बनगे हवै कबीर- सरसी छंद
कलम धरे नइ आय तहू हा, बनगे हवै कबीर।
घात लगाये कस रहिरहि के,टीपे धरम ल तीर।।
मइल हवै जे अंतस भीतर, ते तन नइ ममहाय।
जस देखे तस दिखथे दुनिया, अँधरौटी जब छाय।।
धरम सिखाथे गूढ़ जिये के, छीच सुमत सत नीर।
कलम धरे नइ आय तहू हा, बनगे हवै कबीर।।
पंथ राज दल बल समाज के, सब पहिरें हें ताज।
अपन अपन गुरु इष्ट देव ला, पूजैं सरी समाज।।
जनम मरन ला जान सके नइ, ज्ञानी गुणी अमीर।
कलम धरे नइ आय तहू हा, बनगे हवै कबीर।।
येला वोला गरियाये मा, करियाये अउ भाग।
ये जग ला बस जोड़े रखथे, मीठ बोल अनुराग।।
माँस मंद बिन मन नइ माड़े, भाय दूध ना खीर।
कलम धरे नइ आय तहू हा, बनगे हवै कबीर।।
मानवता मनखें मा राहय, जाने जिनगी मोल।
होय करम बढ़िया नित जग मा, कहै शास्त्र मुँह खोल।।
ज्ञान नयन ए धरम जिया ए, करम बनाथे वीर।
कलम धरे नइ आय तहू हा, बनगे हवै कबीर।।
कबिरा के कथनी करनी मा, रिहिस चिटिक ना भेद।
फेर आज करिया तन उप्पर, हावै बसन सफेद।।
एक आँख मा दिखे कोइला, एक आँख मा हीर।
कलम धरे नइ आय तहू हा, बनगे हवै कबीर।।
कुकरा आज कबीर बने हे, सुबे शाम दै बांग।
देखावा मा बुड़े रहै नित, पीके गांजा भांग।।
गुण गियान के दरस परख ना, ना अंतस मा पीर।
कलम धरे नइ आय तहू हा, बनगे हवै कबीर।।
धरम बुरा नइ होय कभू भी, करम लगाथे दाग।
घर बन उँखरो जलबे करथे, जेन लगाथे आग।।
जिया झाँकना चाही खुद के, भेदभाव पट चीर।
कलम धरे नइ आय तहू हा, बनगे हवै कबीर।।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)
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