मया-जीतेन्द्र वर्मा
मोर जिनगी होगे हे,अँधियार संगी रे।
छोड़ चल देहे मोला मोर,प्यार संगी रे।।
असाड़ आथे,त बिजुरी डरह्वाथे,
रोवाथे सावन के,बऊछार संगी रे।
भादो भर इती उती ,भटकत रहिथँव,
जरथाथँव रावन कस, कुँवार संगी रे।
संसो म बुलके,कातिक के देवारी,
अग्घन अगोरों,दीया बार संगी रे।
पूस के जाड़ा हा, बनगे हे काल,
रोवँव माँघ महीना मैं,हार संगी रे।
कवने हा रँगही , फागुन रंग म?
कइसे अक्ति मनातेंव,तिहार संगी रे।
बइसाख बइरी,रहि-रहि बियापे,
जेठ भूंजे आगी म,डार संगी रे।
तोर बिना मन,नइ लागे "जीतेन्द्र"
नइ भाये महीना,दिन बार संगी रे।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)
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