Monday, 28 July 2025

बरवै छंद- जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया" आ रे बादर(गीत)

 बरवै छंद- जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया" 


आ रे बादर(गीत)


धान पान रुख राई, सबे सुखाय।

ना पानी ना काँजी, सावन काय।


अगिन बरत हे भुइयाँ, हरगे चेत।

बूंद बूंद बर बिलखै, डोली खेत।

मरे मोर कस मछरी, मेंढक मोर।

सबके सुख चोराये, बादर चोर।

सुध बुध अब सब खोगे, मन अकुलाय।

ना पानी ना काँजी, सावन काय।।


निकल जही अइसन मा, मोरे जान।

जादा तैं तड़पा झन, हे भगवान।।

जल्दी आजा जल धर, बादर देव।

खेत किसानी के तैं, आवस नेव।।

भुइयाँ छाँड़य दर्रा, ताल अँटाय।

ना पानी ना काँजी, सावन काय।।


बेटी के बिहाव अउ, बेटा जान।

तोर तीर हे अटके, गउ ईमान।।

देखत रहिथौं तोला, बस दिन रात।

जिनगी मोर बचा दे, आ लघिनात।

बाँचे खोंचे भुइयाँ, झन बेंचाय।।

ना पानी ना काँजी, सावन काय।।


जाँगर टोर सकत हौं, तन जल ढार।

फेर तोर बिन हरदम, होथे हार।

रावण राज लगत हे, सावन मास।

दावन मा बेचाये, खुसी उजास।।

गड़े जिया मा काँटा, धीर खराय।

ना पानी ना काँजी, सावन काय।।


भाग भोंग के मोरे, झन तैं भाग।

करजा बोड़ी बढ़ही, झन दे दाग।

मैं हर साल कलपथौं, छाती पीट।

तैं चुप देखत रहिथस, बनके ढीट। 

बस बरखा बरसा दे, ले झन हाय।

ना पानी ना काँजी, सावन काय।।


जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

Wednesday, 23 July 2025

बरसा घरी तरिया-लावणी छंद

 बरसा घरी तरिया-लावणी छंद


पानी गरमी घरी रिहिस कम, अब टिपटिप ले होगे हे।

लात तान के जीव ताल के, पानी भीतर सोगे हे।।


छिनछिन बाढ़य घाट घठौदा, डूबत हावय पचरी जी।

झिमिर झिमिर जल धार झरत हे, नाचै मेढ़क मछरी जी।

गावत छोटे बड़े मेचका, कूदा मारे पानी मा।

हाथ गोड़ लहरावै कछुवा, बरखा के अगवानी मा।

सबे जीव खुश नाचय गावय, डर दुख संसो खोगे हे।

पानी गरमी घरी रिहिस कम, अब टिपटिप ले होगे हे।


ढेर मरत नइ हवै ढोंड़िहा, सरपट सरपट भागत हे।

लद्दी भीतर बाम्बी मोंगर, सूतत नइहे जागत हे।

बिहना ले मुँधियारी होगे, भइसा भैइसी बूड़े हे।

लइका कस चढ़ चढ़ कूदे बर, मेढ़क मछरी जूड़े हे।

डड़ई डुडुवा रोहू कतला, गरमी भर दुख भोगे हे।

पानी गरमी घरी रिहिस कम, अब टिपटिप ले होगे हे।


पाँखी माँगत हावै पखना, सरलग पानी देख बढ़त।

घूरौं झन कहि डर के मारे, हावय मंतर पार पढ़त।

बने हवै बर पाना डोंगा, सब ला पास बुलावत हे।

मनमाड़े खुश होके लहरा, संझा बिहना गावत हे।

लहू चढ़ाये बर लागत हे, धरे जोंक ला रोगे हे।

पानी गरमी घरी रिहिस कम, अब टिपटिप ले होगे हे।


हरियर हरियर पार दिखत हे, भरे लबालब तरिया हे।

ताल कभू नइ पूछे पाछे, कोन गोरिया करिया हे।

तिरिथ बरोबर तरिया लागे, तँउरे तर जावै चोला।

मुचुर मुचुर मुस्कावत हावै, नन्दी सँग शंकर भोला।

जीव जरी का कमल कोकमा, सबे मया मा मो गे हे।

पानी गरमी घरी रिहिस कम, अब टिपटिप ले होगे हे।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

