विश्व आदिवासी दिवस के आप सब ला सादर बधाई
जंगल म बाँस के
जंगल म बाँस के,
कइसे रहँव हाँस के।
खेवन खेवन खाँध खींचथे,
चीखथे सुवाद माँस के।
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सुरसा कस बाढ़े।
अँकड़ू बन वो ठाढ़े।
डहर बाट ल लील देहे,
थोरको मन नइ माढ़े।
कच्चा म काँटा खूँटी,
सुक्खा म डर फाँस के।
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माते हे बड़ गइरी।
झूमै मच्छर बइरी।
घाम घलो घुसे नही,
कहाँ बाजे पइरी।
कइसे फूकँव बँसुरी,
जर धर साँस के---।
झुँझकुर झाड़ी डार जर,
काम के न फूल फर।
सताये साँप बिच्छी के डर,
इँहा मोला आठो पहर।
बिछे हवे काँदी कचरा,
बिजराय फूल काँस के।
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शेर भालू संग होय झड़प।
कोन सुने मोर तड़प।
आषाढ़ लगे नरक।
जाड़ जड़े बरफ।
घाम घरी के आगी,
बने कारण नास के।
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मोर रोना गूँजे गाना सहीं।
हवा चले नित ताना सहीं।
लाँघन भूँखन परे रहिथौं,
सुख दुर्लभ गड़े खजाना सहीं।
जब तक जिनगी हे,
जीयत हँव दुख धाँस के।
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रोजे देखथों बाँस के फूल।
जिथौं गोभे हिय मा शूल।
बस नाम भर के हमन,
जल-जंगल-जमीन के मूल।
परदेशिया मन पनपगे,
हमन ला झाँस के।
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पाना ल पीस पीस पी,
पेट के कीरा संग,
मोर पीरा घलो मरगे।
मोर बनाये चटई खटिया,
डेहरी म माड़े माड़े सरगे।
प्लास्टिक के जुग आगे,
सब लेवै समान काँस के।
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न कोयली न पँड़की,
झिंगरा नित झकझोरे।
नइ जानँव अँजोरी,
अमावस आसा टोरे।
न डाक्टर न मास्टर,
मैं अड़हा जियौं खाँस खाँस के।
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जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)
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