाड़ जड़े बरफ।

घाम घरी के आगी,

बने कारण नास के।

----------------------।


मोर रोना गूँजे गाना सहीं।

हवा चले नित ताना सहीं।

लाँघन भूँखन परे रहिथौं,

सुख दुर्लभ गड़े खजाना सहीं।

जब तक जिनगी हे,

जीयत हँव दुख धाँस के।

----------------------------।


रोजे देखथों बाँस के फूल।

जिथौं गोभे हिय मा शूल।

बस नाम भर के हमन,

जल-जंगल-जमीन के मूल।

परदेशिया मन पनपगे,

हमन ला झाँस के।

-------------------------।


पाना ल पीस पीस पी,

पेट के कीरा संग,

मोर पीरा घलो मरगे।

मोर बनाये चटई खटिया,

डेहरी म माड़े माड़े सरगे।

प्लास्टिक के जुग आगे,

सब लेवै समान काँस के।

------------------------।


न कोयली न पँड़की,

झिंगरा नित झकझोरे।

नइ जानँव अँजोरी,

अमावस आसा टोरे।

न डाक्टर न मास्टर,

 मैं अड़हा जियौं खाँस खाँस के।

------------------------------------।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को(कोरबा)

जयकारी छन्द- बासी

 जयकारी छन्द- बासी


जरे घाम मा चटचट चाम, लगे थकासी रूकय काम।

खेवन खेवन गला सुखाय, बदन पछीना मा थर्राय।


चले हवा जब ताते तात, भाय नही मन ला जब भात।

चक्कर घेरी बेरी आय, तन के ताप घलो बढ़ जाय।


घाम झाँझ मा पेट पिराय, चैन चिटिक तन मन नइ पाय।

तब खा बासी दुनो जुवार, खाके दुरिहा जर बोखार।


बासी खाके बन जा वीर, खेत जोत अउ लकड़ी चीर।

हकन हकन के खंती कोड़, धार नदी नरवा के मोड़।


गार पछीना बिहना साँझ, सोन उगलही धरती बाँझ।

सड़क महल घर बाँध बना, ताकत तन के अपन जना।


खुद के अउ दुनिया के काम, अपन बाँह मा ले चल थाम।

करके बूता पाबे मान, बन जाबे भुइयाँ के शान।


सुनके बासी मूँदय कान, उहू खात हे लान अथान।

खावै बासी पेज गरीब, कहे तहू मन आय करीब।


खावत हें सब थारी चाँट, लइका लोग सबे सँग बाँट।

बासी कहिके हाँसे जौन, हाँस हाँस के खावै तौन।


बासी चटनी के गुण जान, खाय अमीर गरीब किसान।

पिज़्ज़ा बर्गर चउमिन छोड़, खावै सबझन माड़ी मोड़।


बदलत हे ये जुग हा फेर, लहुटत हे बासी के बेर।

बड़े लगे ना छोटे आज, बासी खाये नइहे लाज।


बासी बासी के हे शोर, खावै नून मही सब घोर।

भाजी चटनी आम अथान, कच्चा मिरी गोंदली चान।


बरी बिजौरी कड़ही साग, मिले संग मा जागे भाग।

बासी खाके पसिया ढोंक, जर कमजोरी के लू फोंक।


करे हकन के बूता काम, खा बासी मजदूर किसान।

गर्मी सर्दी अउ आसाढ़, एको दिन नइ होवै आड़।।


जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

ऐसो के धाम

 ऐसो के धाम


लकालक जरत हवे, ऐसो के घाम

रहि-रहि उसनावत हे, जम्मो के चाम ।

अइलागे भाजी-पाला, सुखागे केरा खाम ।।

लकालक जरत हवे, ऐसो के घाम------


जिवरा करथे रात दिन,

तँऊरत रहितेंव तरिया म।

झांझ- झोला चलत हवे, 

धूर्रा उड़त हे परिया म ।।

रेंगत नइ बनत हवे,

भुइयाँ म खोर्रा गोड़ |

अकेल्ला डोलांव डेना, 

संगी-संगवारी ल छोड़ ||

झोलागे हवे आमा, सेठरागे चिरई जाम ।

लकालक जरत हवे, एसो के घाम------


छानी -परवा तिपे हवे,

तिपे हवे पानी ।

रहि-रहि पसीना चुहे, 

हलाकान जिनगानी ।

दही-मही के सरबत, 

अब्बड़ मिठात हे ।

ठंढा बरफ तीर म.