Thursday, 17 July 2025

बरसात और महँगाई

 बरसात और महँगाई


प्रकृति समस्त जीवों की जीवनदायिनी है। यदि हम मनुष्य उसके नियमों का सम्मान करते हुए समरस जीवन व्यतीत करें और उसे हानि न पहुँचाएँ, तो निःसंदेह हमारा जीवन सुखमय, संतुलित और समृद्ध हो सकता है। किंतु हमारी अतृप्त लालसा, भौतिकता की दौड़ और स्वार्थपरक दृष्टिकोण के कारण हम निरंतर प्रकृति का दोहन कर रहे हैं। परिणामस्वरूप हमें विभिन्न त्रासदियों और आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है—कहीं विनाशकारी बाढ़, कहीं अकाल-सूखा, तो कहीं प्रचंड तूफान। ये सब प्रकृति में उत्पन्न असंतुलन के दुष्परिणाम हैं, और यही असंतुलन कई समस्याओं को जन्म देता है। उनमें से एक समस्या है महँगाई, जो बरसात ऋतु में अपेक्षाकृत बढ़ जाती है। यह महँगाई अधिकतर खाने-पीने की वस्तुओं से संबंधित होती है, क्योंकि बारिश के समय पानी के चलते साग-सब्जियों की फसलें नष्ट हो जाती हैं।


जब प्रकृति संतुलित रहती है, तो वह किसी भी प्राणी को जीवन-आवश्यक वस्तुओं की कमी नहीं होने देती। वर्षा ऋतु इसका उत्तम उदाहरण है। पहली फुहार के साथ ही धरती की गोद में सोए हुए बीज जागृत होकर अंकुरित होते हैं, और निरंतर जल-प्राप्ति से धीरे-धीरे फैलते व फलीभूत होते हैं। वर्षा में पेड़-पौधे खूब बढ़ते हैं, चहुँओर हरियाली नजर आती है। नदी, ताल, कुआँ, बावली अपने पूर्ण रूप में होते हैं। दादुर, मोर, पपीहा वर्षा में खूब गाते-नाचते हैं। कई लोग बरसात के दिनों में पानी से परेशान रहते हैं, वहीं कृषक वर्ग खेतों में काम करते हुए कर्मा, ददरिया की तान छेड़ते हैं। इस समय न केवल पशुओं के लिए चारागाह की सुविधा होती है, बल्कि मनुष्यों को भी बिना किसी श्रम के स्वमेव उगने वाली साग-भाजियाँ प्राप्त होती हैं।


छत्तीसगढ़ में ऐसे स्वतः उगने वाले पौधों और बेलों को लमेरा कहा जाता है, जो ग्रामीण जीवन की पोषण-आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। इनमें चरोटा, जरी, बर्रे, पोई, खोटनी जैसी भाजी के साथ-साथ पिहरी, करील और पुटू जैसे कंद-मूल भी शामिल हैं, जो स्वाद और पोषण दोनों में समृद्ध होते हैं। पेड़ों के कोमल पत्ते जैसे—इमली, बोहार, कोईलार—भी इस मौसम में लाभकारी साग के रूप में उपयोग में आते हैं। बरसात में खेकसी, करेला, कुंदरू खूब फैलते हैं और फलते हैं, जो स्थानीय भोजन व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा हैं।


किन्तु आज के समय में आधुनिकीकरण और विकास की दौड़ ने शहरों के साथ-साथ गाँवों की हरियाली और खाली स्थानों को भी निगल लिया है। कारखानों, सड़कों, पुलों और ऊँचे टावरों की प्रतिस्पर्धा में प्रकृति के पनपने के लिए भूमि का अभाव हो गया है। न खेत बच पा रहा है, न ही ब्यारा, बाड़ी। जब प्रकृति स्वयं ही अपने अस्तित्व को बचा पाने में असमर्थ हो जाती है, तो वह अन्य जीवों को भोजन देने की शक्ति भी खो देती है।


इस असंतुलन का दुष्परिणाम महँगाई, खाद्य संकट और पारिस्थितिक विषमता के रूप में सामने आता है। मनुष्य प्रकृति से दूर होता चला गया है, और बाजार-निर्भर बन गया है, जहाँ व्यापारी केवल लाभ की दृष्टि से कार्य करते हैं। वे जन-संकट का लाभ उठाकर साग-सब्जियों के दाम बढ़ा देते हैं। लेकिन जो प्रकृति के समीप रहते हैं, उन्हें ऐसी समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता; क्योंकि वे लमेरा और अन्य वनस्पतियों को सहज रूप से प्राप्त कर लेते हैं।


बरसात में जब नदी-नाले उफान पर होते हैं, तब मछलियाँ बड़ी मात्रा में दिखाई देती हैं, जो मांसाहारी लोगों के लिए भोजन का स्रोत बन जाती हैं। पहले की पीढ़ियाँ—जैसे दीदी, नानी आदि—साग-सब्जियों को सुखाकर वर्षा में उपयोग हेतु संग्रहित करती थीं। आज की पीढ़ी ने यह परंपरा लगभग छोड़ दी है, जिससे हमें पूर्णतः बाजार की महँगी वस्तुओं पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसे में वही प्राकृतिक उपहार—पिहरी, पुटू, करील—जो कभी सहज उपलब्ध थे, अब ऊँचे दामों में बिकते हैं। यह प्रकृति से दूरी और हमारी सुविधाभोगी मानसिकता का परिणाम है।


