होटल मा रहना खाना-कुकुभ छंद
होटल मा रहना अउ खाना, हरे एक ठन मजबूरी।
मजबूरी ला शान समझ झन, झोंक मेहनत मजदूरी।।
गाँव शहर घर डहर बाट मा, खुलगे बड़ होटल ढाबा।
फुलत फलत हे दिनदिन भारी, धन जोड़े काबा काबा।।
बैपारी मन खीचै सब ला, चला चला गुरतुर छूरी।
होटल मा रहना अउ खाना, हरे एक ठन मजबूरी।।
आँखी मूँद झपावैं मनखें, चक्कर मा देखावा के।
ऐसी फ्रिज के करजा छूटे, जरहा रोटी तावा के।।
भात दार सब मिले तउल मा, पेट देय नइ मंजूरी।
होटल मा रहना अउ खाना, हरे एक ठन मजबूरी।।
जेखर कर नइ घर दुवार अउ, जेखर नइ रिस्ता नाँता।
जेखर जाँगर हवैं खियाये, जे घर नइ चूल्हा जाँता।।
वो मन खोजैं होटल ढाबा, मृग बन भटकत कस्तूरी।
होटल मा रहना अउ खाना, हरे एक ठन मजबूरी।।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)
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