Sunday, 24 August 2025

कुआँ के मेचका- हरिगीतिका छंद

 कुआँ के मेचका- हरिगीतिका छंद


निकलिस कुँआ ले मेचका, ताना सुनिस जब लोग के।

सोचिस जमाना संग चलहूँ, सुक्ख सुविधा भोग के।।

जग देखहूँ बिरवा तरी, बइठे कुआँ के पार मा।

आइस कटइया पेड़ के, भागिस बचा जी खार मा।।


माते दिखिस मारिक पिटा, बीता अकन भूभाग बर।

थक हार के भागिस लुका, होही बने बन बाग हर।।

बन बाग मा तक चैन नइ, पाइस चिटिक कन मेचका।

होही बने कहि गांव कोती, गीस तज बन मेचका।।


घर गांव के जब हाल देखिस, चाल देखिस लोग के।

गे अकचका जर हर धरे, सब ला शहरिया रोग के।।

सबले बने होही शहर, कहिके शहर के धर डहर।

कूदत चलिस हे मेचका, धूलउ धुँआ लागे जहर।।


आगी लगत गाड़ी रिहिस , ले दे बचाइस जान ला।

आगिस शहर किसनो करत, देखिस शहर के शान ला।

बड़ अटपटा लागिस छटा, घर ऊँच अउ सब नीच हे।

बस्सात नाली हा शहर अउ, घर डहर के बीच हे।।


दरुहा पड़े नाली तरी, गरुवा कुकुर चांटत हवै।

मनखें खुदे अपने नरी बर, डोर मिल आंटत हवै।

देखिस लड़त अपने अपन, मनखें शहर अउ गांव के।

सोचिस खुशी सुख बाहरी, सब हा हवै बस नांव के।।


ये बाहरी दुनिया सुवारथ, मा सने जंजाल हे।

हे सुख कुँआ मा फेर ये, बाहिर जगत हा काल हे।।

बाहिर निकल के कूप ले, पछतात हावै मेचका।

अउ फेर कुँआ मा रहे बर, आत हावै मेचका।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

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