गीत--सियान मन
ये धरती ले धीरे धीरे, जावत हवयँ सियान मन।
जनम देवइया जतन करइया, भुइयाँ के भगवान मन।
पेड़ पात पानी पुरवा ला, जस के तस सौपिन हम ला।
रखिन बचा के सरी चीज ला,खुद उपभोग करिन कम ला।
लागा, पागा धर नइ करिन, सपना खातिर सुजान मन।
ये धरती ले धीरे धीरे, जावत हवयँ सियान मन।।
चिपके रिहिन हावयँ सबदिन, मानवता के गारा मा।
दया मया ला बाँटत फिरिन, गाँव गली घर पारा मा।
लाँघन नइ गिस जिंखर ठिहा ले,जानवर ना इंसान मन।
ये धरती ले धीरे धीरे, जावत हवयँ सियान मन।।
सही गलत अउ पाप पुण्य के, लहराइन सबदिन झंडा।
छोड़दिन बैरी ला बदी देके, नइ देखाइन आँखी डंडा।।
अंतर मन ला आनन्द देवयँ, जिंखर सुर अउ तान मन।
ये धरती ले धीरे धीरे, जावत हवयँ सियान मन।।
परम्परा अउ संस्कृति के, सौदा करिन नही कभ्भू।
देखावा अउ चकाचौंध बर, लड़िन मरिन नही कभ्भू।
चद्दर देख लमाइन हें पग, उड़िन मनुष नइ महान मन।
ये धरती ले धीरे धीरे, जावत हवयँ सियान मन।।
नता रिस्ता ला हाँस निभाइन,पीठ चढ़ाइन नाती ला।
कथा कहानी न्याय सुनाइन, लिखिन पढ़िन पाती ला।।
नवा समय मा नोहर होही, जुन्ना गुण अउ ज्ञान मन।
ये धरती ले धीरे धीरे, जावत हवयँ सियान मन।।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)
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