सब कोनो जुरियात हे ।

धुकनी ल धुकत रहिथंव,

का सुबे का साम।

लकालक जरत हवे, एसो के घाम-----


नरवा के पानी अटागे हे, 

तरिया घलो हे सुक्खा ।

कुआँ-बऊली के तीर ले घलो,

लहुटेल पड़थे दुच्छा ।।

अइसने म कइसे करही, 

बिन मुंहुँ के परानी ।

 पियास म बियाकुल हे, 

इती-उती खोजे पानी ।।

जुड़ छाँव खोजे सबो, 

नइ भाये बुता काम।

लकालक जरत हवे, एसो के घाम ।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

पिंयर-पिंयर करपा(गीत) --------------------------------

 पिंयर-पिंयर करपा(गीत)

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आ नाच ले किसान संग म।

पाके धान के  पिंयर रंग म।


पिंयर -पिंयर हँसिया के बेंठ।

पिंयर -पिंयर   पैरा     डोरी।

पिंयर- पिंयर  लुगरा   पहिरे।

धान       लुवे            गोरी।

     पिंयर -पिंयर  पागा  बांधे।

     पिंयर -पिंयर  पहिरे धोती।

     पिंयर -पिंयर  बइला  फांदे,

     जाय किसान खेत  कोती।

खुशी        छलकत        हे,

किसन्हा    के ,अंग-अंग म।

आ नाच ले किसान संग म।

पाके धान के  पिंयर रंग म।


पिंयर  -  पिंयर     धुर्रा        उड़े,

पिंयर  -  पिंयर    मटासी   माटी।

पिंयर  -  पिंयर पीतल बँगुनिया म,

मेड़   म   माड़े    चटनी  -  बासी।

     पिंयर -पिंयर  बंभरी  के फूल,

     पिंयर -पिंयर  सुरुज  के घाम।

     पिंयर -पिंयर    करपा    माड़े,

     किसान पाये महिनत के दाम।

सपना   के    डोर     लमा,

उड़ जा बइठ   पतंग    म।

आ नाच ले किसान संग म।

पाके धान के  पिंयर रंग म।


पिंयर -पिंयर दिखे भारा,

पिंयर -पिंयर भरे गाड़ा।

पिंयर -पिंयर लागे खरही,

पिंयर -पिंयर दिखे ब्यारा।

           पिंयर -पिंयर छुही मा,

           लिपाहे  घर  के कोठ।

           पिंयर -पिंयर फुल्ली पहिरे,

           हाँसे    नोनी    मन  पोठ।

पिंयर - पिंयर बिछे पैर मा,

कूदे लइका मन उमंग मा।

आ नाच ले किसान संग म।

पाके धान के  पिंयर रंग म।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बालको(कोरबा)

9981441795

नवतप्पा के घाम-सरसी छंद

 नवतप्पा के घाम-सरसी छंद


अल्थी कल्थी भूंजत हावै, नवतप्पा के घाम।

आकुल ब्याकुल जिनगी होगे, का बिहना का शाम।।


आग लगे हे घर के भीतर, बाहिर ला दे छोड़।

सोच समझ नइ पावत हे मन, उसलत नइहे गोंड़।।

चले झांझ झोला बड़ भारी, थमगे बूता काम।

अल्थी कल्थी भूंजत हावै, नवतप्पा के घाम।।


पक्का हावै ठिहा ठिकाना, पक्का गली दुवार।

सड़क साँप कस फुस्कारत हे, खाके अपने गार।।

तरिया नदिया नरवा पटगे, कटगे पेड़ तमाम।

अल्थी कल्थी भूंजत हावै, नवतप्पा के घाम।।


बदल डरे हन रूप प्रकृति के, कहिके हमन विकास।

आफत बाढ़त जावत हे अब, होय चैन सुख नास।।

पानी बिना बुझावत हावै, जीव जंतु के नाम।

अल्थी कल्थी भूंजत हावै, नवतप्पा के घाम।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

