कुदरत के कई रूप-सार छंद
नाना रूप देख कुदरत के, ठहर जथे मन नैना।
अँगरी दाँत तरी दब जाथे, मुँह ले फुटे न बैना।।
कई पेड़ जमकरहा मोठ्ठा, अमरे कई गगन ला।
कई किसम के पान फूल फर, देय खुशी बड़ मन ला।।
हूँप हूँप कहि कुदे बेंदरा, गाना गाये मैना।
कुदरत के कई रूप देख के,ठहर जथे मन नैना।।
मस्ती मा इतराय समुंदर, जलरँग धरके पानी।
नदिया झरना डिही डोंगरी, रोज सुनाय कहानी।।
घाटी पानी पथरा लाँघे, हाथी हिरणा हैना।
कुदरत के कई रूप देख के, ठहर जथे मन नैना।।
दुहरा तिहरा पथरा माड़े, देखत लगे अचंभा।
रूप प्रकृति के मन मोहें, लजा जाय रति रंभा।।
बने बने रखबों कुदरत ला, बने रही दिन रैना।
कुदरत के कई रूप देख के, ठहर जथे मन नैना।।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)
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