*दीपावली और हिंदी गीत कविताएँ*
कार्तिक मास अमावस्या को मनाये जाने वाला पावन पर्व दीपावली भारतवर्ष के प्रमुख हिंदू त्यौहारों में एक है। इसी दिन भगवान राम चौदह वर्ष वन में व्यतीत कर अयोध्या पधारे थे, और अयोध्या वासियों ने दीप जलाकर भगवान राम का स्वागत किया था। तब से लोग दीपावली के दिन दीप जलाते आ रहे है। धनतेरस, नरक चतुर्दशी, लक्ष्मी पूजन, गोवर्धनपूजन और भाईदूज इस तरह दीपावली पाँच दिनों का त्यौहार होता है, सभी त्यौहारों के पीछे अलग अलग धार्मिक/ पौराणिक महत्ता है। शीतल मंद पवन और गुलाबी ठंड लेकर पधारने वाली महापर्व दीपावली लोगों को नाचने गाने पर मजबूर कर देते है। दीपावली की तैयारियाँ सभी लोग बड़े जोर शोर से करते हैं। घर आँगन की साफ सफाई, लिपाई पुताई के साथ, सभी नए नए कपड़े पहनकर फुलझड़ी और पटाखें फोड़ते है, मेवा मिठाई बाँटते है, दीये जलाते है, और भाईचारे की भावना से ओतप्रोत एक दूसरे को प्रकाश पर्व की बधाई देकर गले मिलते है। टिमटिमाते हजारों दिये, रंग रोगन होकर इठलाते घर आँगन, खेतो में नाचती धान की सुनहरी बालियाँ, फूटते पटाखें, नए नए कपड़े सभी के मन को मुग्ध कर देती है। ऐसे में हम सबके मुखार बिंद से गीत कविता न निकले, ऐसा हो ही नही सकता। दीपावली को असंख्य कवियों और गीतकारों ने अपने अपने शब्दों में बांधे हैं, चलते है, उनमें से कुछ गीत कविताओं की ओर--
माता लक्ष्मी कार्तिक अमावस्या के अँधेरी रातों में किस तरह और कैसे लोगों के घर घर तक दस्तक देतीं है, उसे बताते हुये कवि *माखनलाल चतुर्वेदी* जी लिखतें हैं-
सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें
कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें।
लक्ष्मी खेतों फली अटल वीराने में
लक्ष्मी बँट-बँट बढ़ती आने-जाने में
लक्ष्मी का आगमन अँधेरी रातों में
लक्ष्मी श्रम के साथ घात-प्रतिघातों में
लक्ष्मी सर्जन हुआ
कमल के फूलों में
लक्ष्मी-पूजन सजे नवीन दुकूलों में।।
हमारा भारत कृषिप्रधान राष्ट्र है। त्यौहार आदि सब कृषि के अनुसार ही मनाये जाते है। किसान,श्रमिक, मेहनत कस मजदूर आदि सतत काम करते हैं, पर फल नाममात्र पाते हैं। उन सब लोगों के लिये, सुख समृद्धि की कामना करते हुए, दीवाली के दीपक के माध्यम से राष्ट्रकवि *मैथलीशरण गुप्त* जी कहतें हैं-
जल, रे दीपक, जल तू
जिनके आगे अँधियारा है,
उनके लिए उजल तू
जोता, बोया, लुना जिन्होंने
श्रम कर ओटा, धुना जिन्होंने
बत्ती बँटकर तुझे संजोया,
उनके तप का फल तू
जल, रे दीपक, जल तू
दीपावली हिंदुओ का सबसे बड़ा धार्मिक त्यौहार है, इस पर्व को सभी लोग बड़े धूमधाम से मनाते है। इस दिन छोटे बड़े सभी के घरों में खासा उत्साह,उमंग और चहल पहल रहती है। देश,राज और समाज की स्थिति को देखकर, दीये को सम्बोधित करते हुए कवि श्री *अयोध्या सिंह उपाध्याय"हरिऔध"* जी तातंक छंद में कहते है--
दीपमालिके! दीपावलि ले आती हो, तो आ जाओ;
घूम तिमिर-पूरित भारत में भारतीयता दिखलाओ।
जो आलोकवान बनते हैं, उनमें है आलोक नहीं;
ज्योति-भरे उनके लोचन हैं, जो सकते अवलोक नहीं।
हैं हिन्दू-कुल-कलस कहाते, सूझ बहुत ही है आला;
किंतु विलोक नहीं सकते, वे हिन्दू-अंतर की ज्वाला।
दीपावली उत्साह उमंग के साथ साथ आशा और विश्वास का भी पर्व होता है, जो अमावस को भी पूनम कर देती है। पुरानी बातों को भूलकर नवविश्वास और आस ले, नए कार्य में रत हो जाने की प्रेरणा, दीपावली हम सबको प्रदान करती है। दीपावली पर बुझे दीपक जलाने की बात करते हुए, कवि सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्सायन अज्ञेय जी कहते हैं-
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
है कंहा वह आग जो मुझको जलाए,
है कंहा वह ज्वाल पास मेरे आए,
रागिनी, तुम आज दीपक राग गाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
जब चहुँओर हताशा हो और बुराई अच्छाई पर हावी हो जाए, तब मानव मन में नव ऊर्जा की संचार करती हुई, पूर्व प्रधानमंत्री, कवि श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी की ये पंक्ति दीपावली पर याद आती है---
आओ फिर से दिया जलाएं
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें
बुझी हुई बाती सुलगाएं।
आओ फिर से दिया जलाएं
दीपावली की रात चहुँओर टिमटिमाते दीपों को देखकर कवि *सोहनलाल द्विवेदी* जी लिखतें हैं-
हर घर, हर दर, बाहर, भीतर,
नीचे ऊपर, हर जगह सुघर,
कैसी उजियाली है पग-पग,
जगमग जगमग जगमग जगमग!
