बरसात और महँगाई
प्रकृति समस्त जीवों की जीवनदायिनी है। यदि हम मनुष्य उसके नियमों का सम्मान करते हुए समरस जीवन व्यतीत करें और उसे हानि न पहुँचाएँ, तो निःसंदेह हमारा जीवन सुखमय, संतुलित और समृद्ध हो सकता है। किंतु हमारी अतृप्त लालसा, भौतिकता की दौड़ और स्वार्थपरक दृष्टिकोण के कारण हम निरंतर प्रकृति का दोहन कर रहे हैं। परिणामस्वरूप हमें विभिन्न त्रासदियों और आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है—कहीं विनाशकारी बाढ़, कहीं अकाल-सूखा, तो कहीं प्रचंड तूफान। ये सब प्रकृति में उत्पन्न असंतुलन के दुष्परिणाम हैं, और यही असंतुलन कई समस्याओं को जन्म देता है। उनमें से एक समस्या है महँगाई, जो बरसात ऋतु में अपेक्षाकृत बढ़ जाती है। यह महँगाई अधिकतर खाने-पीने की वस्तुओं से संबंधित होती है, क्योंकि बारिश के समय पानी के चलते साग-सब्जियों की फसलें नष्ट हो जाती हैं।
जब प्रकृति संतुलित रहती है, तो वह किसी भी प्राणी को जीवन-आवश्यक वस्तुओं की कमी नहीं होने देती। वर्षा ऋतु इसका उत्तम उदाहरण है। पहली फुहार के साथ ही धरती की गोद में सोए हुए बीज जागृत होकर अंकुरित होते हैं, और निरंतर जल-प्राप्ति से धीरे-धीरे फैलते व फलीभूत होते हैं। वर्षा में पेड़-पौधे खूब बढ़ते हैं, चहुँओर हरियाली नजर आती है। नदी, ताल, कुआँ, बावली अपने पूर्ण रूप में होते हैं। दादुर, मोर, पपीहा वर्षा में खूब गाते-नाचते हैं। कई लोग बरसात के दिनों में पानी से परेशान रहते हैं, वहीं कृषक वर्ग खेतों में काम करते हुए कर्मा, ददरिया की तान छेड़ते हैं। इस समय न केवल पशुओं के लिए चारागाह की सुविधा होती है, बल्कि मनुष्यों को भी बिना किसी श्रम के स्वमेव उगने वाली साग-भाजियाँ प्राप्त होती हैं।
छत्तीसगढ़ में ऐसे स्वतः उगने वाले पौधों और बेलों को लमेरा कहा जाता है, जो ग्रामीण जीवन की पोषण-आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। इनमें चरोटा, जरी, बर्रे, पोई, खोटनी जैसी भाजी के साथ-साथ पिहरी, करील और पुटू जैसे कंद-मूल भी शामिल हैं, जो स्वाद और पोषण दोनों में समृद्ध होते हैं। पेड़ों के कोमल पत्ते जैसे—इमली, बोहार, कोईलार—भी इस मौसम में लाभकारी साग के रूप में उपयोग में आते हैं। बरसात में खेकसी, करेला, कुंदरू खूब फैलते हैं और फलते हैं, जो स्थानीय भोजन व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा हैं।
किन्तु आज के समय में आधुनिकीकरण और विकास की दौड़ ने शहरों के साथ-साथ गाँवों की हरियाली और खाली स्थानों को भी निगल लिया है। कारखानों, सड़कों, पुलों और ऊँचे टावरों की प्रतिस्पर्धा में प्रकृति के पनपने के लिए भूमि का अभाव हो गया है। न खेत बच पा रहा है, न ही ब्यारा, बाड़ी। जब प्रकृति स्वयं ही अपने अस्तित्व को बचा पाने में असमर्थ हो जाती है, तो वह अन्य जीवों को भोजन देने की शक्ति भी खो देती है।
इस असंतुलन का दुष्परिणाम महँगाई, खाद्य संकट और पारिस्थितिक विषमता के रूप में सामने आता है। मनुष्य प्रकृति से दूर होता चला गया है, और बाजार-निर्भर बन गया है, जहाँ व्यापारी केवल लाभ की दृष्टि से कार्य करते हैं। वे जन-संकट का लाभ उठाकर साग-सब्जियों के दाम बढ़ा देते हैं। लेकिन जो प्रकृति के समीप रहते हैं, उन्हें ऐसी समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता; क्योंकि वे लमेरा और अन्य वनस्पतियों को सहज रूप से प्राप्त कर लेते हैं।
बरसात में जब नदी-नाले उफान पर होते हैं, तब मछलियाँ बड़ी मात्रा में दिखाई देती हैं, जो मांसाहारी लोगों के लिए भोजन का स्रोत बन जाती हैं। पहले की पीढ़ियाँ—जैसे दीदी, नानी आदि—साग-सब्जियों को सुखाकर वर्षा में उपयोग हेतु संग्रहित करती थीं। आज की पीढ़ी ने यह परंपरा लगभग छोड़ दी है, जिससे हमें पूर्णतः बाजार की महँगी वस्तुओं पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसे में वही प्राकृतिक उपहार—पिहरी, पुटू, करील—जो कभी सहज उपलब्ध थे, अब ऊँचे दामों में बिकते हैं। यह प्रकृति से दूरी और हमारी सुविधाभोगी मानसिकता का परिणाम है।
प्रकृति सदैव सिखाती है कि जब हम उसके नियमों का सम्मान करते हैं, तो वह हमारी हर आवश्यकता की पूर्ति करती है। लेकिन जब हम स्वार्थ और लालसा में डूब जाते हैं, तो वही प्रकृति अपना संतुलन बिगाड़ देती है। प्रकृति से जितने हम दूर होंगे, उतने ही ज्यादा दुख भी झेलेंगे। अतः हमें प्रकृति के साथ संतुलन बनाए रखते हुए चलना चाहिए। पेड़-पौधों को नहीं काटना चाहिए, बल्कि खेत, मैदान, बाग-बगिचा, बाड़ी-ब्यारा, ताल-नदी और बाँधों के संरक्षण में सक्रिय कार्य करना चाहिए। यदि हम प्रकृति को पोषित करेंगे, तो निःसंदेह वह भी हमें पोषित करेगी; किंतु यदि हम उसे नष्ट करेंगे, तो हमारा भी विनाश निश्चित होगा।
जीतेन्द्र वर्मा "खैरझिटिया"
बाल्को, कोरबा(छग)
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