प्रकृति सदैव सिखाती है कि जब हम उसके नियमों का सम्मान करते हैं, तो वह हमारी हर आवश्यकता की पूर्ति करती है। लेकिन जब हम स्वार्थ और लालसा में डूब जाते हैं, तो वही प्रकृति अपना संतुलन बिगाड़ देती है। प्रकृति से जितने हम दूर होंगे, उतने ही ज्यादा दुख भी झेलेंगे। अतः हमें प्रकृति के साथ संतुलन बनाए रखते हुए चलना चाहिए। पेड़-पौधों को नहीं काटना चाहिए, बल्कि खेत, मैदान, बाग-बगिचा, बाड़ी-ब्यारा, ताल-नदी और बाँधों के संरक्षण में सक्रिय कार्य करना चाहिए। यदि हम प्रकृति को पोषित करेंगे, तो निःसंदेह वह भी हमें पोषित करेगी; किंतु यदि हम उसे नष्ट करेंगे, तो हमारा भी विनाश निश्चित होगा।


जीतेन्द्र वर्मा "खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

सावन-भादो के व्रत-त्योहार: छत्तीसगढ़ की कृषि संस्कृति, नारी शक्ति और स्वास्थ्य चेतना*

 *सावन-भादो के व्रत-त्योहार: छत्तीसगढ़ की कृषि संस्कृति, नारी शक्ति और स्वास्थ्य चेतना*


छत्तीसगढ़ की प्राचीन संस्कृति में कृषि परंपरा का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रहा है। यहाँ का प्रत्येक व्रत-त्योहार, संस्कृति-संस्कार और पारंपरिक परंपराएँ कहीं न कहीं कृषि से गहराई से जुड़ी होती हैं। धान की भरपूर उपज के कारण इस राज्य को *‘धान का कटोरा’* कहा जाता है, और यहाँ मनाए जाने वाले अधिकांश पर्व धान की बुवाई या कटाई से संबंधित होते हैं, जैसे—अक्ति, जुड़वास, सवनाही, इतवारी, सम्मारी, हरेली, पोला, नवाखाई, छेराछेरा और मेला मड़ाई। अन्य व्रत-त्योहार भी इसी कृषि चक्र से प्रेरित हैं, जो कृषक जीवन की लय और श्रम की गति को संतुलित करते हैं।


छत्तीसगढ़ की संस्कृति में व्रत और त्योहारों का स्थान केवल धार्मिक आस्था तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सामाजिक संरचना, स्वास्थ्य चेतना और कृषक जीवन की आवश्यकताओं से भी गहराई से जुड़ा हुआ है। एक रोचक तथ्य यह है कि वर्ष भर में मनाए जाने वाले अधिकांश प्रमुख त्योहार सावन और भादो मास में ही केंद्रित होते हैं। यह विचारणीय है कि इन्हीं दो महीनों में व्रत-त्योहारों की इतनी अधिकता क्यों होती है, जबकि इन्हें पूरे वर्ष में वितरित किया जा सकता था। इसका उत्तर छत्तीसगढ़ की कृषि संस्कृति, मौसमी परिस्थितियों और सामाजिक जीवन की संरचना में छिपा है।


इन महीनों के त्योहारों की एक विशेषता यह है कि इनमें व्रत आधारित पर्वों की संख्या अधिक होती है। *सावन सोमवारी, हरियाली, हरियाली तीज, पोला, कमरछठ, हलछष्ठी, नागपंचमी, ऋषि पंचमी, राखी, कृष्ण जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी* जैसे पर्व इसी समय मनाए जाते हैं। इन पर्वों में स्त्री-पुरुषों की समान भागीदारी रहती है, परंतु आयोजन और परंपरा का निर्वहन मुख्यतः महिलाओं द्वारा ही किया जाता है। कमरछठ, हलछष्ठी और तीज जैसे व्रत तो पूर्णतः महिलाओं द्वारा ही किए जाते हैं। यह न केवल धार्मिक आस्था का प्रदर्शन है, बल्कि महिलाओं के सामाजिक नेतृत्व, सामूहिक सहभागिता और स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता का भी प्रतीक है।