पीपर छाँव-चकोर सवैया(सिंहावलोकनी)

 पीपर छाँव-चकोर सवैया(सिंहावलोकनी)


हाथ हला के हवा सँग मा हरसावत नाचय पीपर पात।

पात घमाघम डार चमाचम पेड़ तरी नइ घाम हे आत।।

आत छटा चिटको नइ चाँद के का कर डारय पूनम रात।

रात सही दिनमान जनावय काय करौं अब रात के बात।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

खैरझिटिया

धूंध के ओनहा(गीत)

 धूंध के ओनहा(गीत)


पहिरे हे पहट हा, धूंध के ओनहा।

दिखत नइहे एकोकनी, कोनो कोनहा।


पा के बड़ इतराये, पूस के जाड़ ला।

कभू सुते सड़क मा, अमरे कभू झाड़ ला।

बनगे दुशासन, सुरुज टोनहा---।

पहिरे हे पहट हा, धूंध के ओनहा----


मनमाड़े डुबके हे, करिया समुंदर मा।

मोती निकाल के, धरे हवय कर मा।।

आगे बन लुटेरा , घाम सोनहा-----।

पहिरे हे पहट हा, धूंध के ओनहा---


दुबके हे गाय गरु, दुबके दीदी भैया।

तभो नाचत गावत हे, पहट ताता थैया।

देखे सुघराई, जागे जल्दी जोन हा।

पहिरे हे पहट हा, धूंध के ओनहा--


जीतेन्द्र कुमार वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

अंतरराष्ट्रीय डांस डे म

 अंतरराष्ट्रीय डांस डे म


"""""फकत नचइयाँ बाढ़गे""""


गवइया बजइया कमती होगे,

बढ़िया जिनिस तरी मा माढ़गे।

गांव लगत हे ना शहर लगत हे,

फकत नचइयाँ बाढ़गे-----------।


परी जोक्कड़ मन देख के दंग हें।

नचइया मन मा चढ़े जबर रंग हे।

बिन बाजा के घलो हाथ पांव हलात हें।

आ आ कहिके एला ओला बलात हें।।

नाचते नाचत जाड़,घाम अउ आसाढ़ गे।

गांव लगत हे------------------------।।


टूरा टूरी भउजी भैया ना बहू लगत हे।

एक जघा झूमत सब महू लगत हे।।

चुंहकत हें लाज शरम के फसल ला।

ढेंगा देखावत हे जुन्ना कल ला।।

नाचे संझा बिहना, रति रंभा ला पछाढ़गे।

गांव लगत हे------------------------।।


आज पर के नाच देख, कहाँ मजा आत हे।

नचनइया बनके नाचत हे, तभे मजा पात हे।।

मरनी भर ला छोड़, ताहन सब मा फकत नचई,

सोसल मीडिया मा तो, सबके आ गय हे रई।।

बरतिया कस धक्का मारे, झगड़ा लड़ई ठाढ़गे।

गांव लगत हे-------------------------------।।


जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)


डांस अच्छा चीज आय फेर मान मर्यादा अउ मांग म हो।। *उंगली म नाचना*  एक हाना रहय, फेर आज तो उंगली घलो नइ लगत हे, बर बिहाव, छट्ठी, बरही, भागवत, रमायन सब म,आज के छोटे बड़े सब दिखावटी नचइया मन जोक्कड़, परी,डांसर मन के रिकार्ड तोड़ देवत हें।।

