Sunday 9 July 2017

आजा रे बादर(ताटंक छंद)

आजा रे बादर(ताटंक छंद)गीत

लकलक लकलक जरत हवय बड़,बैसाख जेठ कस छानी।
सावन   मा   तैं   घलो  विधाता, काबर   नइ   देवस  पानी।

जागे  नइहे  धान   पान हा , सुख्खा  हे  तरिया  डोली।
जरत हवय जिवरा किसान के,मुँह ले नइ फूटय बोली।
रहि  रहि  के  तैं  काबर हमला,घूमावत रहिथस घानी।
सावन  मा  तैं  घलो  विधाता, काबर  नइ  देवस पानी।

नैन  निहारत  रहिथे  बादर ,तोला  घेरी  बेरी गा।
मोर किसानी ले मनखे हे,गाय गरू अउ छेरी गा।
तोर भरोसा भाग मोर हे , झनकर तैं चानी चानी।
सावन मातैं घलो विधाता,काबर नइ देवस पानी।

थोर  थार  तैंहा  असाड़  मा ,पानी  काबर बरसाये।
छितवाके के तैं बीज भात ला,बूंद बूंद बर तरसाये।
सावन  के  तैं  झड़ी  लगादे,आके  वो बरखा रानी।
सावन मा तैं  घलो विधाता ,काबर नइ देवस पानी।

जाँगर  नाँगर  मोर तीर हे, तोर तीर  हावय पानी।
तोर भरोसा मैंहर रहिथों ,चले नहीं गा जिनगानी।
बरस बरस के तैंहर आजा,करदे धरती ला धानी।
सावन मातैं घलो विधाता,काबर नइ देवस पानी।

दिन रात देखथँव मैं तोला,बरसा धर तैंहर आजा।
देखे नहीं हिरख के तोला,वो मन हा होवय राजा।
लाज राख दे आके बादर,झन बोर मोर जिनगानी।
सावन मा तैं घलो विधाता,काबर  नइ देवस पानी।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)

No comments:

Post a Comment