इन त्यौहारों के अलावा छत्तीसगढ़ में आदि काल से ही ग्राम-घर, खेती-किसानी की सुरक्षा और श्रमिकों को विश्राम देने के उद्देश्य से सप्ताह में एक दिन को पर्व के रूप में मनाने की परंपरा रही है। इसे विभिन्न गाँवों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है—जैसे इतवारी, बुधवारी, गुरुवारी आदि। इन पर्वों के दिन खेतों में कार्य नहीं किया जाता, जिससे कृषकों को मानसिक और शारीरिक विश्राम मिलता है। यह परंपरा सावन-भादो में विशेष रूप से प्रचलित है, जब खेतों में निंदाई-चलाई व रोपाई जैसे कार्य पूरे जोर पर होते हैं, और महिलाएँ कीचड़-भरे खेतों में दिनभर श्रम करती हैं। जिससे उनके हाथ व पैर पानी व कीचड़ के सम्पर्क में गलने लगते हैं। साथ ही लगातार बारिश में भी रहना होता है। ऐसे में यह पर्व उन्हें विश्राम और पुनर्नव ऊर्जा प्रदान करते हैं।


वर्षा ऋतु के चार महीने—सावन, भादो, आश्विन और कार्तिक—को चौमासा कहा जाता है। इस काल में वातावरण में अत्यधिक नमी, जलभराव, कीचड़ और जीवाणुओं की सक्रियता रहती है। परिणामस्वरूप पाचन क्षमता कमजोर हो जाती है और पेट, नाक, कान और गले से जुड़ी बीमारियाँ बढ़ जाती हैं। हमारे पूर्वजों ने इस वैज्ञानिक तथ्य को ध्यान में रखते हुए व्रत-उपवास की परंपरा को जन्म दिया। उपवास के माध्यम से शरीर को विश्राम मिलता है, आहार पर नियंत्रण से स्वास्थ्य सुरक्षित रहता है, और रोगों से बचाव संभव होता है। यह परंपरा न केवल शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभकारी है, बल्कि मानसिक संतुलन और आत्मसंयम का अभ्यास भी कराती है।


सावन-भादो के पर्व कृषक जीवन की आवश्यकता से भी जुड़े हैं। लगातार खेतों में काम करने से कृषकों का स्वास्थ्य प्रभावित हो सकता है। ऐसे में व्रत-त्योहार उन्हें मानसिक और शारीरिक विश्राम प्रदान करते हैं। साथ ही, यह पर्व कृषक वर्ग को कठिन श्रम से कुछ समय के लिए दूर कर सामाजिक और पारिवारिक जीवन से जुड़ने का अवसर भी देते हैं। यदि व्रत-त्योहारों की परंपरा न होती, तो कृषक वर्ग लगातार खेतों में कार्य करता रहता, जिससे उनका स्वास्थ्य और सामाजिक संतुलन बिगड़ सकता था।


इस प्रकार सावन और भादो मास में व्रत-त्योहारों की अधिकता केवल धार्मिक भावना से नहीं, बल्कि वैज्ञानिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आवश्यकता से जुड़ी हुई है। इन पर्वों के माध्यम से न केवल स्वास्थ्य की रक्षा होती है, बल्कि कृषक जीवन को संतुलन और विश्राम भी मिलता है। और इन सबमें महिलाओं की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण और नेतृत्वकारी होती है, जो छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक चेतना, नारी शक्ति और कृषि जीवन की जीवंतता को दर्शाती है।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

Monday, 14 July 2025

गरमी मा ताल नदी-सार छंद

 गरमी मा ताल नदी-सार छंद


देख घाम मा नदिया तरिया, सबके मन ललचाथे।

चटचट जरथे चारो कोती, जुड़ जल जिया लुभाथे।।


 पार पाय नइ नल अउ बोरिंग, नदिया अउ तरिया के।

भेदभाव नइ करे ताल नद, गुरिया अउ करिया के।।

का जवान लइका सियान सब, डुबकी मार नहाथे।

देख घाम मा नदिया तरिया, सबके मन ललचाथे।।


कोनो कूदे कानों तँउरे, कोनो डुबकी मारे।

तन के कतको रोग घलो हा, डुबकत तँउरत होरे।

बुड़े बुड़े पानी के भीतर, कतको बेर पहाथे।

देख घाम मा नदिया तरिया, सबके मन ललचाथे।


लहरा होथे गहरा होथे, डर रहिथे बड़ भारी।

 नइ जाने तँउरें बर तउने, मारे झन हुशियारी॥ 

जीव जंतु तक के ये डेरा, काम सबे के  आथे।

देख घाम मा नदिया तरिया, सबके मन ललचाथे।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

आगे का मानसून(गीत)

 आगे का मानसून(गीत)  


बुलके नइहें मई घलो हा, लागे नइहें जून।

रझरझ रझरझ बरसे पानी, आगे का मानसून।।


नवतप्पा मा चप्पा चप्पा, माते हावय गैरी।

टुहूँ देखाये कस लागत हे, ये बादर बन बैरी।।

कोई बतावव करहूँ बाँवत, खाके बासी नून।।

रझरझ रझरझ बरसे पानी, आगे का मानसून।।


होरी हरिया संसो मा हें, नाँगर धरै कि पेरा।

घर अउ खेत के काम बचे हे, काँपे आमा केरा।।

उमड़त घुमड़त देख बदरा ला, अँउटत हावय खून।

रझरझ रझरझ बरसे पानी, आगे का मानसून।।


साँप सुते नइ हावय मन भर, बतर किरी हे बौना।

कांदी कुल्थी नार लमेरा, जागे तुलसी दौना।।

हरियर होवत हवै धरा, पुरवा छेड़य धून।

रझरझ रझरझ बरसे पानी, आगे का मानसून।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

