Thursday, 17 July 2025

सावन-भादो के व्रत-त्योहार: छत्तीसगढ़ की कृषि संस्कृति, नारी शक्ति और स्वास्थ्य चेतना*

 *सावन-भादो के व्रत-त्योहार: छत्तीसगढ़ की कृषि संस्कृति, नारी शक्ति और स्वास्थ्य चेतना*


छत्तीसगढ़ की प्राचीन संस्कृति में कृषि परंपरा का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रहा है। यहाँ का प्रत्येक व्रत-त्योहार, संस्कृति-संस्कार और पारंपरिक परंपराएँ कहीं न कहीं कृषि से गहराई से जुड़ी होती हैं। धान की भरपूर उपज के कारण इस राज्य को *‘धान का कटोरा’* कहा जाता है, और यहाँ मनाए जाने वाले अधिकांश पर्व धान की बुवाई या कटाई से संबंधित होते हैं, जैसे—अक्ति, जुड़वास, सवनाही, इतवारी, सम्मारी, हरेली, पोला, नवाखाई, छेराछेरा और मेला मड़ाई। अन्य व्रत-त्योहार भी इसी कृषि चक्र से प्रेरित हैं, जो कृषक जीवन की लय और श्रम की गति को संतुलित करते हैं।


छत्तीसगढ़ की संस्कृति में व्रत और त्योहारों का स्थान केवल धार्मिक आस्था तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सामाजिक संरचना, स्वास्थ्य चेतना और कृषक जीवन की आवश्यकताओं से भी गहराई से जुड़ा हुआ है। एक रोचक तथ्य यह है कि वर्ष भर में मनाए जाने वाले अधिकांश प्रमुख त्योहार सावन और भादो मास में ही केंद्रित होते हैं। यह विचारणीय है कि इन्हीं दो महीनों में व्रत-त्योहारों की इतनी अधिकता क्यों होती है, जबकि इन्हें पूरे वर्ष में वितरित किया जा सकता था। इसका उत्तर छत्तीसगढ़ की कृषि संस्कृति, मौसमी परिस्थितियों और सामाजिक जीवन की संरचना में छिपा है।


इन महीनों के त्योहारों की एक विशेषता यह है कि इनमें व्रत आधारित पर्वों की संख्या अधिक होती है। *सावन सोमवारी, हरियाली, हरियाली तीज, पोला, कमरछठ, हलछष्ठी, नागपंचमी, ऋषि पंचमी, राखी, कृष्ण जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी* जैसे पर्व इसी समय मनाए जाते हैं। इन पर्वों में स्त्री-पुरुषों की समान भागीदारी रहती है, परंतु आयोजन और परंपरा का निर्वहन मुख्यतः महिलाओं द्वारा ही किया जाता है। कमरछठ, हलछष्ठी और तीज जैसे व्रत तो पूर्णतः महिलाओं द्वारा ही किए जाते हैं। यह न केवल धार्मिक आस्था का प्रदर्शन है, बल्कि महिलाओं के सामाजिक नेतृत्व, सामूहिक सहभागिता और स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता का भी प्रतीक है।


इन त्यौहारों के अलावा छत्तीसगढ़ में आदि काल से ही ग्राम-घर, खेती-किसानी की सुरक्षा और श्रमिकों को विश्राम देने के उद्देश्य से सप्ताह में एक दिन को पर्व के रूप में मनाने की परंपरा रही है। इसे विभिन्न गाँवों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है—जैसे इतवारी, बुधवारी, गुरुवारी आदि। इन पर्वों के दिन खेतों में कार्य नहीं किया जाता, जिससे कृषकों को मानसिक और शारीरिक विश्राम मिलता है। यह परंपरा सावन-भादो में विशेष रूप से प्रचलित है, जब खेतों में निंदाई-चलाई व रोपाई जैसे कार्य पूरे जोर पर होते हैं, और महिलाएँ कीचड़-भरे खेतों में दिनभर श्रम करती हैं। जिससे उनके हाथ व पैर पानी व कीचड़ के सम्पर्क में गलने लगते हैं। साथ ही लगातार बारिश में भी रहना होता है। ऐसे में यह पर्व उन्हें विश्राम और पुनर्नव ऊर्जा प्रदान करते हैं।


वर्षा ऋतु के चार महीने—सावन, भादो, आश्विन और कार्तिक—को चौमासा कहा जाता है। इस काल में वातावरण में अत्यधिक नमी, जलभराव, कीचड़ और जीवाणुओं की सक्रियता रहती है। परिणामस्वरूप पाचन क्षमता कमजोर हो जाती है और पेट, नाक, कान और गले से जुड़ी बीमारियाँ बढ़ जाती हैं। हमारे पूर्वजों ने इस वैज्ञानिक तथ्य को ध्यान में रखते हुए व्रत-उपवास की परंपरा को जन्म दिया। उपवास के माध्यम से शरीर को विश्राम मिलता है, आहार पर नियंत्रण से स्वास्थ्य सुरक्षित रहता है, और रोगों से बचाव संभव होता है। यह परंपरा न केवल शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभकारी है, बल्कि मानसिक संतुलन और आत्मसंयम का अभ्यास भी कराती है।


सावन-भादो के पर्व कृषक जीवन की आवश्यकता से भी जुड़े हैं। लगातार खेतों में काम करने से कृषकों का स्वास्थ्य प्रभावित हो सकता है। ऐसे में व्रत-त्योहार उन्हें मानसिक और शारीरिक विश्राम प्रदान करते हैं। साथ ही, यह पर्व कृषक वर्ग को कठिन श्रम से कुछ समय के लिए दूर कर सामाजिक और पारिवारिक जीवन से जुड़ने का अवसर भी देते हैं। यदि व्रत-त्योहारों की परंपरा न होती, तो कृषक वर्ग लगातार खेतों में कार्य करता रहता, जिससे उनका स्वास्थ्य और सामाजिक संतुलन बिगड़ सकता था।


इस प्रकार सावन और भादो मास में व्रत-त्योहारों की अधिकता केवल धार्मिक भावना से नहीं, बल्कि वैज्ञानिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आवश्यकता से जुड़ी हुई है। इन पर्वों के माध्यम से न केवल स्वास्थ्य की रक्षा होती है, बल्कि कृषक जीवन को संतुलन और विश्राम भी मिलता है। और इन सबमें महिलाओं की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण और नेतृत्वकारी होती है, जो छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक चेतना, नारी शक्ति और कृषि जीवन की जीवंतता को दर्शाती है।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

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