गर्मी मा बरफ गोला- सार छंद

 गर्मी मा बरफ गोला- सार छंद


गजब सुहाथे घाम घरी मा, बरफ बरफ के खाजी।

लइका संग सियान खाय बर, हो जाथे झट राजी।।


काड़ी वाले होय बरफ या, रंग रंग के गोला।

रबड़ी कुल्फी बरफ मलाई, देय नियत ला डोला।।

सस्ता होवय या हो महँगा, कइथे सब झन ला जी।

गजब सुहाथे घाम घरी मा, बरफ बरफ के खाजी।।


आमा गन्ना नीम्बू रस मा, डार बरफ के चूरा।

ठंडा ठंडा मन भर पीले, जिया जुड़ाथे पूरा।।

बरफ संग मा सेवइ कतरी, खा के कहिबे वा जी।

गजब सुहाथे घाम घरी मा, बरफ बरफ के खाजी।


खुशी हमाथे मन मा भारी, देख बरफ के ठेला।

कोनो ला गर्मी नइ भाये, सब ठंडा के चेला।।

फोकट हे धन बल के गर्मी, जुड़ रख जिया जुड़ा जी।

गजब सुहाथे घाम घरी मा, बरफ बरफ के खाजी।।


जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

बुझो तो जाने-दोहा

 बुझो तो जाने-दोहा


करिया रँग के फूल हा, सिर के ऊपर छाय।

गरमी पानी  मा खिले, बाकि समय मिटकाय।1


आघू पाछू बाप माँ, लइका मन हे बीच।

लेजय अपने संग मा, दुरिहा दुरिहा खीच।2


पर के साँसा मा चलय, तन हे लंबा गोल।

छेद गला अउ पेट मा, बोले गुरतुर बोल।3


जुड़वा भाई दास बन, रहे सबे दिन संग।

एक बिना बिरथा दुसर, एक दुनो के रंग।4


खटे सबे एकेक झन, का दिन अउ का रात।

 इंखर सँग दुनिया चले, होवय भाई सात।5


पढ़े लिखे के काम बर, रखय कई झन संग।

नोहे कागज अउ कलम, नोहे कोनो अंग।6


जतिक देर पीये लहू, ततिक देर लै साँस।

ना रक्सा ना देवता, ना हाड़ा ना माँस।।7


तीन पेट दू गोड़ के, जुन्ना एक सियान।

दूसर थेभा मा चले, नइहे तन मा जान।।8


चार गोड़ के बोकरा, बोले ना बतियाय।

चढ़ना चाहे सब मनुष, झगरा घलो कराय।9


रंग बिरंगी छोकरी, मुँह ला रथे उलाय।

झुले झूलना खांध मा, खा पी के मोटाय।10


धरा उपर उल्टा कुँवा, चारो मुड़ा ढँकाय।

भरे सिराये रोज के, दुह दुह सब पी जाय।11


स्वेत रंग के एक ग्रह, जीव रहै जहँ एक।

पिंयर चाँद जल चिपचिपा, हड़पै दनुज अनेक।12


तीन गोड़ के केकड़ा, आलू जादा खाय।

तँउरे खौलत तेल मा, मनुष देख ललचाय।13


लुका जाय अँधियार मा, निकले देख अँजोर।

हरे नकलची बेंदरा, काम आय ना तोर।।14

                        

करिया जंगल मा रथे, करिया रँग के शेर।

सुबे शाम पीये लहू, सहज दिखे नइ फेर।15

                                                

होली मा बिकथौं गजब, शहर लगे ना गाँव।

कथे सखा सुख दुःख के, बता चीज का आँव।16

                         

बित्ता भर के छोकरी, रतिहा बेरा आय।

आग लगा के मूड़ मा, उजियारा फैलाय।17

                         

हवा खाय मोटाय तब, हवा देख उड़ जाय।

हवा चलत हे एखरे, लइकन ला रोवाय।।18

                   

बिना जीव के कोकड़ा, नापे ऊँच अगास।

एक पूँछ हाड़ा दुई, आवय सब ला रास।।19

               