चौमास मा बिजुरी के डर-हरिगीतिका छंद

 चौमास मा बिजुरी के डर-हरिगीतिका छंद


पानी गिरे चौमास मा, बादर करे गड़गड़ गजब।

जिवरा डरे सुनके अजब, बिजुरी गिरे कड़कड़ गजब।


छाये घटा घनघोर अउ, टकराय घन आगास मा।

बिजुरी गिरे के डर रथे, चारो डहर चौमास मा।।


का जानवर अउ का मनुष, सब बर बिजुरिया काल हे।

घर बन घलो जाथे उजड़, बिजुरी बिकट जंजाल हे।।


गिरही कते कोती बिजुरिया, ये समझ मा आय ना।

फोकट मरे झन पेड़ पउधा ना मनुष गरु गाय ना।।


खींचे बिजुरिया ला अपन कोती सुचालक चीज हर।

रहिथे तड़ित चालक जिहाँ तौने सुरक्षित गाँव घर।।


यमराज बनके गिर जथे, अउ प्राण ला लेथे झटक।

पानी गिरत रहिथे गजब ता, बाग बन मा झन भटक।।


बादर गजब गर्जन करे तब, टेप टीवी बंद रख।

नित होश मा रहि काम कर, मुख मा कहानी छंद रख।।


बाहिर हवस ता बैठ उखड़ू, मूंद के मुँह कान ला।

रख जानकारी सावधानी अउ बचाले जान ला।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

हरेली हरियर हरियर

 हरेली हरियर हरियर 


दिखे खेत-खार हरियर।

 डोंगरी पहाड़ हरियर ।

 मन   होगे   बरपेली, हरियर -हरियर।

 आय हे हरेली, हरियर-हरियर।।


 खोंच लेना डारा , निमवा के डेरउठी म। 

चढ़ के देख एक घांव, गेड़ी के पंऊठी  म।

 बड़ मजा आही, मन ह हरसाही।

 नहा-खोर हुम दे दे, पानी फरिहर-फरिहर।।।। 

आय हे हरेला...........।


 हे थारी म चीला, जुरे हवय माई-पिला। 

धोके नांगर-जुड़ा। गेड़ी मचे टुरा। 

माड़े टँगिया-बसला आरी। 

चढ़े पान फूल-सुपारी। 

चढ़ा बंदन-चन्दन, फोड़ ठक-ठक नरियर।।।। 

आय हे हरेला...........। 


हे महुतुर तिहार के, संसो-फिकर ल टार के। 

मानव धरती दाई ल, डारा-पाना रुख-राई ल। 

थेभा मा किसानी के सरी चीज हर।।

 आय हे...........।    


    जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"       

   बाल्को(कोरबा)

गुरु-कुंडलियाँ

 गुरु-कुंडलियाँ


होवै गुरुवर के कृपा, बाढ़ै तब गुण ज्ञान।

चेला के चरचा चले, पावै यस जस मान।।

पावै यस जस मान,गुणी अउ ज्ञानी बनके।

पा गुरु के आशीष,चलै नित चेला तनके।।

देख जगत इतिहास, बिना गुरु ज्ञानी रोवै।

गुरु हे जेखर तीर, ओखरे यस जस होवै।।


दुरगुन ला दुरिहा करे, मार ज्ञान के तीर।

बड़े कहाए देव ले, गुरु ए गंगा नीर।।

गुरु ए गंगा नीर, शरण आये ला तारे।

अँधियारी दुरिहाय, ज्ञान के जोती बारे।।

बने ठिहा के नेंव, सबर दिन छेड़े सत धुन।

जे घट गुरु के वास, तिहाँ ले भागे दुरगुन।।


गुरु के गुण अउ ज्ञान ले, खुलै शिष्य के भाग।

जगा शिष्य ला नींद ले, धोय चरित के दाग।।

धोय चरित के दाग, हाथ चेला के धरके।

चेला होय सजोर, सहारा पा गुरुवर के।।

हाँकिस जीवन डोर, कृष्ण बल पार्थ पुरु के।

महिमा अपरंपार, जगत मा हावै गुरु के।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)




