गाँव मा
खुलगे विकास के, पोल गाँव मा।
दिन रात रथे बिजली, गोल गाँव मा।।
सो पिस के जमाना मा, सोवत हे सुख चैन।
जागत नइहे गुठलू अउ, चिचोल गाँव मा।।
उपरे उपर दिखथे दया मया, उबटन कस।
फेर भीतरे भीतर हे, बड़ झोल गाँव मा।।
हीरक के नइ देखे, कुर्सी ला पाके नेता।
बस चुनाव दरी पीटथे, आके ढोल गाँव मा।।
फइलत हे जँउहर, देखमरी के बीमारी।
धीर लगाके नँदात हे, गुरतुर बोल गाँव मा।।
डहर बाट मा बोहात हे, नहानी के पानी।
पर सुख दुख के नइहे, कोई मोल गाँव मा।।
विकास के बइला बस, कागज मा मेछरात हे।
टर्रावत हे मेचका अउ, बिंधोल गाँव मा।।
भागत हे सुख सुविधा बर, शहर गँवइहा।
व्यपारी जमीन नपात हे, होलसोल गाँव मा।।
ददा दाई घिरलत ले कमात हे, खेत खार मा।
बाढ़े टूरी टूरा मन मारत हें, रोल गाँव मा।।
बोहाय पड़े हे घर के, पिछोत बखरी बारी।
ठाढ़े हे अँगना दुवारी, मुँह खोल गाँव मा।।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को, कोरबा(छग)
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