छज्जों में, छत में, आले में,
तुलसी के नन्हें थाले में,
यह कौन रहा है दृग को ठग?
जगमग जगमग जगमग जगमग!
वैज्ञानिक युग में आज हम चाँद तारों पर पग रख रहे है, हमारी पहचान और पहुँच बढ़ती ही जा रही है। दूर देखने के चक्कर में हम कभी कभी पास को देखना भूल जाते है, उसी को "दीवाली के दिये" के माध्यम से याद दिलाते हुये कवि श्री *केदारनाथ सिंह* जी कहते है--
जाना, फिर जाना,
उस तट पर भी जा कर दिया जला आना,
पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है,
उस उड़ते आँचल से गुड़हल की डाल
बार-बार उलझ जाती हैं,
एक दिया वहाँ भी जलाना;
दीपक महज दीये,बाती और तेल का नही, बल्कि आत्ममविश्वास, एकता और भाईचारे का भी जलना चाहिये,तभी हार,बाधा,विकार जैसे तम दूर होते है, इसी बात को शब्द देती हुई कवयित्री *महादेवी वर्मा* जी लिखतीं है---
सब बुझे दीपक जला लूँ!
घिर रहा तम आज दीपक-रागिनी अपनी जगा लूँ!
क्षितिज-कारा तोड़ कर अब
गा उठी उन्मत आँधी,
अब घटाओं में न रुकती
लास-तन्मय तड़ित् बाँधी,
धूलि की इस वीण पर मैं तार हर तृण का मिला लूँ!
मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!
युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल
प्रियतम का पथ आलोकित कर!
- महादेवी वर्मा
एक कहावत है- दीया तले अँधेरा। इसी पर व्यंग्य कसते और चुनौती देते हुये *गोपालदास "नीरज"* जी कहते हैं---
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना,
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
दीवाली में हजारों छोटे बड़े दीप जलकर अमावस को पूनम करते है, इसी भावना से ओतप्रोत कवि *हरिवंश राय बच्चन* जी एकता के दीप जलाने के लिये कह रहे है-
शत-शत दीप इकट्ठे होंगे
अपनी-अपनी चमक लिए,
अपने-अपने त्याग, तपस्या,
श्रम, संयम की दमक लिए।
आदमी को भी दीपक बनकर जलना चाहिये, हार से निराश नही सीख लेकर बढ़ना चाहिये। हर कार्य और श्रम को साधना मानकर चलना चाहिये। इसी भाव में दीपक के बहाने कवि *हरिवंश राय बच्चन* जी कहते है----
उजियारा कर देने वाली
मुस्कानों से भी परिचित हूं,
पर मैंने तम की बाहों में अपना साथी पहचाना है
मैं दीपक हूँ, मेरा जलना ही तो मेरा मुस्काना है।
दीवाली के जगमग जलते दीपक को देखकर अपने मन को संबोधित करते हुए *रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'* जी लिखते हैं--
जलती बाती मुक्त कहाती
दाह बना कब किसको बंधन
रात अभी आधी बाकी है
मत बुझना मेरे दीपक मन
जिस तरह बाती को जलने के लिये तेल की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार से प्रेम रस जिंदगी को सदा आलोकित करती रहती है। इसी भाव को गति देते हुए *गोपालसिंह 'नेपाली'* जी लिखते हैं---
बची रही प्रिय की आँखों से,
मेरी कुटिया एक किनारे,
मिलता रहा स्नेह रस थोड़ा,
दीपक जलता रहा रात-भर ।
दीये की रौशनी महज रौशनी नही, *शाहिद मिर्ज़ा शाहिद* के नजरिये में कुछ और भी है, चलो हम भी उस चमकते लौ में अपने मंजिल/आस-विश्वास को ढूंढने का प्रयास करें-
दीपमाला में मुसर्रत की खनक शामिल है
दीप की लौ में खिले गुल की चमक शामिल है