घर की नाली जाम है, और कोसी की बात कर रहे हो।

चाटुकारिता में जुबान है और सरफ़रोशी की बात कर रहे हो।

बाप ही कातिल है, जमाने का, यह जानते हो फिर भी,

दोषी में लिस्ट में पड़ोसी की बात कर रहे हो।।

बरसात और महँगाई

 बरसात और महँगाई


प्रकृति समस्त जीवों की जीवनदायिनी है। यदि हम सब मनुष्य उसके नियमों का सम्मान करते हुए समरस जीवन व्यतीत करे, और उसे हानि न पहुँचाये तो निःसंदेह हमारा जीवन सुखमय, संतुलित और समृद्ध हो सकता है। किंतु हमारी अतृप्त लालसा, भौतिकता की दौड़ और स्वार्थपरक दृष्टिकोण के कारण हम निरंतर प्रकृति का दोहन  कर रहे हैं। परिणामस्वरूप हमें विभिन्न त्रासदियों और आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है—कहीं विनाशकारी बाढ़, कहीं अकाल-सूखा, तो कहीं प्रचंड तूफान। ये सब प्रकृति में उत्पन्न असंतुलन के दुष्परिणाम हैं, और उही असंतुलन कई समस्याओं को जन्म देती है। उनमें से एक समस्या है,महँगाई। जो बरसात ऋतु में अपेक्षाकृत बढ़ जाती है, और यह महँगाई ज्यादातर खाने पीने के वस्तुओं से सम्बंधित रहती है। क्योकि बारिश के समय पानी के चलते साग सब्जियों के फसल नष्ट हो जाते हैं। 


            जब प्रकृति संतुलित रहती है, तो वह किसी भी प्राणी को जीवन-आवश्यक वस्तुओं की कमी नहीं होने देती। वर्षा ऋतु इसका उत्तम उदाहरण है। पहली वर्षा की फुहार के साथ ही धरती की गोद में सोए हुए बीज जागृत होकर अंकुरित होते हैं, और निरंतर जल-प्राप्ति से धीरे-धीरे फैलते व फलीभूत होते हैं। वर्षा ऋतु में पेड़ पौधे खूब बढ़ते है। चहुँओर हरियाली नजर आती है। नदी, ताल, कुआँ, बावली अपने पूर्ण रूप में होते है। दादुर, मोर, पपीहा वर्षा ऋतु में खूब गाते नाचते हैं। कई लोग बरसात के दिनों में पानी से परेशान रहते है, वहीं कृषक वर्ग खेतों में काम करते हुए कर्मा, ददरिया की तान छेड़ते है। इस समय न केवल पशुओं के लिए चारागाह की सुविधा होती है, बल्कि मनुष्यों को भी बिना किसी श्रम के स्वमेव उगने वाली साग-भाजियाँ प्राप्त होती हैं। छत्तीसगढ़ में ऐसे स्वतः उगने वाले पौधों और बेलों को "लमेरा" कहा जाता है—जो वर्षा ऋतु में ग्रामीण जीवन की पोषण-आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। इनमें चरोटा, जरी, बर्रे, पोई, खोटनी जैसी भाजी के साथ-साथ पिहरी, करील और पुटू जैसी कंद-मूल भी आती हैं, जो स्वाद और पोषण दोनों में समृद्ध होती हैं। साथ ही, पेड़ों के कोमल पत्ते जैसे इमली, बोहार, कोईलार आदि भी इस मौसम में लाभदायक साग के रूप में उपयोग किए जाते हैं।  बारिश के मौसम में खेकसी, करेला, कुंदरू भी खूब फैलते हैं, और फलते हैं। ये सब बरसात में साग भाजी के रूप में काम आते है। पर आज के समय में आधुनिकीकरण और विकास की दौड़ ने शहरों के साथ-साथ गांवों की भी हरियाली और खाली स्थानों को निगल लिया है। कारखाने, सड़कों, पुलों, ऊँचे टावरों की प्रतिस्पर्धा में ऐसी भूमि का अभाव हो गया है जहाँ प्रकृति स्वतंत्र रूप से पनप सके। न खेत बच पा रहा है, और न ही ब्यारा, बाड़ी। जब प्रकृति स्वयं ही अपने अस्तित्व को बचा पाने में असमर्थ हो, तो वह जीवन को भोजन देने की शक्ति भी खो देती है।


इस असंतुलन का दुष्परिणाम महंगाई, खाद्य संकट और पारिस्थितिक संकट के रूप में सामने आता है।मनुष्य प्रकृति से दूर होते हुए, बाजार-निर्भर हो गया है, जहाँ व्यापारी केवल लाभ के उद्देश्य से कार्य करते हैं। वे जन-संकट का लाभ उठाकर साग-सब्जियों के दाम बढ़ा देते हैं। लेकिन जो प्रकृति के समीप रहते हैं, उन्हें ऐसी समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता; क्योंकि वे लमेरा और अन्य साग-भाजियों को सहज रूप से प्राप्त कर लेते हैं।


