लड़ेल पड़ही
उन्ना कोठी काठा ल,भरेल पड़ही।
महतारी के सेवा , करेल पड़ही।
अउ कतिक बोजाबे,छल-कपट के घुरवा म?
दया - मया के निसेनी , चढ़ेल पड़ही।
के दिन ले जीबे,मन ल मार-मार के?
जिनगी जीये बर,बने रद्दा गढ़ेल पड़ही।
कोड़िहा नई रेंगे,बिन हाँके-फटकारे।
रेंगाय बर सत के तुतारी,धरेल पड़ही।
बंधाय बइला कस , के दिन ले खाबे पेरा-भूंसा?
छोंर के गेरवा,अपन मन के काँदी चरेल पड़ही।
ठीक हे;होत हे गुजारा ,अल्वा - जलवा।
फेर बढ़त जमाना संग,आघू बढ़ेल पड़ही।
झन भाग धन- दऊलत, के पीछू जादा।
छोड़ के सबो जिनिस , मरेल पड़ही।
बईरी ले लड़े बर , तियार हे "जीतेन्द्र"
फेर जिया जरही जब,अपनेच ले लड़ेल पड़ही।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बालको(कोरबा)
9981441795
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