कुंडलियाँ छंद -दरुहा बरसात मा
ओधा मा बइठे हवै, अउ पीयत हे मंद।
छलत हवै तन ला अपन, बनके खुद जयचंद।
बनके खुद जयचंद, गुलामी करै काल के।
झगरा झंझट झूठ, चलै लत लोभ पाल के।
संगी साथी संग, पियै बर खोजै गोधा।
पियै हाँस के मंद, बइठ के पथना ओधा।
छपक छपक के रेंगथे, उठउठ अउ गिर जाय।
दरुहा के बरसा घरी, तन मन दुनो सनाय।
तन मन दुनो सनाय, हमाये काखर मुँह मा।
रहिरहि के बस्साय, गिरे डबरा अउ गुह मा।
बुता काम बतलाय, मेघ हा टपक टपक के।
चले हलाके घेंच, मंदहा छपक छपक के।
रोवै लइका लोग हा, पड़े हवै घर खेत।
छोड़ छाँड़ सब काम ला, दरुहा फिरे अचेत।
दरुहा फिरे अचेत, सुनय नइ कखरो बोली।
करै सबे ला तंग, गोठ ले छूटय गोली।
धन दौलत उरकाय, जहर घर बन मा बोवै।
लगगे हे चौमास, लोग लइका सब रोवै।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को, कोरबा(छग)
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