              बरसात में जब नदी-नाले उफान पर होते हैं, तब मछलियाँ भी बृहद मात्रा में दिखाई देने लगती हैं, जो मांसाहारी लोगों के लिए भोजन का स्रोत बन जाती हैं। पहले की पीढ़ियाँ, जैसे दीदी-नानी आदि, साग-सब्जियों को सुखाकर वर्षा में उपयोग के लिए संग्रहित करती थीं। आज की पीढ़ी ने यह परंपरा लगभग छोड़ दी है, जिससे हमें पूर्णतः बाजार की महँगी वस्तुओं पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसे में वही प्राकृतिक उपहार—पिहरी, पुटू, करील—जो कभी सहज उपलब्ध थे, ऊँचे दामों में बिकते हैं। यह प्रकृति से दूरी और हमारी सुविधाभोगी मानसिकता का परिणाम है।


प्रकृति सदैव हमें सिखाती है कि जब हम उसके नियमों का सम्मान करते हैं, तो वह हमारी हर आवश्यकता की पूर्ति करती है। लेकिन जब हम स्वार्थ और लालसा में डूब जाते हैं, तो वही प्रकृति संतुलन बिगाड़ देती है। प्रकृति से जितने हम दूर होंगें ,उतने ही ज्यादा दुख भी झेलेंगें। इसलिए हमें प्रकृति के साथ संतुलन बनाए रखते हुए चलना चाहिए। पेड़ पौधों को नही काटना चाहिए, ज्यादा से ज्यादा खेत, मैदान, बाग-बगीचा,बाड़ी-ब्यारा, ताल नदी व बांधों आदि के संरक्षण में कार्य करना चाहिए। यदि हम प्रकृति को पोसेंगे तो निःसन्देह वह हमें पोसेंगी, और यदि हम नष्ट करेंगे टी हमारा भी विनाश सुनिश्चित है।


बरसात और महँगाई


प्रकृति समस्त जीवों की जीवनदायिनी है। यदि हम मनुष्य उसके नियमों का सम्मान करते हुए समरस जीवन व्यतीत करें और उसे हानि न पहुँचाएँ, तो निःसंदेह हमारा जीवन सुखमय, संतुलित और समृद्ध हो सकता है। किंतु हमारी अतृप्त लालसा, भौतिकता की दौड़ और स्वार्थपरक दृष्टिकोण के कारण हम निरंतर प्रकृति का दोहन कर रहे हैं। परिणामस्वरूप हमें विभिन्न त्रासदियों और आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है—कहीं विनाशकारी बाढ़, कहीं अकाल-सूखा, तो कहीं प्रचंड तूफान। ये सब प्रकृति में उत्पन्न असंतुलन के दुष्परिणाम हैं, और यही असंतुलन कई समस्याओं को जन्म देता है। उनमें से एक समस्या है महँगाई, जो बरसात ऋतु में अपेक्षाकृत बढ़ जाती है। यह महँगाई अधिकतर खाने-पीने की वस्तुओं से संबंधित होती है, क्योंकि बारिश के समय पानी के चलते साग-सब्जियों की फसलें नष्ट हो जाती हैं।


जब प्रकृति संतुलित रहती है, तो वह किसी भी प्राणी को जीवन-आवश्यक वस्तुओं की कमी नहीं होने देती। वर्षा ऋतु इसका उत्तम उदाहरण है। पहली फुहार के साथ ही धरती की गोद में सोए हुए बीज जागृत होकर अंकुरित होते हैं, और निरंतर जल-प्राप्ति से धीरे-धीरे फैलते व फलीभूत होते हैं। वर्षा में पेड़-पौधे खूब बढ़ते हैं, चहुँओर हरियाली नजर आती है। नदी, ताल, कुआँ, बावली अपने पूर्ण रूप में होते हैं। दादुर, मोर, पपीहा वर्षा में खूब गाते-नाचते हैं। कई लोग बरसात के दिनों में पानी से परेशान रहते हैं, वहीं कृषक वर्ग खेतों में काम करते हुए कर्मा, ददरिया की तान छेड़ते हैं। इस समय न केवल पशुओं के लिए चारागाह की सुविधा होती है, बल्कि मनुष्यों को भी बिना किसी श्रम के स्वमेव उगने वाली साग-भाजियाँ प्राप्त होती हैं।


छत्तीसगढ़ में ऐसे स्वतः उगने वाले पौधों और बेलों को लमेरा कहा जाता है, जो ग्रामीण जीवन की पोषण-आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। इनमें चरोटा, जरी, बर्रे, पोई, खोटनी जैसी भाजी के साथ-साथ पिहरी, करील और पुटू जैसे कंद-मूल भी शामिल हैं, जो स्वाद और पोषण दोनों में समृद्ध होते हैं। पेड़ों के कोमल पत्ते जैसे—इमली, बोहार, कोईलार—भी इस मौसम में लाभकारी साग के रूप में उपयोग में आते हैं। बरसात में खेकसी, करेला, कुंदरू खूब फैलते हैं और फलते हैं, जो स्थानीय भोजन व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा हैं।


