संसो किसान के-छंद त्रिभंगी
तन मन नइ हरियर, बन नइ हरियर, काय हरेली मैं मानौं।
उना कुँवा तरिया, सुख्खा परिया, का खुमरी छत्ता तानौं।।
गाँवौं का कर्मा, बन अउ घर मा, भाग अपन सुख्खा जानौं।
मारौं का मंतर, अन्तस् गे जर, नीर कहाँ ले अब लानौं।।
खापौ का गेंड़ी, पग हे बेंड़ी, बोली मुँह नइ फूटत हे।
बिन होय बियासी, होगे फाँसी, प्राण धान के छूटत हे।।
का धीर धरौं अब, खुदे जरौं अब, आस जिया के टूटत हे।
बिन बरसे जाथे, टुहूँ दिखाते, घन बैरी सुख लूटत हे।।
आगी संसो के, भभके भारी, उलट पुलट मन चूरत हे।
आँखी पथरागे, चेत हरागे, बने सकल ना सूरत हे।।
आने कर सुख हे, मोरे दुख हे, पानी तक नइ पूरत हे।
काखर कर जावौं, कर फैलावौं, पथरा के सब मूरत हे।।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को, कोरबा
No comments:
Post a Comment