Tuesday 31 January 2023

माँग होटल ढाबा के- कुंडलियाँ छंद

 माँग होटल ढाबा के- कुंडलियाँ छंद


मजबूरी मा खाय बर, होटल ढाबा होयँ।

फेर मनुष मन आज के, रोज खाय बर रोयँ।।

रोज खाय बर रोयँ, सबे होटल ढाबा मा।

हाँसत हें पोटार, दिखावा ला काबा मा।।

तन के रखें खियाल, तौंन मन राखयँ दूरी।

बनगे फैशन आज, रहै पहली मजबूरी।।


घर कस जेवन नइ मिले, मनखे तभो झपायँ।

रोज रोज पार्टी कही, घर ले बाहिर खायँ।।

घर ले बाहिर खायँ, जुरै संगी साथी सब।

कोन भला समझायँ, सबे ला भावै ये अब।।

खानपान वैव्हार, आज सब होगे करकस।

चैन सुकून पियाँर, कहाँ मिल पाही घर कस।।


आज जमाना हे नवा, होटल सब ला भायँ।

अपन हाथ मा राँध खा, पहली जन मुस्कायँ।

पहली जन मुस्कायँ, भात बासी खा घरके।

होटल जावैं आज, लोग लइका सब धरके।।

खा मशरूम पुलाव, भात ला मारे ताना।

पहुँच चुके हे देख, कते कर आज जमाना।


बासी कड़हा कोचरा, काय परोसा दान।

हाड़ी सँग वैपार हे, त का धरम ईमान।

त का धरम ईमान, सबें होटल ढाबा के।

का का राँध खवाय, तभो इतरायें खाके।

धन सँग तन बोहायँ, बने होटल के दासी।

होगे मनुष अलाल, खायँ होटल मा बासी।


पानी पइसा मा मिले, कणकण देवयँ तोल।

काय जानही वो भला,दया मया के मोल।

दया मया के मोल, जानही का होटल हा।

पइसा जा बोहायँ, कामकाजी अउ ठलहा।

रथे मसाला तेल, खायँ नइ दादी नानी।

नाती नतनिन पूत, बहू पीयें ले पानी।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

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