किन्तु आज के समय में आधुनिकीकरण और विकास की दौड़ ने शहरों के साथ-साथ गाँवों की हरियाली और खाली स्थानों को भी निगल लिया है। कारखानों, सड़कों, पुलों और ऊँचे टावरों की प्रतिस्पर्धा में प्रकृति के पनपने के लिए भूमि का अभाव हो गया है। न खेत बच पा रहा है, न ही ब्यारा, बाड़ी। जब प्रकृति स्वयं ही अपने अस्तित्व को बचा पाने में असमर्थ हो जाती है, तो वह अन्य जीवों को भोजन देने की शक्ति भी खो देती है।


इस असंतुलन का दुष्परिणाम महँगाई, खाद्य संकट और पारिस्थितिक विषमता के रूप में सामने आता है। मनुष्य प्रकृति से दूर होता चला गया है, और बाजार-निर्भर बन गया है, जहाँ व्यापारी केवल लाभ की दृष्टि से कार्य करते हैं। वे जन-संकट का लाभ उठाकर साग-सब्जियों के दाम बढ़ा देते हैं। लेकिन जो प्रकृति के समीप रहते हैं, उन्हें ऐसी समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता; क्योंकि वे लमेरा और अन्य वनस्पतियों को सहज रूप से प्राप्त कर लेते हैं।


बरसात में जब नदी-नाले उफान पर होते हैं, तब मछलियाँ बड़ी मात्रा में दिखाई देती हैं, जो मांसाहारी लोगों के लिए भोजन का स्रोत बन जाती हैं। पहले की पीढ़ियाँ—जैसे दीदी, नानी आदि—साग-सब्जियों को सुखाकर वर्षा में उपयोग हेतु संग्रहित करती थीं। आज की पीढ़ी ने यह परंपरा लगभग छोड़ दी है, जिससे हमें पूर्णतः बाजार की महँगी वस्तुओं पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसे में वही प्राकृतिक उपहार—पिहरी, पुटू, करील—जो कभी सहज उपलब्ध थे, अब ऊँचे दामों में बिकते हैं। यह प्रकृति से दूरी और हमारी सुविधाभोगी मानसिकता का परिणाम है।


प्रकृति सदैव सिखाती है कि जब हम उसके नियमों का सम्मान करते हैं, तो वह हमारी हर आवश्यकता की पूर्ति करती है। लेकिन जब हम स्वार्थ और लालसा में डूब जाते हैं, तो वही प्रकृति अपना संतुलन बिगाड़ देती है। प्रकृति से जितने हम दूर होंगे, उतने ही ज्यादा दुख भी झेलेंगे। अतः हमें प्रकृति के साथ संतुलन बनाए रखते हुए चलना चाहिए। पेड़-पौधों को नहीं काटना चाहिए, बल्कि खेत, मैदान, बाग-बगिचा, बाड़ी-ब्यारा, ताल-नदी और बाँधों के संरक्षण में सक्रिय कार्य करना चाहिए। यदि हम प्रकृति को पोषित करेंगे, तो निःसंदेह वह भी हमें पोषित करेगी; किंतु यदि हम उसे नष्ट करेंगे, तो हमारा भी विनाश निश्चित होगा।


जीतेन्द्र वर्मा "खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

लोकगीत-सरसी छंद गीत

 लोकगीत-सरसी छंद गीत


लोकगीत आये हम सबके, अंतस के आवाज।

सुआ ददरिया कर्मा पंथी, करे जिया मा राज।।


बोह भोजली बेटी माई, लहर तुरंगा गाँय।

थपड़ी पिट पिट सुआ नाचके, सबके जिया लुभाँय।।

बर बिहाव अउ पंथी जस के, मनभावन अंदाज।

लोकगीत आये हम सबके, अंतस के आवाज।।


दरद भुलाके छेड़ ददरिया, बूता करें किसान।

नाचें कर्मा ताल मा झुमके, लइका संग सियान।।

सवनाही साल्हो अउ डंडा, जतरा धनकुल साज।

लोकगीत आये हम सबके, अंतस के आवाज।।


बाँस पंडवानी दोहा मा, कथा कथन भरमार।

ढोलामारू लोरिक चंदा, फागुन फाग बहार।।

नगमत गौरा खेल गीत मा, झूमें सरी समाज।

लोकगीत आये हम सबके, अंतस के आवाज।।


सोहर लोरी भजन भर्थरी, बाँटे भरभर प्रीत।

जनम बिहाव परब अउ ऋतु के, अबड़ अकन हे गीत।।

गायें गाना छत्तीसगढ़िया, करत अपन सब काज।

लोकगीत आये हम सबके, अंतस के आवाज।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)