जश्न में डूबी बहारों का ये तोहफ़ा शाहिद
जगमगाहट में भी फूलों की महक शामिल है
इस तरह दीवाली से संबन्धित असंख्य कविताएं हैं, उन सब का जिक्र कर पाना मुश्किल है। आदिकाल से लेकर आधुनिक काल में अब तक, बहुत सारे कविगण दीपावली को अपने शब्दों में बाँधे है। उक्त लेख में सिर्फ कुछ पंक्तियाँ ही उल्लेखित है, और भी पढ़ने से पूर्णतया कवि के भाव शिल्प को जाना जा सकता है, और प्रकाश पर्व का सम्पूर्ण काव्यमय आनंद लिया जा सकता है। अब बात करते है, दीपावली से संबन्धित कुछ चर्चित गीतों की---
1, आई दीवाली आई दीवाली दीपक संग नाचे पतंग
फिल्म- रतन (1944)
2, आई दिवाली आई कैसे उजाले लाई, घर-घर खुशियों के दीप जले
फिल्म-खजांची [1958]
3, आई अब की साल दिवाली मुंह पर अपने खून मले
फिल्म -हकीकत (1964)
4, आई दिवाली दीप जलाये जा, ओ मतवाले साजन
फिल्म-पगड़ी (1948)
5, आई दीवाली दीपों वाली गाय सखियां
फिल्म -महाराणा प्रताप (1964)
6, आई है दिवाली सखी आई है दिवाली रे आई है दिवाली
फिल्म-शीश महल (1950)
7, आई है दिवाली सुनो जी घरवाली आई है दिवाली
फिल्म -आमदानी अठ्ठनी खर्चा रुपइया [2001]
8, ए दुनिया बता हमने बिगाड़ा है क्या तेरा
फिल्म- किस्मत (1943)
9, दीप जले दीप दिवाली आई हो
फिल्म- पैसा (1957)
10, दीपक से दीपक जल गए, लो आज अंधेरे ढल गए
फिल्म- अंजलि (1957)
11, दीपावली मनाए सुहानी मेरे साई के हाथों में जादू का पानी
फिल्म -शिरडी के साईं बाबा (1977)
12, दिवाली आई रे घर-घर दीप जले
फिल्म -- लीडर (1964)
13, दिवाली के चिरागों हमें इश्क सिखा दे
फिल्म- रेणुका (1947)
14, दिवाली की रात, पिया घर आने वाली है,साजन घर आने वाली है
फिल्म-- अमर कहानी (1949)
15, दिवाली फिर आ गई सजनी, हां हां मन का दीप
फिल्म- खजांची (1941)
16, एक वो भी दिवाली थी एक यह भी दिवाली है
फिल्म --नजराना (1961)
17, एक नया संसार सजाओ आज खुशी का दिन आया
फिल्म --वीर घटोत्कच (1949)
18, इस रात दीवाली ये कैसी यह कैसा उजाला छाया है
फिल्म- सबसे बड़ा रुपैया 1955
19, जहां मैं आई दिवाली जले चराग जले
फिल्म-ताज (1956)
20, जगमगाती दिवाली की रात आ गई, जैसे तारों के घर में बारात आ गई
फ़िल्म - स्टेज [1951]
21, जल जल रे दीपक जल, काली काली रात निराली आज दिवाली
फिल्म-वामन अवतार (1956)
22, कैसे मनाएं दिवाली हम लाला, अपना तो 12 महीने दिवाला कै
फिल्म-- पैगाम (1959)
23, मेले हैं चिरागों के रंगीन दिवाली है
फिल्म- नजारा (1961)
24, मेरे तुम्हारे सबके लिए हैप्पी दिवाली
फिल्म- होम डिलीवरी (2005)
25, लाखों तारे आसमान में
फिल्म-‘हरियाली और रास्ता‘(1962)
26, जोत से जोत जलाते चलो
फिल्म -“संत ज्ञानेश्वर”(1964)
दीपावली पर जिस तरह घर आँगन को साफ सफाई कर उत्साह उमंग के साथ जगमग दीप जलाते है, उसी प्रकार हम सबके अंतर्मन में भी सद्भावना,भाईचारे,सत,सम्मत और आशा विश्वास का दीपक,मानवता और प्रेम रूपी तेल में डूबकर सदा सर्वदा जलते रहना चाहिये।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)
9981441795
साभार-गूगल,अल्पना वर्मा,प्रकाश गोविंद
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