सुरता के सावन-कुकुभ छंद
बही तोर सुरता के सावन, रहरहि आके भींगाथे।
पार जिया के बाँधौं कतको, मया छलक तभ्भो जाथे।।
करिया चुन्दी उड़ै हवा मा, लागे बदरा हे छाये।
आँखी चमके बिजुरी जइसे, मुस्की हा गाज गिराये।।
बूँद मया के बरसै रझरझ, मन मँजूर बन इतराथे।
बही तोर सुरता के सावन, रहरहि आके भींगाथे।
रोम रोम हा मोर रूख कस, लहर लहर बड़ लहराये।
मया जाल मा अरझे सपना, मछरी जइसे अँटियाये।।
नाम रटे मन दादुर बनके , फुरफुन्दी कस उड़ियाथे।।
बही तोर सुरता के सावन, रहरहि आके भींगाथे।।
आस जिया के ताल नदी कस, पी पी के नीर अघाये।
मया दया के घउदे खेती, सावन जिवरा हरसाये।।
झड़ी सही बरसे कतको दिन, सब सुधबुध जिया गँवाथे।
बही तोर सुरता के सावन, रहरहि आके भींगाथे।।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)
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चारो मूड़ा देख ले,पानी हे जलरंग।
बढ़िया समे बिताय हौं,सागर तोरे संग।
खैरझिटिया
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मनखे बड़ हे छोट गा,कइसे पाही पार।
मया धरे आवय सदा,सागर तोर झलार।
आर के बिच विसाखापट्टनम से
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मन ला मोहत मोर हे,सागर तोर झलार।
हद मा रहिबे तैं अपन,झन चढ़बे गा पार।
आर के बिच विसाखापट्टनम से
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