चढ़े रथे जे नाक मा,धरे रथे जे कान।

मजबूरी कतकोन के,ता कतको के शान।20


लइका मा पीयर दिखे,किशोरहा हरियाय।

लाल बुढ़ापा मा लगे,सबके मन ला भाय।21


दुनो हाथ अउ गोड़ मा,रहे सबे दिन संग।

काट  काट सब फेकथे,हरे बदन के अंग।22


जल लाये पाताल ले,भागीरथ कस काम।

सबके प्यास बुझाय जे,का ओखर हे नाम।23


कौड़ी के ना काम के,छोड़े नही ग संग।

मरे कटे नइ वो कभू,रइथे करिया रंग।24


रोजे बिहना माँजथे,आरा ला बत्तीस।

दुई चिराके हो जथे,करे तभो ना रीस।25


हाथ गोड़ दोनों नही,दुनिया तभो घुमाय।

बिन मुँह बाँटे ज्ञान ला,बता चीज का आय।26


जेखर छाती मा चले,मोटर गाड़ी कार।

चुपे चाप जेहर सहे,सबे चीज के भार।27


अपन अपन मा हे मगन,जेला धर सब हाथ।

बाप संग बेटा भिड़े,बबा ठठाये माथ।28


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

गर्मी छुट्टी(रोला छंद)

 """"""""गर्मी छुट्टी(रोला छंद)


बन्द हवे इस्कूल,जुरे सब लइका मन जी।

बाढ़य कतको घाम,तभो घूमै बनबन जी।

मजा उड़ावै घूम,खार बखरी अउ बारी।

खेले  खाये खूब,पटे  सबके  बड़ तारी।


किंजरे धरके खाँध,सबो साथी अउ संगी।

लगे जेठ  बइसाख,मजा  लेवय  सतरंगी।

पासा  कभू  ढुलाय,कभू  राजा अउ रानी।

मिलके खेले खेल,कहे मधुरस कस बानी।


लउठी  पथरा  फेक,गिरावै  अमली मिलके।

अमरे आमा जाम,अँकोसी मा कमचिल के।

धरके डॅगनी हाथ,चढ़े सब बिरवा मा जी।

कोसा लासा हेर ,खाय  रँग रँग के खाजी।


घूमय खारे  खार,नहावय  नँदिया  नरवा।

तँउरे ताल मतंग,जरे जब जब जी तरवा।

आमाअमली तोड़,खाय जी नून मिलाके।

लाटा खूब बनाय,कुचर अमली ला पाके।


खेले खाय मतंग,भोंभरा  मा गरमी के।

तेंदू कोवा चार,लिमउवा फर दरमी के।

खाय कलिंदर लाल,खाय बड़ ककड़ी खीरा।

तोड़  खाय  खरबूज,भगाये   तन   के  पीरा।


पेड़ तरी मा लोर,करे सब हँसी ठिठोली।

धरे  फर  ला  जेब,भरे बोरा अउ झोली।

अमली आमा देख,होय खुश घर मा सबझन।

कहे  करे बड़ घाम,खार  मा  जाहू  अबझन।


दाइ ददा समझाय,तभो कोनो नइ माने।

किंजरे  घामे घामे,खेल  भाये  ना आने।

धरे गोंदली जेब,जेठ ला बिजरावय जी।

बर पीपर के छाँव,गाँव गर्मी भावय जी।


झट बुलके दिन रात,पता कोई ना पावै।

गर्मी छुट्टी आय,सबो  मिल मजा उड़ावै।

बाढ़े मया पिरीत,खाय अउ खेले मा जी।

तन मन होवै पोठ,घाम  ला झेले मा जी।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को(कोरबा)

Monday, 14 April 2025

कुकुभ छंद-पिंजरा के पंछी(गीत)

 कुकुभ छंद-पिंजरा के पंछी(गीत)


