घर
मैं घर घर से निकाला हो गया हूँ।
हरा नीला लाल वाला हो गया हूँ।।
हाँ मैं कभी मंदिर हुआ करता था,
आज सिर्फ धर्मशाला हो गया हूँ।।
दानी बनकर देता था हरदिन हर सुख,
ब्याज खाने वाला लाला हो गया हूँ।।
एक जमाने में मैं चाबी था हर गम का।
आज बेशक बन्द ताला हो गया हूँ।।
सोता रहता था गाँव में पांव पसारकर,
खड़े खड़े शहर में काला हो गया हूँ।।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)
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