घर में बैठे देख मनुष ला,पिंजरा के पंछी बोले।

कइसे लगथे बता धँधाये,पाँव पाँख ला बिन खोले।


असकटात हस दू दिन मा तैं,अपने महल अटारी मा।

मन नइ माढ़त हावय तोरे,कुरिया अँगना बारी मा।

बित्ता भरके मोरे पिंजरा,तनमन ला रहिरहि छोले।

घर में बैठे देख मनुष ला,पिंजरा के पंछी बोले----


दाना पानी देके मोला,धाँधे रहितथ तँय रोजे।

अउ कहिथस मैं गावौं गुरतुर,डर दुख जिवरा मा बोजे।

बँधे बँधे पिंजरा मा जिनगी,डगमग डगमग नित डोले।

घर में बैठे देख मनुष ला,पिंजरा के पंछी बोले----


मन मोरो नइ माड़े भैया,पिंजरा के बीच धँधाये।

छूना ऊँच अगास चाहथौं, डेना पंखा फइलाये।

तोर गली मा आफत आ हे,पिंजरा के पंछी होले।

घर में बैठे देख मनुष ला,पिंजरा के पंछी बोले--


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

Saturday, 12 April 2025

गीत-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया" का तोला परघाँव(सरसी छ्न्द)

 गीत-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"


का तोला परघाँव(सरसी छ्न्द)


का तोला परघाँव भवानी, का तोला परघाँव।

कोरोना हे काल बरोबर, घड़ी घड़ी घबराँव।।


चहल - पहल नइहे मंदिर मा, नइहे तोरन ताव।

डर हे बस अन्तस् के भीतर, भक्ति हवै ना भाव।

जिया बरत हे बम्बर मोरे, कइसे जोत जलाँव।

का तोला परघाँव भवानी, का तोला परघाँव।


मनखे मनखे ले दुरिहागे, खोगे सब सुख चैन।

लइका संग सियान सबे के, बरसत हावै नैन।

मातम पसरे हवै देख ले, शहर लगे ना गाँव।

का तोला परघाँव भवानी, का तोला परघाँव।


जियई मरई एक्के लागे, होवय हाँहाकार।

रक्तबीज कस बढ़े कोरोना, लेके आ अवतार।

आफत भारी हवै टार दे,परौं तोर मैं पाँव।

का तोला परघाँव भवानी, का तोला परघाँव।।


जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

Friday, 4 April 2025

नवरात्रि(कज्जल छंद)



 नवरात्रि(कज्जल छंद)

लागे महिना,हे कुँवार।

बोहावत हे,भक्ति धार।

सजा दाइ बर,फूल हार।

सुमिरन करके,बार बार।


महकै अँगना,गली खोल।

अन्तस् मा तैं,भक्ति घोल।

जय माता दी,रोज बोल।

मनभर माँदर,बजा ढोल।


सबे खूँट हे,खुशी छाय।

शेर सवारी,चढ़े आय।

आस भवानी,हा पुराय।

जस सेवा बड़,मन लुभाय।


पबरित महिना,हरे सीप।

मोती पा ले,मोह तीप।

घर अँगना तैं,बने लीप।

जगमग जगमग,जला दीप।


माता के तैं,रह उपास।

तोर पुराही,सबे आस।

आही जिनगी,मा उजास।

होही दुख अउ,द्वेष नास।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा


Thursday, 27 March 2025

शक्ति छन्द- गड़ी चल

 शक्ति छन्द- गड़ी चल


गड़ी चल ढुलाबों दुनो गड़गड़ी।

मया के सबे दिन झरे बस झड़ी।।

झड़क भात बासी अदौरी बड़ी।

किंजरबों गली मा हँसत हर घड़ी।


निकलबों ठिहा ले बहाना बना।

बबा डोकरी दाइ माँ ला मना।

सबें यार जुरबोंन बर रुख कना।

नँगत खेलबों धूल माटी सना।


कका देही गारी दिखाही छड़ी।

तभो नइ टुटे मीत मन के लड़ी।

गड़ी चल ढुलाबों दुनो गड़गड़ी।

मया के सबे दिन झरे बस झड़ी।।


उड़ाबों हवा मा बना फिलफिली।

चना भूंज खाबोंन खाबों तिली।।

नहाबों नदी मा उड़ाबों मजा।

जगाबों सुते ला नँगाड़ा बजा।।


छिंदी चार आमा कमल के जड़ी।

झराबोंन अमली ग जिद मा अड़ी।।

गड़ी चल ढुलाबों दुनो गड़गड़ी।

मया के सबे दिन झरे बस झड़ी।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)